शनिवार, 25 मई 2019

अब आ रही है नेताओं के फन पटकने की बारी


विश्वत सेन

अक्सर हम अपनी दादी-नानी रे कहानी सुनते हैं, तो उन कहानियों मणिधारी सांप की कहानी जरूर होती है। इन कहानियों में अक्सरहां इस बात की चर्चा होती है कि कोई साहसी पुरुष मणिधारी नाग की मणि को साहस और तरकीब के बल पर हासिल कर लेता है। साहसी पुरुष के हाथ मणि लगते ही लगते ही जहरीला नाग अपना फण पटक-पटक के मर जाता है और फिर उसके मरने के बाद नागिन भी मणि हासिल करने वाले साहसी और तिकड़मी आदमी की दर पर अपना फन पटकना शुरू कर देती है, ताकि वह मणि को हासिल कर सके।
यह तो हुई दंतकथाओं की बात। अगर आप दुनिया के सबसे लोकतांत्रिक देश भारत को देखेंगे, तो हर पांच साल के देश साहसी और तिकड़मी राजनेता मतदाताओं से विजय रूपी मणि हासिल कर लेते हैं और फिर मतदाता अपनी मणि यानी अपना अधिकार और सुविधा रूपी मणि हासिल करने के लिए पूरे पांच साल तक तिकड़मी नेताओं की दर पर अपना फन पटकता रह जाता है। इनमें कई मतदाता फन पटकते-पटकते स्वर्ग सिधार जाते हैं, तो बाकी बचे मतदाताओं का फन पटकते-पटकते पांच साल गुजर जाता है। उधर, दूसरी ओर मतदाताओं से विजय रूपी मणि हासिल कर तिकड़मी और दुस्साहसी राजनेता पूरे पांच साल तक मनी पर मनी यानी नोटों की इमारत खड़ी करने के साथ पूरे ऐशो-आराम की जिंदगी बसर करते हैं। इन पांच सालों में वे इतना धन एकत्र कर लेते हैं कि उससे उनका जीवन ही नहीं, बल्कि आल-औलादों की जिंदगी भी पूरी मस्ती से कटने लग जाती है।
मगर, अब यह राजनेताओं का तिकड़म और दुस्साहस किम्वदंती बनने के कगार पर पहुंच रहा है। अब फन मतदाता नहीं पटकेंगे, बल्कि कुछेक साल में वे खुद विजय रूपी मणि हासिल करने के लिए फन पटकते नजर आएंगे। आप कहेंगे कैसे? तो इसका जवाब है कि नोटा यानी इनमें से कोई नहीं का विकल्प है न!
जी हां, इन राजनेताओं के प्रति गुस्सा प्रकट करने और इन्हें खारिज करने के लिए मतदाताओं के पास सशक्त विकल्प 'नोटा' है, जिसका इस्तेमाल अब बड़े पैमाने पर होने लगा है। अभी हाल में संपन्न हुए 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें, तो इसमें भाजपा और राजग के घटक दलों को भले ही प्रचंड बहुमत मिला हो, मगर 'नोटा' ने भी जबरदस्त असर दिखाया है। इस चुनाव में कुल 65,85,823 मतजाताओं ने नोटा का इस्तेमाल कर देश के राजनीतिक दलों के प्रति गुस्से का इजहार किया है, जो 2014 के चुनाव से 5,85,823 नोटा मत अधिक है। 2014 के चुनाव में कुल 60 लाख मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल कर राजनेताओं को खारिज किया था।
गौर करने वाली बात यह भी है कि देश में भाजपा या राजग शासित राज्यों के मतदाताओं ने जबरदस्त तरीके से नोटा का इस्तेमाल कर नेताओं को मणि हासिल करने के लिए फन पटकने पर मजबूर किया है। इन राज्यों में सुशासनी बाबू का राज्य बिहार करीब 8,17,139 नोटा मत के साथ पहले पायदान पर है। वहीं, पीएम मोदी के परम भक्त योगी आदित्यनाथ का राज्य उत्तर प्रदेश 7,25,079 नोटा मत हासिल करके दूसरे पायदान पर है। इन राज्यों के अलावा, बंगाली बाला ममता बनर्जी का बंगाल 5,46,778 नोटा मत के साथ तीसरे, अम्मा की चरणपादुका रखकर शासन करने वाला राज्य तमिलनाडु 5,41,250 नोटा मत के साथ चौथे स्थान पर, रोड मंत्री नितिन गडकरी का राज्य महाराष्ट्र 4,88,766 नोटा मत के साथ पांचवें स्थान पर, महाठगबंधन के जुगाड़ में राजनीतिक दरों पर फन पटकने वाले चंद्र बाबू नायडू का आंध्र प्रदेश 4,69,863 नोटा मत के साथ छठे स्थान पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर भाई मोदी का मॉडल राज्य गुजरात 4,00,941 नोटा मत के साथ सातवें स्थान पर, कांग्रेसी कमल के नाथ वाला राज्य मध्यप्रदेश 3,40,984 नोटा मत के साथ आठवें स्थान पर, राजा-रजवाड़ों का राज्य राजस्थान 3,27,569 नोटा मत के साथ नौवें स्थान पर और माइंड ब्लोइंग राजनीति करने नवीन पटनायक का राज्य ओड़िशा 3,10,824 नोटा मतों के साथ 10वें स्थान पर है।
इन राज्यों के अलावा कर्नाटक में 2,50,810, छत्तीसगढ़ में 1,96,265, तेलंगाना में 1,90,798, झारखंड में 1,89,367, असम में, 1,78,335, पंजाब में 1,54,423, दिल्ली में 1,03,996, और केरल में 1,03,596 नोटा मत पड़े। सबसे कम लक्षद्वीप में 125 नोटा मतों का इस्तेमाल किया गया।
हालांकि, देश में नोटा के इस्तेमाल की यह स्थिति तब है, जब निर्वाचन आयोग और राज्यों के प्रशासन द्वारा उसे हतोत्साहित करने का अभियान तक चलाया गया, मगर साहिब उन मतदाताओं का क्या करेंगे, जिनके मन राजनेताओं के प्रति नाराजगी और गुस्सा है। यह इस बात का संकेत है कि निकट भविष्य में दुस्साहसी और तिकड़मी नेताओं को नोटा के आगे अपना फन पटकना ही पड़ेगा।
बामुलाहिजा होशियार!

गुरुवार, 23 मई 2019

रुको, रुको, रुको...इक नया पैमाना आया है...

विश्वत सेन
आज यानी 23 मई 2019 को 17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव का समापन हो गया। एक्जिट पोल सर्वे और भाजपा व एनडीए के सहयोगी दलों के मुताबिक भाजपा और उसके सहयोगी दलों को 2014 के आम चुनाव की तुलना से कहीं अधिक प्रचंड बहमत मिला है, मगर रुको, रुको, रुको....। मतगणना शुरु होने के बाद से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन तक के दरम्यान मुझे एक नया पैमाना मिला है।
अब आप पूछेंगे कि भई, वह नया पैमाना आखिर है क्या?
मेरा उत्तर होगा कि आप जरा 2009 से लेकर 2014 तक यूपीए-दो के शासनकाल में गरीबी का पैमाना तय करने वाली दरों पर गौर करें। 2014 के पहले तक देश में योजना आयोग नाम की एक संस्था थी, जिसका पदेन अध्यक्ष देश का प्रधानमंत्री होता था। 2014 में मोदी सरकार आयी, तो योजना आयोग भंग हो गया और उसकी जगह पर नीति आयोग हो गया, जिसका पदेन अध्यक्ष अब भी प्रधानमंत्री ही होता है। यूपीए-दो के योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया थे, जो देश में व्याप्त गरीबी का पैमाना शहर और गांव में एक दिन में एक परिवार के एक व्यक्ति के भोजन पर खर्च होने वाली रकम के आधार पर तय करवाते थे। इन पैमानाकारों में अहलूवालिया के अलावा तत्कालिन ज्ञान आयोग के अध्यक्ष और वर्तमान में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा, एक-दो दक्षिण भारतीय अर्थशास्त्री और समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आये नये-नवेले राजनेता बनाम अभिनेता राज बब्बर हुआ करते थे।
खैर, जबसे देश में श्रीमान नरेंद्र दामोदर भाई मोदी का शासन आया, तो कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल मटियामेट होने लगे। 23 मई, 2019 को 17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव की मतगणना का दिन था, जिसमें भाजपा समेत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को प्रचंड बहुमत मिला। इस प्रचंड बहुमत के लिए पीएम मोदी, उनकी आईटी सेल और खासकर भारत के निर्वाचन आयोग को बहुत-बहुत बधाई।
दोबारा प्रचंड बहुमत मिलने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जीत की बधाई अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को देने के लिए नयी दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में पहुंचे और उन्होंने जो भाषण दिया, उसमें से एक बात मेरे दिमाग में क्लिक कर गयी और वह यह कि उन्होंने कहा कि "अब इस देश में कोई जाति नहीं है। बस, दो ही जाति है। एक गरीब और दूसरी वह जो गरीबों के विकास में अपना सहयोग देती है।"
मित्रों, यही वह नया पैमाना है। सदियों से इस देश में ही नहीं पूरी दुनिया में आर्थिक मजबूती का मूल्यांकन "अमीरी और गरीबी" से किया जाता है या किया जाता रहा है। पीएम मोदी की इस अवधारणा ने गरीबों के पैमाने या हैसियत की लकीर खींच तो दी, लेकिन इसने अमीरों की हैवानियत, लूट, मुनाफाखोरी, क्रोनी कैपिटलिज्म, विजय माल्या, नीरव मोदी, ललित मोदी, मेहुल चौकसी, अडानी, अंबानी जैसे धनाढ्यों की करतूतों पर पर्दा डाल दिया। उनका यह बयान इस ओर साफ इशारा करता है कि मोदी ने अमीरों या यूं कहें कि बड़े कारपोरेट घरानों के बूते 2014 में जिस सत्ता को हासिल किये थे, 2024 तक उन्हीं देश के बड़े कारपोरेट घरानों के लिए काम करते रहेंगे और उनकी हर गलती को क्लीनचिट देते रहेंगे; तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। अनेकता में एकता और बहुजाति प्रथा वाले देश में यदि केवल दो ही जाति (एक गरीब और दूसरी गरीबों के उत्थान में सहयोग करने वाली) को परिभाषित किया जा रहा हो, तो यह चिंता का विषय जरूर है।