गुरुवार, 16 अगस्त 2012

जनतंत्र का वीर बनो


नदी की धारा बनकर बहो, वन-उपवन को तुम सींचो।
कूल-कुलों से मिलकर रहो, जल-अवजल सबको खींचो।।

बन जाओ घनघोर घटा, बूँद-बूँद बन उनपर बरसो।
जिनका कभी पेट पूरा न भरा, अतृप्त नयन से तरसें बरसों।।

बन जाओ हहराती गंगा, निर्मल जल से सजल कर जाओ।
बन जाओ एक बाप का कंधा, अपने बल से सबल कर जाओ।।

पपड़ी पड़ी सूखी धरती पर, और सूखा है उनका मन।
छाती फटती खेत देखकर, और फटता है नंगा तन।।

पुराना चूल्हा टूट गया है, फूट गये घर के बर्तन।
बचा-खुचा सब लूट गया है, छूट गये सब अपने जन।।

सिंहासन पर सिंह जो बैठा, मनुज रक्त लेता है खींच।
कतरा-कतरा पीकर लहू का, ऑंखों को लेता है मीच।।

रौद्ररूप धरकर दौड़ो, और पड़ो फिर उनके पीछे।
सुगति-दुर्गति कर उनको छोड़ो, जो बैठे हैं ऑंखें मीचे।।

निजधर्म समझकर पी जाते सब, जो पीने वाले हैं।
घुट-घुटकर भी जी जाते सब, जो जीने वाले हैं।।

मगर गिरतीं जब दो बूँदें, टूटे-सूखे कुछ पत्तों पर।
सहसा टिक जाती हैं नजरें, मधुमक्खियों के छत्तों पर।।

मधुपर्क उन्हें नहीं भाता, जो रुधिरपान के आदी हैं।
जनसंघर्ष दिखाई न देता, वो बंद कमरों के फौलादी हैं।।

ज्वाला बनकर फूट पड़ो तुम, छद्मरूप को कर दो खाक।
जनतंत्र का वीर बनो तुम, धीर रणधीर सब देंगे साथ।।

लोगों का भाग्य बनाओ, यह सौभाग्य तुम्हारा है।
कलुषित जन को दूर भगाओ, लोकजन ने पुकारा है।।
 
                                             -विश्वत सेन
                                        अगस्त 15, 2012

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