गुरुवार, 22 सितंबर 2011

अगर यह आंदोलन है, तो आंदोलन...?

विश्वत सेन
प्रजातांत्रिक देश में प्रजा सर्वोपरि है। खासकर, भारत जैसे संसार के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश में उसका महत्व अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा अधिक है। जिस देश के संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत ही ‘जनता के लिए, जनता के द्वारा’ की गई हो, उसकी प्रजा का क्या कहना। वह चाहे तो तख्ता पलट सकती है ओर चाहे तो ताज पहना सकती है। सब उसकी इच्छा पर निर्भर है, मगर उसकी इच्छा जल्दी बलवती नहीं होती। वह सहनशील है। उसमें सहनशीलता की हद तक सहने की क्षमता है। वह तब तक नहीं बोलती, जब तक कि प्याला भर न जाए। यदि कोई ‘बलात्’ या ‘हठात्’ उसके प्याले को भरने की कोशिश करता है, तो वह प्याला ही छलक जाता है। प्याला भरने का दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं। अन्ना हजारे और उनकी टीम का भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन ‘बलात्’ या ‘हठात्’ की नीतियों पर ही आधृत है। पूरी टीम ने प्रजा के सब्र के प्याले को ‘बलात्’ और ‘हठात्’ भरने की कोशिश की है। यही वजह है कि इसका दुष्परिणाम सामने भी आने लगे हैं। सही मायने में देखा जाए, तो टीम अन्ना का भ्रस्ताचार के खिलाफ छेड़ा गया आंदोलन कायदों के अनुरूप खरा नहीं है। हालांकि कुछ लोगों ने अन्ना के इस आंदोलन को महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण आदि के आंदोलनों से जोड़कर देखना शुरू कर दिया। यह उनकी अपनी सोच हो सकती है, लेकिन कायदे के अनुसार, अन्ना की मुहिम आज भी आंदोलन नहीं है। यह निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए भीड़तंत्र को भड़काकर देश को अस्थिर करने का प्रयास हो सकता है। जो लोग इस मुहिम को आंदोलन का रूप देने में तुले हैं, उन्हें इस बात का भी पता होना चाहिए कि महात्मा गांधी के आंदोलन साधन, साध्य और सिद्धांत पर आधृत होते थे। आंदोलन का सूत्रपात करने के बाद यदि उन्हें लगता था कि उनके एकाध कार्यकर्ता भी उसके सिद्धांतों के अनुरूप खरा नहीं हैं, तो उसे वापस लेने का ऐलान भी कर देते थे। आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर अनिल गुप्ता कहते हैं कि ‘‘अन्ना के इस आंदोलन में शामिल ज्यादा लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े थे, लोकपाल के किसी इस या उस मसौदे के पक्ष में नहीं। ज्यादातर लोगों को इस बात का एहसास नहीं कि सर्फि एक संस्था में इतनी ज्यादा शक्ति केंद्रित करने से लोकतांत्रिक समाज के लिए एक बड़ा जोखिम खड़ा होगा। एक लोकतांत्रिक समाज की आत्मा नियंत्रण और संतुलन में बसती है। इसमें पहली चीज ज्यादा महत्वपूर्ण होती है।’’ नागरिक प्रतिरोध को महात्मा गांधी ने राजनीतिक सुधार के एक औजार के रूप में इस्तेमाल किया था, मगर अब इस नागरिक प्रतिरोध का बेजा इस्तेमाल होने लगा है। इसी नागरिक प्रतिरोध को टीम अन्ना ने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया है। प्रोफेसर गुप्ता कहते हैं कि ‘‘अपने निजी हितों को व्यावसायिक और सामाजिक हितों से अलग करने का सिद्धांत गांधीवादी आंदोलनों के मूल्यों से मेल नहीं खाता। आंदोलन के नेता अन्ना हजारे की हैसियत को हर किसी ने स्वीकार किया, लेकिन इसके संचालकों का चरित्र और मंशा संदेह के घेरे में है।’’ इतना ही नहीं, कभी टीम अन्ना के हिस्सा रह चुके और अनशन को तोड़वाने में अहम भूमिका निभाने वाले श्रीश्री 108 श्री रविशंकर जी महाराज भी आंदोलन की प्रक्रिया से इत्तफाक नहीं रखते। रविशंकर जी महाराज कहते हैं कि ‘‘नेतृत्व करने की क्षमता हर किसी में नहीं होती। नेतृत्वकर्ता खुद लोगों को उदाहरण दिखाते हुए उसके आधार पर जीता है और वह पूरी तरह से ईमानदार और निष्पक्ष होता है। जब आपमें अपनेपन की भावना होती है, तो आप यह जान लें कि आने हर किसी को अपना बना लिया है। किसी भी संस्था में अपनेपन की भावना सबसे महत्वपूर्ण होती है। इसीलिए किसी भी संस्था, गैर-सरकारी संस्था या सामाजिक संस्था को अपनेपन की भावना बनानी होती है।’’ प्रोफेसर गुप्ता और श्रीश्री 108 श्री रविशंकर जी महाराज की बातों से यह स्पष्ट है कि टीम अन्ना की संस्था में कहीं न कहीं इस देश की प्रजा के लिए अपनापन नहीं है। उनमें ‘बलात्’ या ‘हठात्’ किसी कार्य को अंजाम देने की भावना भरी है। इसीलिए उनमें बिखराव हो रहा है।
यह बात दीगर है कि वर्ष 2011 की शुरुआत में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल को देश की प्रजा और संसद से पारित कराने की नींव रख दी गई थी। इसके लिए मुट्ठीभर लोगों द्वारा आंदोलन की रूपरेखा तैयार की गई और आंदोलन को ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’’ के बैनर तले संचालित करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए ‘हठी’ अन्ना हजारे को आगे कर एक कोर कमेटी गठित की गई। इसकी स्थापना के समय कोर कमेटी के सदस्यों के रूप में अन्ना हजारे के अलावा किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, शांति भूषण, बाबा रामदेव, महमूद मदनी, आर्च विशप बिशेंट एम कोंसेसाओ, सईद रिजवी, न्या तेवतिया, बीआर लाला आदि को शामिल किया। बाद में, इससे स्वामी अग्निवेश और श्रीश्री 108 रविशंकर को भी जोड़ा गया। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले अप्रैल में अन्ना हजारे द्वारा अनशन किया गया। उसी समय 16 अगस्त से दोबारा अनशन करने की घोषणा की गई, हठी अन्ना और उनकी टीम की ‘बलात्’ या ‘हठात्’ की नीति से इंडिया अगेंस्ट करप्शन की संस्थापक टीम में विखंडन शुरू हो गया। इसी का नतीजा रहा कि बाबा रामदेव ने अलग राह पकड़ लिया और खुद के बूते नौ दिन का अनशन किया। टीम अन्ना द्वारा बंद कमरे में तैयार की गई भ्रष्टाचार के खिलाफ तैयार की गई रणनीति पूरी तरह लोगों में बनावटी जोश भरने वाली थी। आज से सालों पहले मुंशी प्रेमचंद ने देश में होने वाले इस प्रकार के बनावटी आंदोलनों को लेकर कहा था कि ‘‘बनावटी जोश में ताकत नहीं, इसका उन्हें अंदाजा नहीं है। असली ताकत वह है, जो अपने बदन में हो। खासकर, बड़े आंदोलनों में तो बनावटी ताकत का सहारा नहीं लेना चाहिए। प्रजा जब तक खुद न संभलेगी, तब तक उसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता।’’ इसमें कोई दो राय नहीं कि टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ी गई मुहिम में बनावटपन अधिक था। स्वार्थांध टीम अन्ना को आंदोलन के सिद्धांतों का खयाल ही नहीं रहा। टीम के सदस्य इस बात को भूल गए कि आंदोलन के सिद्धांतों को त्यागने के बाद उन्हें इसके दुष्प्रभावों का सामना भी करना पड़ेगा। उन्होंने कृत्रिम जनसमर्थन के माध्यम से अपनी निरंकुश जनवादिता को देश और सरकार पर थोपने की कोशिश की। इसी का नतीजा रहा कि अनशन के पहले बाबा रामदेव, फिर स्वामी अग्निवेश, जस्टिस संतोष हेगड़े और बाद में श्रीश्री 108 श्री रविशंकर जी महाराज अलग होते चले गए।
दरअसल, यह जानकर लोगों को हैरानी होगी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मुहिम की नींव वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद ही रख दी गई थी। चुनाव के समय भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने देश से बाहर जमा कालेधन को वापस लाने के मुद्दे को उठाकर बैतरणी पार करने की सोची थी। इसके लिए उन्होंने पार्टी स्तर पर पूरजोर कोशिश भी की, मगर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का चुनाव जीतने के कारण उनकी मुहिम दो साल पीछे चली गई। कॉमनवेल्थ गेम्स और टूजी स्पेक्ट्रम घोटालों को उजागर होते ही भाजपा की मुहिम बलवती हो गई और उसके नेता सरकार के खिलाफ गोलबंद होने लगे। सड़क से लेकर संसद तक किए गए हंगामे के बाद जब उनका काम सधता नजर नहीं आया, तो उन्होंने कालेधन को छोड़कर भ्रष्टाचार को अपना मुद्दा बनाया। उसे भूनाने की कोशिश की गई, लेकिन इसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिली। यह पूरा देश जानता है कि राजग सरकार के कार्यकाल में प्रखर वकील प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण केंद्रीय मंत्री थे। वहीं, टीम अन्ना के सदस्यों में शुमार किरण बेदी को दिल्ली पुलिस के संयुक्त आयुक्त के पद पर बने रहते हुए संयुक्त राष्ट्र में भारत की ओर से सुरक्षा सलाहकार बनाकर भेजा गया था। अरविंद केजरीवाल राजग के शासनकाल में ही ‘पालित-पोषित’ हुए। पार्टी ने अपनी मंशा को पूरा न होते देख परोक्ष रूप से पहले बाबा रामदेव, फिर इन तीनों से अपने ‘एहसान’ का बदला चुकाने की नीति अख्तियार की। इसी का नतीजा रहा कि वर्ष 2010 के आखिरी महीनों में किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण की ‘तिकड़ी’ बनी और उन्होंने आमीर खान के माध्यम से अन्ना हजारे को शामिल किया। वर्ष 2010 में ही इस तिकड़ी ने सरकार को घेरने के लिए जनलोकपाल का मसौदा तैयार कर लिया था। इसी का नतीजा रहा कि 2011 की शुरुआत में उन्होंने अपने ‘आकाओं’ के इशारे पर तीव्रता के साथ काम करना शुरू कर दिया। यह बात दीगर है कि टीम अन्ना की ‘बलात्’ या ‘हठात्’ की नीति में भाजपा का ‘हाथ भी जल’ गया, लेकिन अब भी उसे इस बात का संतोष है कि वह अपनी मुहिम में बहुत हद तक सफल है।

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