शनिवार, 18 अगस्त 2012

पांच नंबर का जाम


विश्वत सेन
शुक्रवार 17-18 अगस्त, 2012 की रात साढ़े बारह बजे। दिल्ली के दक्षिणी और दक्षिण-पूर्व इलाके की रिंग रोड स्थित महारानी बाग और सराय काले खां बस अड्डे के फ्लाईओवर के पहले का स्थान। दोनों जगहों पर करीब दो फर्लाग पहले से भारी और हल्के वाहनों की लंबी कतार और इन कतारों के बीच कलाबाजी दिखाते ऑटो और मोटरसाइकिल वाले। आगे निकलने की होड़, गंतव्य तक पहुंचने की दौड़। कुछ वाहन स्पीड गवर्नर के साथ, तो अधिकतर बिना स्पीड गवर्नर के ही रोड पर फर्राटा भरते हुए जामस्थल पर आकर थम जाते हैं और कुछ पल के लिए थम जाती हैं सांसें। इस आशंका से कि पता नहीं आगे क्या है? धीरे-धीरे कछुए की चाल की तरह रेंगते हुए आगे बढ़ती गाड़ियां और फर्लाग-दो फर्लाग पर वाहनों की जांच करते पांच नंबर (दिल्ली ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट का इंफोर्समेंट विंग के जांच दल को स्थानीय स्तर पर पांच नंबर कहा जाता है।) का बैरिकेट्स और उसके सामने वाहनों की जांच करते अधिकारी।
जांच सभी वाहनों की। तिपहिया, दोपहिया, हल्के और भारी वाहनों की जांच। जांच दस्तावेजों की कम और चालकों की ज्यादा। दस्तावेजों पर सरसरी निगाह, मगर जेबों पर पैनी नजर। किसी जेब मोटी और किसकी खाली। दस्तावेजों में कमी हो और जेब मोटी हो, तो फिर कोई कमी नहीं है। यदि जेब खाली है, तो ड्राइविंग लाइसेंस, फिटनेस के कागज, आरसी, प्रदूषण जांच प्रमाण पत्र, बैच नंबर आदि सही होने पर भी कमी निकल ही आती है और फिर सरकारी खाते में कट ही जाता है सफेद-काला चालान। मौके पर चालान कट गया, तो सोने पे सुहागा और यदि जेब में चालान के भी पैसे नहीं हैं, तो दस्तावेज जब्त और कोर्ट से छुड़वाने का फरमान जारी। जाइए, वहीं निपटिएगा। यही सिलसिला चलता है रोज रात को इन दोनों स्थानोंे पर।
करीब पांच घंटे तक के सफर वाली दिल्ली की रिंग रोड पर रात में कहीं भी पांच नंबर का जाम नहीं लगता। यदि कहीं लगता है, तो सिर्फ दो स्थानों पर। पहले तो मुङो इस जाम के राज का पता ही नहीं चलता था। सोचता-‘हो सकता है दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने और तिपहिया चालकों की मनमानी पर नकेल कसने के लिए यह जांच की जा रही हो।ज् मन में खुशी होती और मैं मन ही मन सरकार का धन्यवाद करता। यहां तक कि पांच नंबर के इस जाम को देखकर भला-बुरा कहने वाले को भी मैं तसल्ली से सुरक्षा मानकों और रात में सफर करने वालों की बेहतरी के बारे में समझाता। मगर शुक्रवार की रात को पांच नंबर वालों की एक हरकत देख मेरा माथा ठनका और इसी के साथ धुल गई पांच नंबर की बगुले की पांख की तरह दकदक साफ छवि।
गहराती, सनसनाती रात में मेरी सवारी महारानी बाग के जाम को वही पहले वाली छवि के तहत पार करके सराय काले खां पहुंची। वहां से ऑटो से कश्मीरी गेट का सफर शुरू हुआ। काले खां के फ्लाईओवर के ठीक सामने प्रगति मैदान वाले छोर पर पांच नंबर वाले जांच दल के अधिकारी। वाहनों की लंबी कतार में ऑटो वाला सर्विस लेन से निकले के बजाए मेनरोड से निकलने लगा। तभी पांच नंबर वालों ने टॉर्च जलाकर उसे रोक लिया। न सिर्फ उसे रोका, बल्कि उसके जसे कई वाहन चालक साइड में खड़े होकर वाहनों और जेबों की जांच करा रहे थे। तभी मैंने सोचा-रोज इन दोनों जगहों पर लगने वाला जाम आम नहीं है, बल्कि यह पांच नंबर का जाम है।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

सत्य का जय होना अभी बाकी है!


विश्वत सेन
पंद्रह अगस्त यानी आज़ादी का दिन। सबकी, देश की आज़ादी का दिन। मेरी भी आजादी का दिन। मैं धुमंतू और खोजन्तू। घूमकर खोजने की आदत। कुरेदकर कहने की आदत। आदत से लाचार।  दिनभर खोजा, मगर कुछ ख़ास नहीं मिला, जिस पर कुछ कहा जा सके। दर-ब-दर डोलने के बाद जब कुछ ख़ास नहीं मिला, तो चिड़िया के घोसले की तरह हम भी रात को अपने दड़वे में आ गए। मन खिन्न था। कोई बोले तो काटने जैसा लगे। अनमने ढंग से निवाला निगला और चादर तानकर दूर से दिखने वाली वस्तु को देखने लगा। चैनल पर चैनल बदला, पर मन को सुकून देनेवाला कोई चैनल नहीं दिखा। अचानक एक चैनल पर आमिर खान 'सत्यमेव जयते' के नए एपिसोड के साथ हाजिर थे। मुझे लगा कि कुछ मिला। सोचा-" इस एपिसोड में कुछ अलग हटकर देखने को मिलेगा।" देखा तो लगा कि नहीं, यह तो पीठ थपथपाई हो रही है और करीब डेढ़ महीने तक चलने वाले कार्यक्रम की सफलता बताई जा रही है। चूँकि मुझे भी उनका यह प्रोग्राम अच्छा लगा, इसलिए मैं उसकी आलोचना नहीं कर सकता। आमिर साहब को देखा, सुना, मन में बैठाया और सो गया।
आज़ादी के दूसरे दिन यानी सोलह अगस्त। घर से "खूंटे से खुली गाय" की तरह निकला। दफ्तर गया। काम किया और साढ़े आठ घंटे के निर्धारित समय पूरा करने के बाद फिर खूंटे पे बंधने के लिए घर की ओर रवाना हो गया। संयोग से रात को हमें हामारे गंतव्य तक पहुंचाने वाली बस छोट गयी। दूसरी बस आयी। वह हमें मिंटो रोड पहुंचाने के बजाय नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के गेट नंबर एक पर उतार दी। खैर, अब वहाँ पहुंचा तो खूंटे तक पहुँचाने का इंतजाम भी करना था। अचानक मेरे दिमाग में बात आयी कि जिस डीटीसी बस को हम कश्मीरी गेट से पकड़कर खूंटे तक पहुंचाते हैं, वह बस तो यहीं से बन-ठनकर चलती है। क्यों न उसी को पकड़ लिया जाए। मैंने इसपे अमल कर दिया और उसके आने का इन्तजार करने लगा। बस आयी और कुछ देर बाद उसमे लोग सवार होने लगे। सब के सब आँखवाले। कोई चश्मा लगाए हुए, तो कोई बिना चश्मे का, लेकिन आँखे सबके पास थीं। उनमे से सिर्फ एक ही ऐसा था जो नेत्रहीन और नजरविहीन था। उन्हें कैम्प यानी किग्सवे कैम्प जाना था। उन्होंने बस में चढ़ते ही कंडक्टर समेत तमाम सवारियों को पहले ही आगाह करा दिया था कि उन्हें कैम्प जाना है। आ जाए तो उतार देंगे। बनी-ठनी हुई बस चल दी पटाखा फोड़ते हुए (कच्चे तेल की वजह से इंजन से निकालने वाली आवाज) अपने गंतव्य की ओर चल दी। कश्मीरी गेट आया, सिविल लाइंस, विश्वविद्यालय और फिर कैम्प भी आ गया। सारे आँखवाले बैठे रहे। कंडक्टर और ड्राइवर भी, मगर किसी ने उस नेत्रहीन को यह नहीं कहा कि उनका गंतव्य आ गया है। बस जब मॉडल टाउन पहुँची तो वे बेचारे अचानक खुद खड़े होकर लोंगों से पूछ रहे थे-" कैम्प आ गया क्या?" लोगों ने कहा-" आ नहीं गया, बल्कि निकल भी गया।" उनके मुंह से एक ही आवाज निकली-"अब क्या होगा?"
तब तक आँखवाले लोगों का तमाशा देखकर मैं भी उकता गया था। मैंने उनके पीठ पर हाथ रखी और बोला-" आप कैम्प ही पहुंचेंगे, मगर थोड़ी देर में।" उन्हें मानों तिनके का सहारा मिल गया। मैं आजादपुर स्टैंड पर उतारा तो उन्हें साथ उतार लिया। तब तक रात के दो बज चुके थे। उतरते ही उन्होंने कहा- "रोड पार करके मुझे छोड़ दो।" मैंने कहा-अंदाजा है, रात कितनी हो गयी है।" उन्होंने कहा- "नहीं।" मैंने कहा- "दो बज गए हैं।" वे चौंके और कहा-"हें..." मैंने कहा-इतनी रात गए मैं आपको सड़क पर अकेले नहीं छोड़ सकता। या तो आप मेरे घर चले या फिर आप ऑटो से अपने घर जाएँ।" उन्होंने दूसरा ऑफर स्वीकार कर लिया। मैंने सोचा इन्हें तो कोई भी ऑटो वाला उनके घर तक रियायती किराए में पहुंचा देगा, क्योंकि उसके पास चार आँखे और तीन पहिये हैं। यही सोचकर मैंने दो-तीन ऑटो वालों को हाथ दिया। औटो वाले रुके। मैंने उनसे पूछा, तो उन्होंने जो जवाब दिया उसे सुनकर अब लोग चौकेंगे। आजादपुर से कैम्प की दूरी मात्र दो किलोमीटर, मगर उसका किराया "तीन सौ रुपये।" कोई दो सौ, तो कोई डेढ़ सौ। मैं भी हैरान और वो भी। मैंने भी हार नहीं मानी। चौथे ऑटोवाले को हाथ दिया। उसने रोका। मैंने वही बात दोहराई- "इन्हें कैम्प तक लेते जाओ। जो पैसे बने वह मुझसे ले लो।" उसने भी पहले के औटोवालों की तरह सुनाया। अबकी बार मैंने सुनाने की ठान रखी थी। मैंने कहा-" तुम लोगों में मानवता नाम की कोई चीज नहीं है। एक अंधा आदमी रात में भटक रहा है और तुमलोग पैसे के लिए मर रहे हो। शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को।" मैंने भी खूब खरी खोटी सुनाई। पता नहीं, मेरी बात सुनकर या उनकी हालत देखकर ऑटोवाले का मन पसीजा। जहां दूसरे ऑटोवाले तीन सौ रुपये मांग रहे थे, वह औटोवाला मात्र दस रुपये में कैम्प तक छोड़ने के लिए तैयार हो गया। वो बेचारे बैठे और चल पड़े अपने गंतव्य की ओर चल पड़े।
वह तो अपने घर को चले गए, मगर छोड़ गए मेरे दिमाग में कई सवाल। अभी एक दिन भी नहीं हुआ था की आमिर साहब "सत्यमेव जयते" की उपलब्धियों उअर उसके प्रशंसकों की संख्या बता रहे थे। लोगों की चिट्ठियाँ पढ़कर सुना रहे थे। प्रोग्राम देखकर इन्टरनेट पर आह भरने वालों की कमी नहीं थी। अचानक रातोंरात लोगो का दिल कैसे बदल गया। देश की राजधानी दिल्ली में जब यह हाल है, तो दूसरे शहरों में क्या स्थिति होगी इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है? हकीकत क्या है? वह जो आमिर खान बता रहे थे या फिर वह जो मैंने अपनी आँखों से देखी? क्या सही मायने में लोगों का दिल परिवर्तित हुआ या यह परिवर्तन या समर्थन सिर्फ इंटरनेटिया था। क्या सिर्फ इन्टरनेट पर समर्थन करने भर से ही लोगों के आचार-विचार और आहार-व्यवहार बदल जाते हैं? सत्य की जीत हो जाती है या फिर लोगों का दिल बदल जाता है? लोगों के दिलों पर तो लगी, मगर क्षणिक। इसके तात्कालिक परिणाम का महिमामंडन और दूरगामी परिणाम को दरकिनार कर दिया गया। यह भी अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलनों की तरह एक भ्रम तो नहीं है? समाजशास्त्रियों ने डंके की चोट पर कहा है कि किसी देश, समाज और क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक बदलाव लाने के लिए क्षण भर में कोई क्रांति नहीं हो जाती। प्रेमचंद ने भी कहा है- " जब तक विष गले से उतरकर पेट तक नहीं पहुँच जाता, तब तक शरीर पर उसका कोई ख़ास असर नहीं पड़ता।" शायद लोगों ने विष को गले से नीचे उतरकर पेट तक पहुँचने का इन्तजार नहीं किया या फिर उसे जान-बूझकर पहुँचने नहीं दिया गया। इसीलिये देश और समाज में छिपा सत्य उभरकर सामने नहीं आया या फिर उसे आने ही नहीं दिया गया।यह जमीनी हकीकत है कि लोगों की कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है। एक प्रोग्राम देखकर लोग चंद मिनट के लिए आह तो भर सकते हैं, लेकिन जब उसे जीवन की दिनचर्या में उतारने की बात आती है तो लोगों के पसीने छूटने लगते हैं। कहना जितना आसान है, उससे कहीं ज्यादा कठिन उसे जीवन में उतारना है। जिस दिन लोग अपने जीवन में देखी, सुनी और कही गई बातों पर अमल करना शुरू कर देंगे उसी दिन "सत्य का जय होगा।"

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

जनतंत्र का वीर बनो


नदी की धारा बनकर बहो, वन-उपवन को तुम सींचो।
कूल-कुलों से मिलकर रहो, जल-अवजल सबको खींचो।।

बन जाओ घनघोर घटा, बूँद-बूँद बन उनपर बरसो।
जिनका कभी पेट पूरा न भरा, अतृप्त नयन से तरसें बरसों।।

बन जाओ हहराती गंगा, निर्मल जल से सजल कर जाओ।
बन जाओ एक बाप का कंधा, अपने बल से सबल कर जाओ।।

पपड़ी पड़ी सूखी धरती पर, और सूखा है उनका मन।
छाती फटती खेत देखकर, और फटता है नंगा तन।।

पुराना चूल्हा टूट गया है, फूट गये घर के बर्तन।
बचा-खुचा सब लूट गया है, छूट गये सब अपने जन।।

सिंहासन पर सिंह जो बैठा, मनुज रक्त लेता है खींच।
कतरा-कतरा पीकर लहू का, ऑंखों को लेता है मीच।।

रौद्ररूप धरकर दौड़ो, और पड़ो फिर उनके पीछे।
सुगति-दुर्गति कर उनको छोड़ो, जो बैठे हैं ऑंखें मीचे।।

निजधर्म समझकर पी जाते सब, जो पीने वाले हैं।
घुट-घुटकर भी जी जाते सब, जो जीने वाले हैं।।

मगर गिरतीं जब दो बूँदें, टूटे-सूखे कुछ पत्तों पर।
सहसा टिक जाती हैं नजरें, मधुमक्खियों के छत्तों पर।।

मधुपर्क उन्हें नहीं भाता, जो रुधिरपान के आदी हैं।
जनसंघर्ष दिखाई न देता, वो बंद कमरों के फौलादी हैं।।

ज्वाला बनकर फूट पड़ो तुम, छद्मरूप को कर दो खाक।
जनतंत्र का वीर बनो तुम, धीर रणधीर सब देंगे साथ।।

लोगों का भाग्य बनाओ, यह सौभाग्य तुम्हारा है।
कलुषित जन को दूर भगाओ, लोकजन ने पुकारा है।।
 
                                             -विश्वत सेन
                                        अगस्त 15, 2012

सोमवार, 13 अगस्त 2012

सर-वर डाउन है, तो मैं क्या करूं


विश्वत सेन
सोमवार की सुबह। समय करीब 11 बजे। दिल्ली के बड़े अस्पतालों में शुमार राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल के बाल रोग चिकित्सा पंजीकरण कक्ष की खिड़की नंबर-16..। बच्चों के अभिभावकों की लंबी कतार सुबह आठ बजे से ही लगी है पंजीकरण कराने के लिए। पूरे दो घंटे में पांच बच्चों की पर्चियां कटीं और बाकी लाइन में खड़े होकर हाथ को पंखा बनाकर झल रहे हैं और झल्ला रहे हैं अस्पताल प्रशासन पर। हाथ को पंखा इसलिए बनाए हुए हैं, क्योंकि अस्पताल की छत में टंगा दादा जमाने का सफेद पंखा रांय-रुईं करते हुए चल तो रहा है, लेकिन उसकी हवा किसी को लग नहीं रही। पसीने से लोगों का शरीर पसीजा हुआ है, तो बच्चों के दर्द से दिल। सिर्फ बड़े ही नहीं, बच्चे भी गर्मी से चिचिया रहे हैं और चिल्ला रही हैं वे महिलाएं, जो घर से निकली हैं इलाज कराने के नाम पर, लेकिन साथ में पड़ोसियों की भी पर्ची साथ में लेकर आई हैं। पड़ोसधर्म का निर्वहन करने के लिए।
दुर्भाग्यवश, हम भी अपने बच्चे को लेकर उन्हीं हैरान-परेशान अभिभावकों में खड़े थे। गनीमत यह रही कि मैं अन्य अभिभावकों की तरह सुबह आठ बजे अस्पताल नहीं पहुंचा। दो घंटे लेट पहुंचा यह सोचकर कि भीड़ छंट गई होगी, तो पंजीकरण में आसानी होगी। पंजीकरण खिड़की से करीब सौ मीटर दूर तक अभिभावकों की लाइन। इसे देखकर मेरा हौसला खिड़की तक पहुंचने से पहले ही पस्त हो गया। पस्त हौसले का पुलिंदा बना दिया उस खिड़की पर बैठे हुए कर्मचारी ने। दस बजे से पूरे 12 बजे तक हम करीब सौ से अधिक माता-पिता लाइन में अपनी बारी आने का इंतजार करते रहे। एक-एककर आगे खिसकते, लेकिन आधे घंटे के बाद। जब दिन के 11.30 के पास घड़ी का कांटा पहुंचा, तो मुझसे रहा नहीं गया। लाइन से निकल आगे बढ़ा और खिड़की में झांककर देखा। देखा तो देखता ही रह गया।
पंजीकरण कक्ष में पूरे पांच बंदे। दो मुस्टंडे और तीन पूरे डंडे। दोनों मुस्टंडे बातों से बरस रहे थे अस्पताल प्रशासन और आईटी डिपार्टमेंट पर। दस मिनट तक मैं उनका यह तमाशा देखता रहा। मैं खिड़की के पास खड़े एक भलेमानुष से पूछा-भैया, क्या बात है? ये पर्ची क्यों नहीं बना रहे? भलेमानुष ने कहा-भाई साहब, आप खुद ही पूछ लें। मैंने अपना परिचय दिए बिना ही जब एक मुस्टंडे-से दिखने वाले बंदे से पूछा, तो उसका जवाब था-सर्वर डाउन है, तो मैं क्या करूं। मैं क्या अपने सिर में डाटा डाउनलोड करूंगा। मैंने कहा-नहीं, बिलकुल नहीं। आप करेंगे तो कंप्यूटर में ही, लेकिन तब जब आपका सर-वर ठीक हो जाएगा। मेरे इस कटाक्ष को वह समझ गया और आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हुए बोला-मैं तुम लोगों को अच्छी तरह देखना जानता हूं। कहो तो बताऊं, कैसे सर-वर डाउन होता है? उसके तेवर देख मैंने झट से कहा- नहीं भाई, कहने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे तेवर से ही पता चल रहा है। फिलहाल तुम यह बताओ कि पर्ची कब बनाओगे? उसने कहा-कल सुबह आना तब बनेगी। फिर हमने लाख कोशिश की, लेकिन उसने पर्ची नहीं बनाई। हम भी अपना-सा मुंह लटकाए और सिर पीटते हुए घर वापस आ गए। क्योंकि हमारे पास कोई दूसरा चारा ही नहीं था। सारा चारा खाने वाले खा गए, तो हम बिना चारा के ही तो होंगे।


गुरुवार, 9 अगस्त 2012

कारवां गुजरने पर जागती है पुलिस

विश्वत सेन
दिल्ली पुलिस के कप्तान साहा शहर में मातहतों की कारगुजारी अपनी आंखों से देखने के लिए औचक निरीक्षण पर निकले थे। अकेले बिना किसी लाव-लश्कर के। ज्यादातर थानेदारों, चौकीदारों और बीट कांस्तेबलों को इसका पता ही नहीं था। कप्तान साहा अपने रौ में निकलते जा रहे थे, देखते जा रहे थे और बगल की सीट पर बैठे एक व्यक्ति को नोट कराते जा रहे थे। उनके मातहतों को उनके दौरे के बारे में तब पता चलता, जब कप्तान साहब किलो-दो किलोमीटर का सफर तय कर लेते। फिर ‘सांप का बिल में जाने के बाद डंडा पीटने’ जैसा हकरत करते हुए थानेदार, चौकीदार और बीट कांस्टोल सरपट भागने वाली सरकारी गाड़ी पर पीछा करने जैसी दौड़ लगाते। जब तक वह पीछे से पहुंचकर कप्तान साहब को सलामी ठोकते, तब तक कप्तान साहब उनके इलाके से बाहर। पीछे से बेचारे उनकी कार की लालबत्ती को ही सलामी देकर संतोष कर लेते।
मंगलवार की रात आजादपुर इलाके में कुछ ऐसा ही वाकया देखने को मिला। कप्तान साहा रात्रि भ्रमण कर रहे थे। बिलकुल तनहा, बिना किसी लाव-लश्कर के। हम आजादपुर मंडी के गेट पर किसी वाहन के इंतजार में खड़े थे। मेरे पीछे चौकी और बीट और करीब दो फर्लांग की दूरी पर आदर्श नगर थाना। कप्तान साहब अपनी रौ में हमारे सामने से गुजर गए। हमारी उन पर नजर पड़ी, मगर उनके मातहत काम करने वालों को उसकी खार नहीं थी। बीट कांस्टोल गाड़ी गुजरने के बाद पीछे से लालबत्ती को सलामी ठोकता नजर आया, तो चौकीदार साहब पांच मिनट बाद पीछे-पीछे बाद। उनके पांच मिनट बाद थानेदार साहब की भी गाड़ी भागी, मगर दुर्भाग्य यह कि जब तक ये तीनों अफसर कप्तान साहब तक पहुंचते, तब तक वे इलाके से निकलकर दूसरे क्षेत्र में पहुंच चुके थे।
कप्तान साहब को नजर आया और खूब अच्छी तरह से नजर आया, उनके ही विभाग में तैनात कर्मचारियों की मुश्तैदी। उन्हें यह भी नजर आया कि जिनके भरोसे वह दिल्ली को अपराधमुक्त करने का दावा करते हैं, वह उनके कितने मजबूत घोड़े हैं। 15 अगस्त का समारोह सिर पर है। सेना के जवान पुरानी दिल्ली के इलाके ही नहीं बल्कि पूरी दिल्ली के चप्पे-चप्पे पर नजर रखे हुए हैं। सुरक्षा एजेंसियां पहले से ही सेना और पुलिस को सतर्क कर चुकी हैं। हालांकि अभी तक किसी कट्टरपंथी या असामाजिक तत्व की ओर से धमकी नहीं आई है और भगवान करे न आए, लेकिन ऐसे संवेदनशील समारोह के पहले और बाद तक सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद रखने की जिम्मेदारी सिर्फ कप्तान की ही नहीं है। इसमें साकी जिम्मेदारी बराबर की है। कप्तान साहब घूम रहे हैं। जायजा ले रहे हैं और भांप रहे अपने कर्मचारियों के कामों को, मगर इस बीच सवाल यह भी पैदा होता है कि आखिर पुलिस महकमे के अधिकारी और कर्मचारियों की कार्यप्रणाली में का सुधार होगा। बड़े अफसर से लेकर सरकार चलाने वाले बड़े-बड़े दावे करते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनके दावे वही ‘लालबत्ती की सलामी’ जैसे साबित होते हैं। जब कारवां गुजर जाता है, तब दिल्ली पुलिस के कर्मचारी जागते हैं।

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

क्यों छेड़ा बगावती राग?

विश्वत सेन
स्वाधीनता संग्राम के दौरान राजनेता और आजादी के दीवाने यह कहते पाए जाते थे, ‘ये देश है वीर जवानों का, अलोलों का, मस्तानों का/ इस देश का यारों क्या कहना/ ये देश है दुनिया का गहना।’ समय बदला, शासन बदला, सरकारें बदली और बदल गई आजादी के दीवानों की परिभाषा। आजादी के दीवानों की महत्वाकांक्षा स्वाधीनता से जुड़ी थी। बदले परिवेश और परिभाषा में 21वीं सदी के आजाद भारत में लोगों की महत्वाकांक्षाएं राजनीतिक चाहत के रूप में बलवती होती चली गईं।  बलवती होती महत्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाने के लिए हथियार बना गांधीजी के आंदोलन, अनशन और हड़ताल रूपी अस्त्र।
बापू यानि मोहनदास करमचंद गांधी। देश से अंग्रेजों को बाहर का रास्ता दिखानेवाला हाड़-मांस का पुतला। 20वीं सदी के "भारत" में उन्होंने जिन हथियारों का इस्तेमाल किया 21वीं सदी के "इंडिया" में वही हथियार राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने वाला एटम बम बन गया। घर की दहलीज से लेकर संसद भवन तक अनशन, आंदोलन और हड़ताल। बापू का हथियार देश के लिए नासूर और भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने वाला अमोघ अस्त्र बन गया। खासकर राजनीति के मैदान में लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का राजनेताओं और स्वार्थी लोगों के पास अन्य कोई दूसरा तरीका ही नहीं है।
वर्ष 1975 से 77 तक इमरजेंसी के काल में बापू के हथियारों का देश में शायद पहली बार व्यापक तरीके से किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया गया। जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में देश की सत्ता परिवर्तन करने के उद्देश्य से छेड़ा गया सबसे बड़ा आंदोलन। इस आंदोलन (जेपी आंदोलन) की परिणति क्या हुई, प्राय: देश का हर नागरिक जानता है। इस आंदोलन ने देश में कई राजनीतिक सूरमा भी पैदा किए। वे इस समय सत्ता शिखर पर पहुंचकर जेपी का कम और खुद का नाम ज्यादा रोशन कर रहे हैं। तब जेपी का यह आंदोलन "मील का पत्थर" साबित हुआ था। इसकी तात्कालिक सफलता तब के युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी। इस आंदोलन के पहले और उसके बाद देश के विभिन्न हिस्सों में भिन्न-भिन्न मांगों को आंदोलन होते रहे, लेकिन राजनीति के फलक पर उनकी चमक फीकी रही। 20वीं सदी के इस आंदोलन को देशवासियों का अपार समर्थन मिला। उसके साथ भावनाएं जुड़ीं। भावनाएं भड़कीं और उससे खिलवाड़ भी किया गया, मगर उस आंदोलन के प्रणेता तब  तक मैदान में डटे रहे, जब तक कोई नतीजा नहीं निकला। 
21वीं सदी के वर्ष 2011 में जेपी और गांधी के आंदोलनों से प्रेरित होकर अन्ना हजारे और उनके कुछ साथियों ने भी तथाकथित तौर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। आन्दोलन क्या एक मुहिम छेड़ी। भेड़ की तरह इस मुहिम से भी भावनाएं जुड़ीं। करीब एक साल तक चलने वाले इस आंदोलन में समाजसेवी अन्ना हजारे ने तीन बार अनशन किया, मगर तीनों बार उनकी इस मुहिम का हश्र क्या हुआ, यह  बताने की आवश्यकता नहीं। इस दौरान पहली बार के अनशन को छोड़कर महाराष्ट्र और अभी जंतर-मंतर पर किया गया अनशन बेनतीजा ही समाप्त करना पड़ा। हां, इस दौरान इतना जरूर हुआ कि इसके कर्ता-धर्ताओं ने देश की भावनाओं के साथ खिलवाड़ खूब किया। देश में महान परिवर्तन का सपना दिखाकर आंदोलन की शुरुआत करने वालों की मंशा साफ हुई, तो पूरा देश हक्का-बक्का रह गया। वे लोग भी अवाक रह गए, जिन लोगों ने भ्रष्टाचार को समाप्त करने की आस लगाकर तन, मन और धन के साथ भावनाओं को जोड़ा। आखिरी अनशन के आठवें-नौवें दिन अन्ना की राजनीतिक पार्टी बनाने या किसी राजनीतिक दल से समर्थन लेने की घोषणा करना ने पूरे देश की भावनाओं को आघात पहुंचाने का काम किया है।
हालांकि इस एक साल के दौरान अन्ना के आंदोलन के प्रणेताओं ने देश के कुछ हिस्सों में घूमकर सरकार और खासकर कांग्रेस के खिलाफ  माहौल बनाने का प्रयास किया, मगर उनकी कार्यशैली पर कई  बार सवाल उठाये गए। ज्यादातर लोगों ने सराहा, लेकिन नई घोषणा के साथ भावनाएं बदलीं और बदल गए लोगों के सुर। सुर उन लोगों के भी बदले जो अन्ना दल में शामिल हैं या थे। इस घोषणा का अब अलग मायने और मतलब निकाला जाने लगा है और निकाला जाने लगा है मीन-मेख। लेकिन इन सबके बीच एक जो बड़ा सवाल पैदा होता है, वह यह कि जब यही करना था, तो फिर इतना कुछ करने की जरूरत ही क्या थी? क्यों छेड़ा बगावती राग? क्यों खेला लोगों की भावनाओं से और क्यों पहुंचाया देश को आर्थिक और सामाजिक नुकसान? कौन देगा इसका जवाब? अन्ना, अन्ना आंदोलन के प्रणेता या फिर उनके अंध समर्थक? क्योंकि अब राजनीति में आने और राजनीतिक दल बनाने की घोषणा से देश के लोगों की भावनाएं भी बदली हैं और इस बदली भावनाओं में राजनेताओं को तो जनता के सवालों का जवाब देना ही पड़ता है। जवाब देना अब इसलिए भी जरूरी है कि अब टीम अन्ना समाजसेवक नहीं, एक राजनीतिक दल के सदस्य बनकर रह गए हैं।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

पहले सुनो, फिर सुनाओ


विश्वत सेन
दिन, बुधवार। दिनांक : एक अगस्त, 2012। स्थान : केंद्रीय सचिवालय के मेट्रो स्टेशन का प्लेटफार्म नंबर-दो और चार इंटरसेक्शन। समय : दोपहर बाद दो  बजकर 10 मिनट। एक अन्ना समर्थक हाथ में तख्ती लिए लोगों को भ्रष्टाचार और सरकार के खिलाफ उकसाने का काम कर रहा है। मैं भी उसी राह से होकर गुजर रहा था। मैंने भी उसे देखा। लोग उसे देखते और आगे बढ़ जाते। उस समय मैं अपने मोबाइल फोन के ईयरफोन पर किशोर कुमार का गाना-‘आने वाला पल जाने वाला है’ सुन रहा था। जब मैंने अन्ना के समर्थक को देखा, तो मेरे दिमाग में एक बात आई। मैंने सोचा, ‘पिछले साल अन्ना हजारे ने पंद्रह अगस्त को अनशन शुरू किया गया था, तो उन्हें महात्मा गांधी जैसा अनशनकारी कहकर नवाजा गया था। इस साल अरविंद केजरीवाल खुद को महात्मा गांधी जैसा अनशनकारी कहलाना चाह रहे हैं।’ मेरे दिमाग ने कहा, ‘बेटे, आज अरविंद और अन्ना के साथ-साथ उनके समर्थक की भी परीक्षा ले ही लो। क्या सही मायने में अन्ना, अरविंद और उनके समर्थक महात्मा गांधी और उनके समर्थक का दर्जा प्राप्त करने के लायक हैं? क्योंकि महात्मा गांधी जब आंदोलन या अनशन करते, तो वह किसी से समर्थन नहीं मांगते थे।बस, वह आंदोलन कर देते थे। हां, आंदोलन या अनशन करने के पहले वह शासन के अधिकारियों, नेताओं से लेकर देश के नेताओं, सेनानियों, समर्थकों, समर्थकों के समर्थकों और अवाम को सुनते जरूर थे। सुनाने के बाद उनकी बातों के निचोड़ को आत्मसात करने की कोशिश करते फिर आन्दोलन या अनशन का सूत्रपात करते। यही वजह है कि कई बार बापू को खुद का आन्दोलन या अनशन जनता की भावनाओं के अनुरूप नहीं लगता, तो वे अपना आन्दोलन वापस ले लेते थे ’ मेरे मन ने सोचा, ‘क्या अन्ना, अरविंद और उनके समर्थकों को सुनने की आदत है या फिर सिर्फ अपनी थोथी दलील जनता और जनदरबार को जबरन सुनाना चाहते हैं। यदि नेता में सुनने की आदत होगी, तो उसके समर्थकों में सुनने की आदत होना स्वाभाविक है।’ 
मन में यह विचार आते ही मैं गांधी टोपी पहने अन्ना अरविंद के समर्थक के पास गया। जो ‘मैं अन्ना हूं’ लिखा हुआ गांधी टोपी पहने हुए थे। मैंने बिना उसे किसी प्रकार की सूचना दिए उसके कान से ईयरफोन का दूसरा सिरा सटा दिया और कहा, ‘ऐ भाई, इसे सुनो। किशोर दा का यह अच्छा गाना है। यह गाना मुझे अच्छा लग रहा है, तो तुम्हें भी अच्छा लगना चाहिए।’ उसने ईयरफोन को झटक दिया। मैंने दोबारा ईयरफोन उसके कान में सटाते हुए कहा, ‘ऐ भाई, मैं विश्वत सेन पत्रकार हूं। यह गाना मुझे अच्छा लग रहा है। तुम्हें भी अच्छा लगना चाहिए। तुम्हारे जीवन में काम आएगा।’ इस बार अन्ना के उस समर्थक ने गुस्से से ईयरफोन को झटकते हुए कहा, ‘दूर हटो। दिखाई नहीं देता, मैं आंदोलन का प्रचार कर रहा हूं। अन्ना-अरविंद अनशन पर हैं और तुम्हें मजाक सूझ रहा है।’ मैंने उसे समझाने वाले लहजे में कहा, ‘भाई, यह आंदोलन और अनशन बेकार है।’ उसने कहा, ‘क्यों?’ मैंने कहा, ‘वह इसलिए, क्योंकि जिस तरह मेरे द्वारा जबरन तुम्हारे कान में ईयरफोन लगाने पर तुम्हें बुरा लगा, ठीक उसी तरह सुचारू रूप से चल रहे देश के जीवन व्यापार के दौरान टीम अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और अनशन भी लोगों को बुरा लग सकता है। वह इसलिए कि इस संसार में प्रायः हर आदमी सुविधाभोगी है और वह सुविधा पाने के लिए किसी भी हद को पार कर सकता है। यदि किसी को सरकारी अस्पताल में इलाज कराने के लिए सबसे पहले डॉक्टर तक जाने के लिए हर प्रकार का जुगाड़ करता है तो कोई राशन कार्ड बिना किसी हील-हुज्जत के बनाने के लिए बाबुओं को रिश्वत भी दे सकता है भ्रष्टाचार इस देश की कोई आज की समस्या नहीं है। यह राज शासन के टाइम से चला आ रहा है। हिन्दू राजाओं के काल में इसे "उपहार", मुगलकाल में "नजराना" और अब "सुविधाशुल्क" कहा जाता है। ’ मैंने उसे समझाया, ‘यह बात दीगर है कि अन्ना का आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ है, लेकिन यह देश पर जबरन थोपा गया स्वार्थपूर्ण तथाकथित आंदोलन है। यदि सही मायने में यह आंदोलन होता, तो तुममें और तुम्हारे नेताओं में सुनने की आदत होती, मगर न तुम किसी दूसरे की सुनते हो और न ही तुम्हारे नेता। इसीलिए यह आंदोलन नहीं,बल्कि हठ है। ’ मैंने उसे और उसके दोस्तों को कहा, ‘अगर तुम अरविंद और अन्ना तक पहुंच गए, तो जाकर कहना कि वह और उनका दल पहले सुनने की आदत डाले, फिर जनता और सरकार को सुनाए। उनका कम बन जाएगा’