रविवार, 20 मई 2012

किसान

अभी हुआ है पूरब में सबेरा,
माथा पकड़ बैठ गया किसान।
मंडी में सड़ रहा है अनाज,
भूखों मर रहा है किसान।
हाड़ तोड़ करता वह खेती,
उपजता है खेतों से मोती।
सड़ते अनाज को देखकर,
फट जाती है उसकी धोती।
नीलाम होती है उसकी इज्जत,
घर बैठे बिकता है ईमान।
सडक़ों पर बिखरा है मोती,
जान दे रहा घर में किसान।।

रोते-बिलखते बच्चे उसके,
सिसकती-सुबकती है बीवी।
सटक-चटक जाती है हड्डी,
सुध नहीं लेते भैया और दीदी।
बूढ़े बाप के कन्धों पर,
पड़ जाता है उल्टा भार।
खोती संतति को देखकर,
माता रोती है जार-बेजार।
सूखी है धरती, भूखा पेट,
बंजर भूमि, ऊसरा है खेत।
टूटती-उखड़ती उन सांसों पर,
लोग रहे हैं कई रोटी सेंक।
चमक रहा है उनका कुर्ता,
दमक रही है उनकी शान।
राजनीति की इस बिसात पर,
जान दे रहा खांटी किसान।।

सड़-गलकर बनती थी खाद,
रसायन बन गया ऊर्वरक आज।
खेती पर छाया है बाजारवाद,
अनाज खो रहा है अपना स्वाद।
उत्तम थी खेती, मध्यम बान,
नीच थी चाकरी, भीख निदान।
अब बन गई है चाकरी उत्तम,
सिर पर चढ़ा है मध्यम बान।
नीच हो गई है उत्तम खेती,
जान दे रहा है वही किसान।।

महँगा है बीज, ब्लैक में खाद,
किसी ने कर लिया एकाधिकार प्राप्त।
अब नहीं होता वस्तु से विनिमय,
बढ़ गया है नकदी का मान इस समय।
रुपया भी हो गया है कमजोर,
 निर्यात से अधिक आयात पर जोर।
अर्थव्यवस्था ने मारी है लंगड़ी,
किसानों की टूट गई है टंगरी।
टूटी टंगरी में लगा लगान,
घबराकर जान दे रहा किसान।।

किसानों की नहीं किस्मत फूटी,
राजनीति की सिंक रही है रोटी।
वोट बैंक पर मिलता है पैकेज,
चुनावी बिसात पर बाकी सब डैमेज।
सरकारें सुना रही हैं लोरी,
अनाजों के लिए नहीं है बोरी।
बोरी नहीं है सडऩे का कारण,
समुचित नहीं हो रहा भंडारण।
उचित मूल्य का नहीं है समर्थन,
चीनी कड़वी, फूटे हैं बर्तन।
दरबारियों ने छेड़ा मधुर तान,
जान दे रहा परेशान किसान।।

सुनकर दुनिया है भौंचक,
अधिकारी कर रहे निरीक्षण औचक।
पटवारी वसूली में है मशगूल,
सपोर्ट में हो गई है बत्ती गुल।
खाली खड़ा है खेत में खंभा,
बहरा दरबार, अधिकारी अंधा।
सुविधाओं से खेतीहर है वंचित,
बाबुओं का घर धन से है सिंचित।
बुंदेलखंड में पड़ी है पपड़ी,
विदर्भ में उधड़ रही है चमड़ी।
सिर पर बैठा साहूकार है,
भामाशाहों का चलता व्यापार है।
महाजन बना है चतुर सुजान,
जान दे रहा बेचारा किसान।।

दुनियाभर का है पेट पालता,
नहीं कभी खेती को टालता।
अतिवृष्टि हो या पड़े फिर सूखा,
रोटी मिले या रहे फिर भूखा।
बच्चे-बूढ़े सभी रटते हैं,
दिनरात मिट्टी में खटते हैं।
फसल में लग जाता जब कीड़ा,
नहीं देखता कोई उनकी पीड़ा।
पड़ जाता जब खेतों में पाला,
बैंको में भी लग जाता ताला।
घात लगाए बैठा है लाला,
वही छीनता मुंह का निवाला।
तोंद बड़ा तो बड़ा ब्याज है,
हरे जख्म पर रगड़ता प्याज है।
ब्याज वसूलना उसकी है शान,
बड़े ब्याज पर मिट रहा किसान।।

बंजर पर ही बनती है लीक,
नहीं मांगेगा अब वह भीख।
दरबारियों ने ही दिया है सीख,
म्यान से खंजर लिया है खींच।
अब खेतीहर जाग चुका है,
शहर छोडक़र भाग चुका है।
खूब चलेगी तरकश से तीर,
औंधेमुंह गिरेंगे बातों के वीर।
खेती ही है भारत की शान,
जान न देगा अब कोई किसान।।
-विश्वत सेन
मई 21, 2012

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