शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

बदल गये 'महात्मा' (विरासत के झरोखे से....(भाग-पांच)

विश्वत सेन

बचपन में जब हम एक क्लास उत्तीर्ण करके दूसरे वाले बड़े क्लास में जाते, तब एक अलग तरह का उत्साह, उल्लास और ललक रहती। अब एक ही तरह के पाठों को रोज बांचना नहीं पड़ेगा और न ही एक ही तरह के अभ्यास वाले प्रश्नों को हल करना पड़ेगा। आज के निजी स्कूलों के बच्चों की तरह चमचमाते जिल्द वाली किताब और कापियां आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं। बिहार पेपर मर्चेंट एसोसिएशन (बी पी एम ए) की कापियां राशन की सरकारी दुकान या कोटे से खरीदी जातीय और किताबें सरकार द्वारा अनुदानित होतीं और स्कूल से ही मिलती नहीं थीं। अच्छा, हमारे समय में हर दूसरे-तीसरे महीने सिलेबस भी नहीं बदलता, इसलिए स्कूल में किताब आने के पहले वार्षिक परीक्षा के समय से ही अपने वरिष्ठ छात्रों से पुरानी क़िताबें लेने का छोड़-छोड़ शुरू हो जाता। मजे की बात देखिए, पहली कक्षा से पांचवीं कक्षा तक की किताबें आसानी से मिल जातीं, मगर छठी से 10वीं तक में झोल था। पांचवीं तक हद से हद पांच किताबें होतीं और दो BPMA की अभ्यास पुस्तिका। इनमें पहाड़ा, गिनती और गणित के लिए सादे पन्ने वाली एक और हिंदी समेत अन्य विषयों के लिए दूसरी रूलदार। छठी में जाने के बाद एक अंग्रेजी की चार लाइन वाली काफी बढ़ जाती। अच्छा, पांचवीं तक हम अभ्यास पुस्तिका का इस्तेमाल कम और स्लेट-पेंसिल का इस्तेमाल ज्यादा करते, ताकि एक तो अक्सर गोल-गोल बने और दूसरा कोटे से मिलने वाली अभ्यास पुस्तिका के पन्ने कम खर्च हों। तीसरा यह कि फाउंटेन पेन, स्याही और नींबू के पैसों की भी बचत हो। हिंदी अंग्रेजी में लिखना लिखने के अलावा केवल हिसाब बनानें में ही उसका इस्तेमाल होता।
खैर, इसी तरह घिसते-घसीटते हम पहुंच गये नौंवीं कक्षा में। नौंवीं कक्षा मतलब एक सम्मानजनक क्लास। इसके बाद अब 10वीं और फिर सीधा मैट्रिक बोर्ड। मैट्रिक बोर्ड उत्तीर्ण करने का अर्थ यह कि आयरन गेट पार। इसके बाद शिक्षा के लिए खुला आसमान। मगर, नौंवीं कक्षा तक पहुंचने के पहले शर्त यह थी कि आपने पहले की कक्षाओं में जो पढ़ा है, उसका भली-भांति ज्ञान होना आवश्यक है। चाहे वह कोई भी विषय क्यों न हो। जिस विषय में कोई छात्र कमजोर दिखा नहीं कि उसे उसी क्लास में रोक दो, जिसमें वह पढ़ रहा है। अब एक ही क्लास में साल जाया करने के भर से प्राय: सभी बच्चे पूरे साल जी-तोड़ मेहनत करने में लगे रहते। नौंवीं कक्षा के पहले तीसरी-चौथी से ही हमें संस्कृत की सुक्तियां, कबीरदास के दोहे, सुरदास की कुंडलियां, रहीम के दोहे-सवैया, हरिवंश राय बच्चन की बाल कविताएं, सुमित्रानंदन पंत की कविताएं आदि कंठस्थ करा दी गयी थीं या हमने कर लिया था। इन्हीं संस्कृत की सुक्तियों में एक सुक्ति है या उसे श्लोक भी कह सकते हैं, जिसे आज अक्सर बात-बात में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आधे-अधूरे तरीके से अपनी राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक सांस्कृतिक सहूलियत के हिसाब से पेश किया जाता है।
श्लोक है-यह
"अयं निज परोवेति गणना लघुचेतसां।
उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुंबकम्।।"

इसका अर्थ यह हुआ कि
"अपना-पराया, तेरा मेरा आदि की गणना करने के बजाय उदार चरित वालों के लिए पूरी पृथ्वी ही कुटुंब के समान है।"

अर्थात
जो व्यक्ति उदार चरित के होते हैं, उनके लिए अपना परिवार, सगे-संबंधी और कुटुंब की बात कौन करे, पूरी पृथ्वी पर निवास करने वाले चराचर जीव-जंतु सभी परिवार या संबंधी हैं।"
इसीलिए हमारे शास्त्रों में पर्वतों, वृक्षों, जीव-जंतुओं को मनुष्यों की तरह व्यवहार करते हुए दर्शाया गया है। आज जिस तरीके से "वसुधैव कुटुंबकम्" के सिद्धांत को परोसा जा रहा है, उसे कहने की जरूरत नहीं है। किसी रटंतु तोते की तरह इसे वांचा तो जा रहा, मगर कर्म की धरातल से यह कोसों दूर है।
खैर, जब हम नौंवीं कक्षा में आए तो समझ और शिक्षा का दायरा बढ़ गया। यहां पर संस्कृत की सूक्तियों के बजाय यक्ष के प्रश्न और युधिष्ठिर के उत्तर आ गये। इन्हीं यक्ष-युधिष्ठिर की प्रश्नोत्तरी में यक्ष ने एक सवाल पूछा था-"क: महात्मनां?" अर्थात "महात्मा कौन है?"

धर्मराज युधिष्ठिर ने जवाब दिया है:
"विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा,
सदसि  वाक्पटुता  युधि  विक्रमः।
यशसि  चाभिरुचिर्व्यसनं  श्रुतौ,
प्रकृतिसिद्धमिदं   हि  महात्मनाम् ।।
अर्थात
जो व्यक्ति विपत्ति में धैर्य ,समृद्धि में क्षमाशीलता , सभा में वाक्पटुता , युद्ध में पराक्रम ,यशस्वी ,वेद शास्त्रों को जानता हो, वह इन छह गुण से परिपूर्ण व्यक्ति स्वाभाविक रूप से महात्मा या महापुरुष कहलाता है। 
आज आलम यह है कि हर गली में गेरूआ रूप धारण करके महात्मा जी पधारे जाते हैं। आसाराम और राम रहीम जैसे लोग भी महात्मा ही कहलाना चाहते हैं। यही नहीं बहुत सारे महात्मा तो टेलीविजन के समाचार चैनलों पर बैठकर डिबेट में अपनी महतमै झाड़ते रहते हैं। कोई गेरुआ में, तो कोई सच्चाई के प्रतीक लकदक सफेद कपड़ों में प्रवचन सुना रहे होते हैं। भारत को एक बार फिर विश्व गुरु होने का सपना देखते और दिखाते हैं। मौका पड़ने पर "मां की-धी की" करने से बाज नहीं आते।
खैर, नौंवीं के बाद 10वीं और बोर्ड के बाद इंटर में आया। यहां आने के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, बापू या फिर मोहनदास करमचंद गांधी से रूबरू हुआ। हालांकि, बापू को बचपन से ही जानते थे, मगर व्यापक पैमाने पर समझने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ। हालांकि, बीते दो दशकों से बापू को समझने के प्रयास में लगा हूं, मगर आज तक उन्हें समझ नहीं पाया। हो सकता है, यह मेरी मंदअक्ली हो। फिर हमने यह देखा कि बापू का राजनीतिक इस्तेमाल कैसे होता है। आज के चार साल पहले तक बापू को कांग्रेस की थाती कहा जाता था और आरोप चार साल पहले वाली उदारवादी हिंदूवादी विचारधारा के लोग लगाते थे। आज अचानक बापू का स्वरूप बदल गया। जैसे द्वापर और कलियुग वाले महात्माओं का स्वरूप बदला, उसी तरह महात्मा गांधी या बापू का स्वरूप बदल गया। अब हम जैसे लोग यह सोचने पर मजबूर हैं कि महात्मा का उपयोग सहूलियत के हिसाब वसुधैव कुटुंबकम् की तरह कहां-कहां किया जाएगा? मैं समझता हूं कि बापू को बापू के स्वरूप में और महात्मा को महात्मा के स्वरूप में ही रहने दिया जाए, तो बेहतर हो।
जारी...

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