बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

सत्ता सुख का मोहपाश


भाजपा के रथी लाल कृष्ण आडवाणी सत्ता का सुख पाने के लिए रथ यात्रा निकालते हैं, लेकिन दुरभाग्यवश वह हर बार गच्चा खा जाते हैं। रथी का मनोरथ पूरा नहीं हो रहा है। उम्र के ढलान पर भी उनके मन से सत्ता का लोभ अंकुरित हो रहा है। इस उम्र में उन्हें भजन-कीर्तन करना चाहिए था, मगर वह अब भी सत्ता सुख के लो•ा से वंचित नहीं हो पाए हैं। जनता की गाढ़ी कमाई पर रथ यात्रा निकालते हैं। चाहे वह पार्टी का पैसा हो या सरकार का, आखिर है तो इस देश की जनता का ही। भ्रष्टचार की आवाज बुलंद करने वाले भाजपाइयों को क्या यह दिखाई नहीं देता? क्या यह दिखाई नहीं देता कि मुंह में सत्ता का खून लगाए बूढ़ा शेर दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे बढ़ने नहीं देना चाहता? 

विश्वत सेन 
भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उप-प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने सत्ता के लोभ में जब-जब रथ यात्राएं निकालीं, देश को नुकसान हुआ। पार्टी और पब्लिक का पैसा पानी की तरह बहाया गया, मगर हर यात्रा की समाप्ति के बाद उन्हें या उनकी पार्टी को कुछ हासिल नहीं हुआ। अलबत्ता, देश को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंक दिया गया। जिस सत्ता सुख की पूर्ति के लिए उन्होंने यात्राएं शुरू की, मगर उन्हें यह सुख नहीं मिल पाया। इसके बावजूद वह अभी तक सत्ता सुख के लोभ से वंचित नहीं हो पाए हैं। चाहे वह राम रथ यात्रा हो या फिर भारत उदय यात्रा। हर यात्रा में नुकसान ही उठाना पड़ा है। हर बार गच्चा खाया, लोगों को मुगालते में रखा और अदूरदर्शी फैसले लोगों पर थोपा, फिर भी कुछ हासिल नहीं हुआ। राम रथ यात्रा के दौरान दंगे हुए, जिसमें हजारों बेगुनाहों का खून बहा और सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया गया। इससे अभी तक आम जनता ही नहीं, न्यायपालिका और कार्यपालिका भी नहीं उबर पाई है। हर बार की यात्रा के दौरान सुरक्षा के लिए सरकारी तंत्र को मुश्तैद होना पड़ता है। उनकी सुरक्षा का विशेष प्रबंध करना पड़ता है। सांप्रदायिक दंगा को नियंत्रित करने की व्यवस्था करनी पड़ती है और इन पर राज्य सरकारों को बहाने पड़ते हैं करोड़ों रुपये। आडवाणी की हर यात्रा का एकमात्र उद्देश्य सत्ता प्राप्त करने का होता है, मगर इस रथी का मनोरथ हर बार अधूरा ही रह जाता है।
यह बात दीगर है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी की उम्र भले ही ढलान पर हो, लेकिन इस 84 साल के उम्र में भी वे खुद को सत्ता के लोभ से मुक्त नहीं कर पाए हैं। जिस उम्र में आदमी भजन-कीर्तन करता है, उस उम्र में भी उनके मन में सत्ता का लोभ संवरित है। आखिर क्यों? क्यों नहीं, वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर दूसरी पंक्ति के नेताओं को पनपने दे रहे? हर बार वे सरकार और देश को अस्थिर कर सत्ता के गलियारे में पहुंचने का प्रयास करते हैं और हर बार उन्हें असफलता ही हाथ लगती है। सबसे बड़ा गच्चा तो 2004 में खाए, जब उन्होंने ‘इंडिया शाइनिंग’ ‘फील गुड’ के समय अपनी रथ यात्रा निकाली। किसी को भी जानकर हैरत होता है कि 2004 के मार्च से शुरू ‘भारत उदय यात्रा’ के पहले केंद्र की राजग सरकार ने ‘इंडिया शाइनिंग’ और ‘फील गुड इंडिया’ के प्रचार पर सौ अरब से भी अधिक राशि फूंक दिया। इसके बावजूद न तो सरकार को और न ही पार्टी को कुछ हासिल हुआ। उल्टे, 2004 के आम चुनाव में पार्टी ही नहीं, राजग को करारी हार का सामना करना पड़े। इसके बाद भी बूढ़े शेर के मुंह में लगे खून का स्वादर नहीं गया और इसके बाद भी कई यात्राएं की गर्इं। देश के लोगों को लोभ की बेदी पर कुर्बान किया गया और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। अब देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को लक्ष्य बनाकर यह यात्रा शुरू की जा रही है।
इन सबके बीच सवाल यह उठता है कि भ्रष्टाचार और कालाधन के नाम पर सरकार की नाक में दम करने वाली भाजपा के अन्य सदस्य आडवाणी और उनके खेमे के लोग उनसे इसका हिसाब क्यों नहीं लेते? क्या रथ यात्राओं में खर्च की गई धनराशि जनता की गाढ़ी कमाई का हिस्सा नहीं है? क्या यह भ्रष्टाचार का नमूना नहीं है कि एक नेता निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ भी करने को आमादा है? हर बार संकीर्ण मानसिकता को प्रचारित कर देश को सांप्रदायिक दंगे की आग में झोंका जाता है। उनसे क्यों नहीं पूछा जाता कि इस प्रजातांत्रिक देश में रथ यात्रा करने का औचित्य क्या है? क्या रथ उनकी सामंती सोच का परिचायक नहीं है। अमूमन रथ का इस्तेमाल राजा-महाराजा किया करते थे। गरीबों के पास बैलगाड़ी भी नसीब नहीं थी। उनकी सामंती सोच का ही नतीजा है कि आज की युवा पीढ़ी भावनात्मक रूप से उनकी मुहिम से जुड़ नहीं पा रही है। बावजूद इसके वह अपने मुट्ठीभर लोगों के सहारे बार-बार रथ यात्राएं निकाल रहे हैं। आडवाणी रथ यात्रा करके आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या उम्र के इस पड़ाव में वे खुद को सत्ता के लालच से खुद को मुक्त कर पाएं हैं?

राम रथ यात्रा
25 सितंबर 1990 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्मदिन पर नवरात्र के समय सोमनाथ शुरू की गई थी भाजपा व लाल कृष्ण आडवाणी की पहली राजनीतिक यात्रा। दावा था छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों को उनका असली चेहरा दिखाने का, लेकिन सांप्रदायिकता के भंवरजाल में खुद फंस गए। मुद्दा राम जन्मभूमि को मुक्ति दिलाने का था। राष्ट्रीय एकता को अल्पसंख्यकों के हाथ की कठपुतली बताया गया। इसमें सैकड़ों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा, राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान उठाना पड़ा और रथ यात्रा में लाखों रुपये पानी की तरह बहाया गया। इस यात्रा से उपजे विवाद के निपटारे के लिए सरकार के आयोग का गठन करना पड़ा, जिसके लिए आत करोड़ों रुपये खर्च किए गए। रथ यात्रा के समापन पर हुई हिंसा से जुड़े मुकदमों के निपटारे और सुनवाई के लिए आयोध्या की निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट की कीमती समय जाया हुआ और इस मुकदमे को लड़ने में लंबे समय तक लाखों रुपये को पानी की तरह बहाया गया। इन सबके बावजूद अब तक न तो राम मंदिर का निर्माण हुआ और न ही अल्पसंख्यक सांप्रदायिक तत्वों से राम जन्मभूमि को मुक्ति। अलबत्ता, सत्ता के गलियारे तक पहुंचने के लिए इस रथ यात्रा से आडवाणी की लोकप्रियता एक कट्टर हिंदूवादी नेता के रूप में जरूर मिली। हालांकि इस यात्रा को लाल कृष्ण आडवाणी अलग रूप में देखते हैं और इसे अल्पसंख्यकों व उनके रहनुमाओं पर किया गया प्रहार मानते हैं। वह कहते हैं

जनादेश यात्रा
राम रथ यात्रा की सांप्रदायिकता से उत्साहित आडवाणी ने सत्ता के गलियारे में पहुंचने के लिए 11 सितंबर 1993 को एक बार फिर सरकार के विरोध में जनमत जुटाने के लिए जनादेश यात्रा की शुरुआत की। यह यात्रा स्वामी विवेकानंद के जन्म दिन पर मैसूर से शुरू की गई। इस बार उन्होंने केंद्र की पीवी नरसिम्हाराव सरकार को अपना निशाना बनाया। इसमें उन्होंने संविधान 80वां संशोधन विधेयक तथा लोक प्रतिनिधित्व (संशोधन) विधेयक पर सरकार को घेरने की कोशिश की। उन्होंने यात्रा के माध्यम से देश में राजनीतिक उबाल लाने का अथक प्रयास किया। इसमें पूर्व उप-राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत ने जम्मू से यात्रा की, पोरबंदर से मुरली मनोहर जोशी और कलकत्ता से कल्याण सिंह ने। इन चारों स्थान से यात्रा शुरू कर सरकार के विरोध में जनमत जुटाने का प्रयास किया गया, मगर हुआ ठीक इसका उल्टा। यात्रा से केंद्र सरकार के खिलाफ जनमत बढ़ने के बजाए वह पहले से ज्यादा मजबूत हो गई।

स्वर्ण जयंती रथ यात्रा
देश में सशक्त राष्ट्रवाद को पुनर्स्थापित न्यायिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में व्यापक सुधार के लिए 15 अगस्त से पहले स्वर्ण जयंती रथ यात्रा की शुरुआत की गई। इसमें सोच, अभिव्यक्ति, आस्था और पूजा की स्वतंत्रा को लक्ष्य बनाया गया। बेवजह बनाए गए लक्ष्य में भी भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की मंशा पूरी न हो सकी। इस बार भी उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर देश को भड़काकर सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की थी। मंशा थी, देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंककर राजनीतिक रोटी सेंकने की, जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिल सकी।

भारत उदय यात्रा
1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार के कार्यकाल के दौरान मार्च-अप्रैल 2004 का भारत उदय यात्रा शुरू की गई। इस यात्रा से पहले ही राजग सरकार ने वर्ष 2003 में ‘इंडिया शाइनिंग’ और ‘फील गुड’ का नारा बुलंद किया। आडवाणी की इस यात्रा का उद्देश्य देश के लोगों को सरकार की योजनाओं को देशवासियों तक पहुंचाना और सरकार के पक्ष में जनमत जुटाना था। इसे शुरू करने के पहले भी जुलाई 2003 में भाजपा नेता आडवाणी ने यात्रा करने की कोशिश की थी, लेकिन अकारण उसे टाल दिया गया। इस यात्रा के शुरू होने के बाद सरकार और पार्टी मुगालते में समय से पहले 15वीं लोकसभा का चुनाव करा दिया। इसी फील गुड और इंडिया शाइनिंग के नारों और आडवाणीजी की यात्रा का कुपरिणाम रहा कि राजग चुनाव में हार गया। बता दें कि आडवाणी ने पूरे पांच महीने तक अपनी यात्रा जारी रखा। इसमें भी करीब सौ अरब रुपये बर्बाद किए गए, मगर नतीजा सिफर ही रहा।

भारत सुरक्षा यात्रा
15वीं लोकसभा चुनाव में हार का मुंह देखने के बाद भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने केंद्र सरकार को घेरने के लिए सुरक्षा मामलों को लेकर 6 अप्रैल से 10 मई 2006 भारत सुरक्षा यात्रा निकाली। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा करना, जेहादी आतंकवाद और वामपंथी उग्रवाद और अल्पसंख्यक विघटनकारी राजनीति से लोगों को सुरक्षा प्रदान कराना था, मगर हुआ ठीक इसका उल्टा। देश में 2006 के बाद से आतंकी गतिविधियां बढ़ीं और कई बड़े बम धमाके हो गए। आज तक देश बम धमाकों की गूंज से कांप रहा है और हजारों बेगुनाह मौत के गाल में समा गए। इसमें भी पार्टी और आम आदमी का पैसा जमकर पानी की तरह बहाया गया।
कुल मिलाकर भाजपा के इस महारथी की रथ यात्रा का आज तक कोई नतीजा नहीं निकला। यह बात दीगर है कि इनकी यात्राओं ने देश में सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाया और हिंसा फैलाने में अहम भूमिका निभाई।

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