शनिवार, 7 जुलाई 2018

मीडिया भी 'अमीर और गरीब' हो गया (विरासत के झरोखे से...भाग-दौड़-10)

विश्वत सेन

हमारा देश भारत आम तौर पर विकासशील देश या फिर गरीबों वाला देश कहा जाता है। कहा जाना भी वाजिब है, क्योंकि यहां की अर्थव्यवस्था में चंद मुट्ठी भर करीब दो फीसदी के आसपास ऐसे लोग हैं, जिनके पास देश की आधी से अधिक संपत्ति है। बाकी के 98 फीसदी लोगों के पास 50 फीसदी। 
हमारे देश में जहां कहीं भी अव्यवस्था या गरीबों और मजलूमों के साथ अन्याय की घटना सामने आती थी, तो यहां की मीडिया शासन-प्रशासन की नाक में दम कर देता था, लेकिन अब शासन और प्रशासन के साथ-साथ मीडिया भी गरीबों और मजलूमों से विमुख हो गया है। चाहे वह सरकार में शामिल राजनेता हो या फिर गली-कूचे का छुटभैय्या नेता, लालफीताशाही में अहम किरदार निभाने वाला बड़ा वाला आईएएस ऑफिसर हो या फिर हजारीबाग के बंदोबस्त कार्यालय में काम करने वाला कोई कर्मचारी, सबको हर जगह हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही है और इन्हीं लोगों के साथ मीडिया के लोगों को भी हरियाली दिखायी दे रही है। खासकर, भोंपू मीडिया और बुद्धू बक्सा के लोगों को तो और भी अधिक हरियाली दिखाई दे रही है, क्योंकि उन्हें सत्ता की सरपरस्ती हासिल है। इसीलिए उन्हें अपने-अपने बक्सों पर राजनेताओं के पैनल के साथ राष्ट्रवाद, फ्रॉडवाद, रेप, गैंगरेप, धोखाधड़ी, बाबागिरी आदि मुद्दों पर बहस करने से फुर्सत ही नहीं होती। अब कोई यह नहीं दिखाता या फिर छापता है कि आज फलाने स्थान पर फलाने अधिकारी ने फलाने गरीब के साथ अनर्थ किया और मजलूम की रोटी को रिश्वत में बदलकर अपनी जेब में रख लिया।
आजकल मीडिया यह दिखाने और छापने में मशगूल है कि फलाना नेता पर फलानी जांच एजेंसी ने कार्रवाई की और फलाने को जेल भेज दिया। यह इसलिए भी उसके लिए जरूरी हो जाता है, क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे उसके आका की ओर से निर्देश दिया जाता है। फिजां में फूल खिला है, तो धरती लाल होगी ही। यह फूल पलाश का नहीं है कि उसके इर्द-गिर्द भौंरे या मधुमक्खियां टहलेंगे और उसके पराग से मधु या शहद बनाकर सूखी धरती पर मिठास फैलायेंगे। यह फूल कमल का कंटीला फूल है, जिसमें से पराग लेने के लिए भौंरे जाते हैं और उसका पराग भी चूसते हैं, मगर सही मायने में शहद बनाने वाली मधुमक्खियां दूर ही रहती हैं। शायद इसीलिए इस फूल की पंखुड़ियां कोमल न होकर तलवार के सरीखे धारदार हो गयी हैं और वहशियों के लिए हथियार बन गयी हैं। शायद यही कारण है कि देश का मीडिया भी तलवार सरीखे हो गयी इन पंखुड़ियों के भय से दीन-हीन गरीबों और मजलूमों से  विमुख होकर अमीरी-अमीरी का खेल खेल रहा है। अलबत्ता, कमजोर आदमी की सुंदर बहू की तरह कुछ दबे-कुचले टाइप के मीडिया के धड़े हैं, जो अपनी पत्रकारिता के धर्म का निर्वहन करते हुए गरीबों और मजलूमों का अब भी साथ दे रहे हैं। मगर, उनकी दशा भी दयनीय हो गयी है या दयनीय करने का प्रशासकीय प्रयास किया जा रहा है, ताकि वह शासकीय सकारात्मकता को परोसकर वाहवाही के पात्र बन सकें।
मगर, इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि मीडिया के अमीरी और गरीबी का यह खेल कितना दिन तक चलेगा? आज सामाजिक विकृतियों को जन्म देने वाले सत्तासीन है, तो इनकी पांचों उंगलियां घी में नजर आ रही हैं। कल यह तलवार की धार वाले फूल की पंखुड़ियां मुरझा जाएंगी, तब क्या होगा? क्या कभी किसी ने इस बारे में कुछ सोचा है?

अंतिम कड़ी