शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

स्वार्थ में दुनिया पड़ी है कब से अंधी



विश्वत सेन

वह बेचारा, वक्त का हारा
जीवन पथ पर यूं अकेला
फिर रहा था मारा-मारा
जिंदगी जिंदादिली का नाम है
 काहिलों का फिर यहां क्या काम है
है अगर जिंदगी का यही फलसफा
तो बेचारे के लिए फिर ये जहां
साल-दर-साल तक क्यों चुप रहा?
कौन अपना है पराया जानकर
बेमुरादों को सहारा मानकर
बेधड़क पथ पर यूं बढ़ता रहा
बैल को भी बाप कह चलता रहा
दोस्त और दुश्मनों की है परख
पर दोस्त ही है दुश्मनी निभा रहा
नहीं हो रही जिंदगी की जुगलबंदी
स्वार्थ में दुनिया पड़ी है कब से अंधी
भाई को भाई रास नहीं है आ रहा
खून का भी रंग है बदलता जा रहा
होंगे बिरले जिंदगी में जिनकी कभी
हो रही होगी उनके जीवन में जुगलबंदी
पर यहां तो रात का राजा पड़ा है
राह में कुछ झपटने को आतुर खड़ा है
अहर्निश में एक दाना मुंह में पड़ा है
और झपट लेने को कुत्ता भी अड़ा है
पास में ही एक बच्चा सो रहा
क्षुधा तृप्ति के लिए था रो रहा
पर हाय! न थी उसके पास रोटी
और न काटकर देने के लिए ही बोटी
सब दधीचि बन न जाते हैं यहां
दूसरों को नोचकर खाते हैं यहां
वह अकेला ही बेचारा है नहीं इस देश में
अनगिनत बेचारे हैं न जाने के किस वेष में
जिनकी जिंदगी की हो न पाती जुगलबंदी
क्योंकि स्वार्थ में दुनिया पड़ी है कब से अंधी
स्वार्थ में दुनिया पड़ी है कब से अंधी

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