शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

सत्य का जय होना अभी बाकी है!


विश्वत सेन
पंद्रह अगस्त यानी आज़ादी का दिन। सबकी, देश की आज़ादी का दिन। मेरी भी आजादी का दिन। मैं धुमंतू और खोजन्तू। घूमकर खोजने की आदत। कुरेदकर कहने की आदत। आदत से लाचार।  दिनभर खोजा, मगर कुछ ख़ास नहीं मिला, जिस पर कुछ कहा जा सके। दर-ब-दर डोलने के बाद जब कुछ ख़ास नहीं मिला, तो चिड़िया के घोसले की तरह हम भी रात को अपने दड़वे में आ गए। मन खिन्न था। कोई बोले तो काटने जैसा लगे। अनमने ढंग से निवाला निगला और चादर तानकर दूर से दिखने वाली वस्तु को देखने लगा। चैनल पर चैनल बदला, पर मन को सुकून देनेवाला कोई चैनल नहीं दिखा। अचानक एक चैनल पर आमिर खान 'सत्यमेव जयते' के नए एपिसोड के साथ हाजिर थे। मुझे लगा कि कुछ मिला। सोचा-" इस एपिसोड में कुछ अलग हटकर देखने को मिलेगा।" देखा तो लगा कि नहीं, यह तो पीठ थपथपाई हो रही है और करीब डेढ़ महीने तक चलने वाले कार्यक्रम की सफलता बताई जा रही है। चूँकि मुझे भी उनका यह प्रोग्राम अच्छा लगा, इसलिए मैं उसकी आलोचना नहीं कर सकता। आमिर साहब को देखा, सुना, मन में बैठाया और सो गया।
आज़ादी के दूसरे दिन यानी सोलह अगस्त। घर से "खूंटे से खुली गाय" की तरह निकला। दफ्तर गया। काम किया और साढ़े आठ घंटे के निर्धारित समय पूरा करने के बाद फिर खूंटे पे बंधने के लिए घर की ओर रवाना हो गया। संयोग से रात को हमें हामारे गंतव्य तक पहुंचाने वाली बस छोट गयी। दूसरी बस आयी। वह हमें मिंटो रोड पहुंचाने के बजाय नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के गेट नंबर एक पर उतार दी। खैर, अब वहाँ पहुंचा तो खूंटे तक पहुँचाने का इंतजाम भी करना था। अचानक मेरे दिमाग में बात आयी कि जिस डीटीसी बस को हम कश्मीरी गेट से पकड़कर खूंटे तक पहुंचाते हैं, वह बस तो यहीं से बन-ठनकर चलती है। क्यों न उसी को पकड़ लिया जाए। मैंने इसपे अमल कर दिया और उसके आने का इन्तजार करने लगा। बस आयी और कुछ देर बाद उसमे लोग सवार होने लगे। सब के सब आँखवाले। कोई चश्मा लगाए हुए, तो कोई बिना चश्मे का, लेकिन आँखे सबके पास थीं। उनमे से सिर्फ एक ही ऐसा था जो नेत्रहीन और नजरविहीन था। उन्हें कैम्प यानी किग्सवे कैम्प जाना था। उन्होंने बस में चढ़ते ही कंडक्टर समेत तमाम सवारियों को पहले ही आगाह करा दिया था कि उन्हें कैम्प जाना है। आ जाए तो उतार देंगे। बनी-ठनी हुई बस चल दी पटाखा फोड़ते हुए (कच्चे तेल की वजह से इंजन से निकालने वाली आवाज) अपने गंतव्य की ओर चल दी। कश्मीरी गेट आया, सिविल लाइंस, विश्वविद्यालय और फिर कैम्प भी आ गया। सारे आँखवाले बैठे रहे। कंडक्टर और ड्राइवर भी, मगर किसी ने उस नेत्रहीन को यह नहीं कहा कि उनका गंतव्य आ गया है। बस जब मॉडल टाउन पहुँची तो वे बेचारे अचानक खुद खड़े होकर लोंगों से पूछ रहे थे-" कैम्प आ गया क्या?" लोगों ने कहा-" आ नहीं गया, बल्कि निकल भी गया।" उनके मुंह से एक ही आवाज निकली-"अब क्या होगा?"
तब तक आँखवाले लोगों का तमाशा देखकर मैं भी उकता गया था। मैंने उनके पीठ पर हाथ रखी और बोला-" आप कैम्प ही पहुंचेंगे, मगर थोड़ी देर में।" उन्हें मानों तिनके का सहारा मिल गया। मैं आजादपुर स्टैंड पर उतारा तो उन्हें साथ उतार लिया। तब तक रात के दो बज चुके थे। उतरते ही उन्होंने कहा- "रोड पार करके मुझे छोड़ दो।" मैंने कहा-अंदाजा है, रात कितनी हो गयी है।" उन्होंने कहा- "नहीं।" मैंने कहा- "दो बज गए हैं।" वे चौंके और कहा-"हें..." मैंने कहा-इतनी रात गए मैं आपको सड़क पर अकेले नहीं छोड़ सकता। या तो आप मेरे घर चले या फिर आप ऑटो से अपने घर जाएँ।" उन्होंने दूसरा ऑफर स्वीकार कर लिया। मैंने सोचा इन्हें तो कोई भी ऑटो वाला उनके घर तक रियायती किराए में पहुंचा देगा, क्योंकि उसके पास चार आँखे और तीन पहिये हैं। यही सोचकर मैंने दो-तीन ऑटो वालों को हाथ दिया। औटो वाले रुके। मैंने उनसे पूछा, तो उन्होंने जो जवाब दिया उसे सुनकर अब लोग चौकेंगे। आजादपुर से कैम्प की दूरी मात्र दो किलोमीटर, मगर उसका किराया "तीन सौ रुपये।" कोई दो सौ, तो कोई डेढ़ सौ। मैं भी हैरान और वो भी। मैंने भी हार नहीं मानी। चौथे ऑटोवाले को हाथ दिया। उसने रोका। मैंने वही बात दोहराई- "इन्हें कैम्प तक लेते जाओ। जो पैसे बने वह मुझसे ले लो।" उसने भी पहले के औटोवालों की तरह सुनाया। अबकी बार मैंने सुनाने की ठान रखी थी। मैंने कहा-" तुम लोगों में मानवता नाम की कोई चीज नहीं है। एक अंधा आदमी रात में भटक रहा है और तुमलोग पैसे के लिए मर रहे हो। शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को।" मैंने भी खूब खरी खोटी सुनाई। पता नहीं, मेरी बात सुनकर या उनकी हालत देखकर ऑटोवाले का मन पसीजा। जहां दूसरे ऑटोवाले तीन सौ रुपये मांग रहे थे, वह औटोवाला मात्र दस रुपये में कैम्प तक छोड़ने के लिए तैयार हो गया। वो बेचारे बैठे और चल पड़े अपने गंतव्य की ओर चल पड़े।
वह तो अपने घर को चले गए, मगर छोड़ गए मेरे दिमाग में कई सवाल। अभी एक दिन भी नहीं हुआ था की आमिर साहब "सत्यमेव जयते" की उपलब्धियों उअर उसके प्रशंसकों की संख्या बता रहे थे। लोगों की चिट्ठियाँ पढ़कर सुना रहे थे। प्रोग्राम देखकर इन्टरनेट पर आह भरने वालों की कमी नहीं थी। अचानक रातोंरात लोगो का दिल कैसे बदल गया। देश की राजधानी दिल्ली में जब यह हाल है, तो दूसरे शहरों में क्या स्थिति होगी इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है? हकीकत क्या है? वह जो आमिर खान बता रहे थे या फिर वह जो मैंने अपनी आँखों से देखी? क्या सही मायने में लोगों का दिल परिवर्तित हुआ या यह परिवर्तन या समर्थन सिर्फ इंटरनेटिया था। क्या सिर्फ इन्टरनेट पर समर्थन करने भर से ही लोगों के आचार-विचार और आहार-व्यवहार बदल जाते हैं? सत्य की जीत हो जाती है या फिर लोगों का दिल बदल जाता है? लोगों के दिलों पर तो लगी, मगर क्षणिक। इसके तात्कालिक परिणाम का महिमामंडन और दूरगामी परिणाम को दरकिनार कर दिया गया। यह भी अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलनों की तरह एक भ्रम तो नहीं है? समाजशास्त्रियों ने डंके की चोट पर कहा है कि किसी देश, समाज और क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक बदलाव लाने के लिए क्षण भर में कोई क्रांति नहीं हो जाती। प्रेमचंद ने भी कहा है- " जब तक विष गले से उतरकर पेट तक नहीं पहुँच जाता, तब तक शरीर पर उसका कोई ख़ास असर नहीं पड़ता।" शायद लोगों ने विष को गले से नीचे उतरकर पेट तक पहुँचने का इन्तजार नहीं किया या फिर उसे जान-बूझकर पहुँचने नहीं दिया गया। इसीलिये देश और समाज में छिपा सत्य उभरकर सामने नहीं आया या फिर उसे आने ही नहीं दिया गया।यह जमीनी हकीकत है कि लोगों की कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है। एक प्रोग्राम देखकर लोग चंद मिनट के लिए आह तो भर सकते हैं, लेकिन जब उसे जीवन की दिनचर्या में उतारने की बात आती है तो लोगों के पसीने छूटने लगते हैं। कहना जितना आसान है, उससे कहीं ज्यादा कठिन उसे जीवन में उतारना है। जिस दिन लोग अपने जीवन में देखी, सुनी और कही गई बातों पर अमल करना शुरू कर देंगे उसी दिन "सत्य का जय होगा।"

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