सोमवार, 9 अप्रैल 2012

मत रो, हे सखी

विश्‍वत सेन/ अप्रैल नौ, 2012

मत रो, मत रो, मत रो, हे सखी,
कुछ पल को धीरज धरो तो सही।
दिन है, तो है यहां भी रात सखी,
कहीं मलय पवन, तो झंझवात सखी।
यहां धूप है, तो कहीं है छांव गही, 
सुख-दु:ख नहीं आते एक साथ कभी।
वसंत में ही फूलता है पलाश सखी,
गर्दिश में भी मजे को तलाश सखी।
मत हो, मत हो, तू उदास कभी,
मत रो, मत रो, मत रो, हे सखी।।

यह नहीं जरूरी कोई तेरा हाथ धरे,
सुख-दु:ख में हरपल साथ रहे,
है नहीं जरूरी भरा तेरा भंडार रहे,
और पास तेरे सकल संसार फिरे।
है समद को भी बड़ी प्यास लगी,
मत हो, मत हो, तू उदास सखी।
कुछ पल को धीरज धरो तो सही,
मत रो, मत रो, मत रो, हे सखी।।

आंखों में लगाते हैं अंजन सभी,
सूरज को भी लगता ग्रहण कभी।
भंवरे नहीं करते दुख भंजन सखी,
फूलों में घुसकर रहते हैं वो सही।
मन में न पालो तू मोहपाश सखी,
मत हो, मत हो, तू उदास सखी।
कुछ पल को धीरज धरो तो सही,
मत रो, मत रो, मत रो, हे सखी।।

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