शुक्रवार, 14 जून 2019

कौआ आज भी प्यासा है...

फोटो साभार : शटर स्टॉक.कॉम

विश्वत सेन

बुद्धिजीवी वह होता है, जिसकी बुद्धि जीवित हो। जिसे समाज के दर्द से दर्द हो और जो मर्दों में मर्द हो...
बाक़ी सब तो लाश हैं, पोस्टमार्टम हाउस की तलाश हैं...
चिल्लाने के लिए तो स्त्रियां भी चिल्लाती हैं...
हिजड़े, विधुर, विधवा, पति परित्यक्ता, पत्नी परित्यक्त, अरीपार, तड़ीपार आदि में वह दम कहां, जो चिंघाड़ सके...
चिंघाड़ते तो शेर हैं जंगलों में...
जिनकी पत्नी शेरनियों को ह्यूम पाइप में ले जाकर स्वानदत्त सहवास तक कर डालते हैं...
तलाश तो रामराज की थी, मगर ससुरा दुःशासनी राज आ गया...
अन्न का दोष है...
अन्न के दोष से भीष्म पितामह न्याय और अन्याय तथा पाप और पुण्य का फर्क नहीं कर पाये...
विदुर और विभीषण हर जाति, धर्म और समाज में होते हैं...
ताड़का, सूर्पनखा और सुरसा का जो फर्क जान न सका, समस्या का समाधान हनुमान जी लेकर आ गये....
मृत संजीवनी सुरा जब एक अंग्रेजी शराब के क्वाटर के बराबर नशा कर सकती है, तो अर्जुनारिष्ट और अशोकारिष्ट की दो-दो ठेपी तीन बार औरतें क्यों पीती हैं, यह छुपा है क्या....???
नशा तो नशा है साहिब, मगर कोई 495 हारकर भी नशे में है और कोई तीन सौ का झूठा आंकड़ा पार करने के बाद...
भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और बाजार में जो दिखता है, वही बिकता है साहिब...
चाहे मिड टर्म अप्रेजल हो, सालाना अप्रेजल हो या फिर सैलरी करेक्शन हो...
काली मैया झखुरा पसार के रेवड़ी अपने अपनो को ही देगी...
तेल चाटने वाले कीड़े को तेलचट्टा कहते हैं और पत्तल उठाकर चाटकर फेंकने वाले को पत्तलचट्टकरफेंकवा कहते हैं...
गिरीश कर्नाड होने के लिए कलेजा में दम चाहिए...
हिम्मत और कलम चाहिए...
कलम तो मौत का फरमान लिखने वाले भी चलाते हैं और नरपिशाचों को बाइज्जत बरी करने वाले भी चलाते हैं...
कौआ आज भी प्यासा है...
वालमार्ट की जग गई आशा है...
अंबा, अंबानिके, अडानिके ही के राज हैं...
कंक्रीटों के जंगल में व्याप्त जंगलराज है...
कंक्रीटों के जंगल में व्याप्त जंगलराज है...

शनिवार, 25 मई 2019

अब आ रही है नेताओं के फन पटकने की बारी


विश्वत सेन

अक्सर हम अपनी दादी-नानी रे कहानी सुनते हैं, तो उन कहानियों मणिधारी सांप की कहानी जरूर होती है। इन कहानियों में अक्सरहां इस बात की चर्चा होती है कि कोई साहसी पुरुष मणिधारी नाग की मणि को साहस और तरकीब के बल पर हासिल कर लेता है। साहसी पुरुष के हाथ मणि लगते ही लगते ही जहरीला नाग अपना फण पटक-पटक के मर जाता है और फिर उसके मरने के बाद नागिन भी मणि हासिल करने वाले साहसी और तिकड़मी आदमी की दर पर अपना फन पटकना शुरू कर देती है, ताकि वह मणि को हासिल कर सके।
यह तो हुई दंतकथाओं की बात। अगर आप दुनिया के सबसे लोकतांत्रिक देश भारत को देखेंगे, तो हर पांच साल के देश साहसी और तिकड़मी राजनेता मतदाताओं से विजय रूपी मणि हासिल कर लेते हैं और फिर मतदाता अपनी मणि यानी अपना अधिकार और सुविधा रूपी मणि हासिल करने के लिए पूरे पांच साल तक तिकड़मी नेताओं की दर पर अपना फन पटकता रह जाता है। इनमें कई मतदाता फन पटकते-पटकते स्वर्ग सिधार जाते हैं, तो बाकी बचे मतदाताओं का फन पटकते-पटकते पांच साल गुजर जाता है। उधर, दूसरी ओर मतदाताओं से विजय रूपी मणि हासिल कर तिकड़मी और दुस्साहसी राजनेता पूरे पांच साल तक मनी पर मनी यानी नोटों की इमारत खड़ी करने के साथ पूरे ऐशो-आराम की जिंदगी बसर करते हैं। इन पांच सालों में वे इतना धन एकत्र कर लेते हैं कि उससे उनका जीवन ही नहीं, बल्कि आल-औलादों की जिंदगी भी पूरी मस्ती से कटने लग जाती है।
मगर, अब यह राजनेताओं का तिकड़म और दुस्साहस किम्वदंती बनने के कगार पर पहुंच रहा है। अब फन मतदाता नहीं पटकेंगे, बल्कि कुछेक साल में वे खुद विजय रूपी मणि हासिल करने के लिए फन पटकते नजर आएंगे। आप कहेंगे कैसे? तो इसका जवाब है कि नोटा यानी इनमें से कोई नहीं का विकल्प है न!
जी हां, इन राजनेताओं के प्रति गुस्सा प्रकट करने और इन्हें खारिज करने के लिए मतदाताओं के पास सशक्त विकल्प 'नोटा' है, जिसका इस्तेमाल अब बड़े पैमाने पर होने लगा है। अभी हाल में संपन्न हुए 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें, तो इसमें भाजपा और राजग के घटक दलों को भले ही प्रचंड बहुमत मिला हो, मगर 'नोटा' ने भी जबरदस्त असर दिखाया है। इस चुनाव में कुल 65,85,823 मतजाताओं ने नोटा का इस्तेमाल कर देश के राजनीतिक दलों के प्रति गुस्से का इजहार किया है, जो 2014 के चुनाव से 5,85,823 नोटा मत अधिक है। 2014 के चुनाव में कुल 60 लाख मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल कर राजनेताओं को खारिज किया था।
गौर करने वाली बात यह भी है कि देश में भाजपा या राजग शासित राज्यों के मतदाताओं ने जबरदस्त तरीके से नोटा का इस्तेमाल कर नेताओं को मणि हासिल करने के लिए फन पटकने पर मजबूर किया है। इन राज्यों में सुशासनी बाबू का राज्य बिहार करीब 8,17,139 नोटा मत के साथ पहले पायदान पर है। वहीं, पीएम मोदी के परम भक्त योगी आदित्यनाथ का राज्य उत्तर प्रदेश 7,25,079 नोटा मत हासिल करके दूसरे पायदान पर है। इन राज्यों के अलावा, बंगाली बाला ममता बनर्जी का बंगाल 5,46,778 नोटा मत के साथ तीसरे, अम्मा की चरणपादुका रखकर शासन करने वाला राज्य तमिलनाडु 5,41,250 नोटा मत के साथ चौथे स्थान पर, रोड मंत्री नितिन गडकरी का राज्य महाराष्ट्र 4,88,766 नोटा मत के साथ पांचवें स्थान पर, महाठगबंधन के जुगाड़ में राजनीतिक दरों पर फन पटकने वाले चंद्र बाबू नायडू का आंध्र प्रदेश 4,69,863 नोटा मत के साथ छठे स्थान पर, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर भाई मोदी का मॉडल राज्य गुजरात 4,00,941 नोटा मत के साथ सातवें स्थान पर, कांग्रेसी कमल के नाथ वाला राज्य मध्यप्रदेश 3,40,984 नोटा मत के साथ आठवें स्थान पर, राजा-रजवाड़ों का राज्य राजस्थान 3,27,569 नोटा मत के साथ नौवें स्थान पर और माइंड ब्लोइंग राजनीति करने नवीन पटनायक का राज्य ओड़िशा 3,10,824 नोटा मतों के साथ 10वें स्थान पर है।
इन राज्यों के अलावा कर्नाटक में 2,50,810, छत्तीसगढ़ में 1,96,265, तेलंगाना में 1,90,798, झारखंड में 1,89,367, असम में, 1,78,335, पंजाब में 1,54,423, दिल्ली में 1,03,996, और केरल में 1,03,596 नोटा मत पड़े। सबसे कम लक्षद्वीप में 125 नोटा मतों का इस्तेमाल किया गया।
हालांकि, देश में नोटा के इस्तेमाल की यह स्थिति तब है, जब निर्वाचन आयोग और राज्यों के प्रशासन द्वारा उसे हतोत्साहित करने का अभियान तक चलाया गया, मगर साहिब उन मतदाताओं का क्या करेंगे, जिनके मन राजनेताओं के प्रति नाराजगी और गुस्सा है। यह इस बात का संकेत है कि निकट भविष्य में दुस्साहसी और तिकड़मी नेताओं को नोटा के आगे अपना फन पटकना ही पड़ेगा।
बामुलाहिजा होशियार!

गुरुवार, 23 मई 2019

रुको, रुको, रुको...इक नया पैमाना आया है...

विश्वत सेन
आज यानी 23 मई 2019 को 17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव का समापन हो गया। एक्जिट पोल सर्वे और भाजपा व एनडीए के सहयोगी दलों के मुताबिक भाजपा और उसके सहयोगी दलों को 2014 के आम चुनाव की तुलना से कहीं अधिक प्रचंड बहमत मिला है, मगर रुको, रुको, रुको....। मतगणना शुरु होने के बाद से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन तक के दरम्यान मुझे एक नया पैमाना मिला है।
अब आप पूछेंगे कि भई, वह नया पैमाना आखिर है क्या?
मेरा उत्तर होगा कि आप जरा 2009 से लेकर 2014 तक यूपीए-दो के शासनकाल में गरीबी का पैमाना तय करने वाली दरों पर गौर करें। 2014 के पहले तक देश में योजना आयोग नाम की एक संस्था थी, जिसका पदेन अध्यक्ष देश का प्रधानमंत्री होता था। 2014 में मोदी सरकार आयी, तो योजना आयोग भंग हो गया और उसकी जगह पर नीति आयोग हो गया, जिसका पदेन अध्यक्ष अब भी प्रधानमंत्री ही होता है। यूपीए-दो के योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया थे, जो देश में व्याप्त गरीबी का पैमाना शहर और गांव में एक दिन में एक परिवार के एक व्यक्ति के भोजन पर खर्च होने वाली रकम के आधार पर तय करवाते थे। इन पैमानाकारों में अहलूवालिया के अलावा तत्कालिन ज्ञान आयोग के अध्यक्ष और वर्तमान में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा, एक-दो दक्षिण भारतीय अर्थशास्त्री और समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में आये नये-नवेले राजनेता बनाम अभिनेता राज बब्बर हुआ करते थे।
खैर, जबसे देश में श्रीमान नरेंद्र दामोदर भाई मोदी का शासन आया, तो कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल मटियामेट होने लगे। 23 मई, 2019 को 17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव की मतगणना का दिन था, जिसमें भाजपा समेत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को प्रचंड बहुमत मिला। इस प्रचंड बहुमत के लिए पीएम मोदी, उनकी आईटी सेल और खासकर भारत के निर्वाचन आयोग को बहुत-बहुत बधाई।
दोबारा प्रचंड बहुमत मिलने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जीत की बधाई अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को देने के लिए नयी दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में पहुंचे और उन्होंने जो भाषण दिया, उसमें से एक बात मेरे दिमाग में क्लिक कर गयी और वह यह कि उन्होंने कहा कि "अब इस देश में कोई जाति नहीं है। बस, दो ही जाति है। एक गरीब और दूसरी वह जो गरीबों के विकास में अपना सहयोग देती है।"
मित्रों, यही वह नया पैमाना है। सदियों से इस देश में ही नहीं पूरी दुनिया में आर्थिक मजबूती का मूल्यांकन "अमीरी और गरीबी" से किया जाता है या किया जाता रहा है। पीएम मोदी की इस अवधारणा ने गरीबों के पैमाने या हैसियत की लकीर खींच तो दी, लेकिन इसने अमीरों की हैवानियत, लूट, मुनाफाखोरी, क्रोनी कैपिटलिज्म, विजय माल्या, नीरव मोदी, ललित मोदी, मेहुल चौकसी, अडानी, अंबानी जैसे धनाढ्यों की करतूतों पर पर्दा डाल दिया। उनका यह बयान इस ओर साफ इशारा करता है कि मोदी ने अमीरों या यूं कहें कि बड़े कारपोरेट घरानों के बूते 2014 में जिस सत्ता को हासिल किये थे, 2024 तक उन्हीं देश के बड़े कारपोरेट घरानों के लिए काम करते रहेंगे और उनकी हर गलती को क्लीनचिट देते रहेंगे; तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। अनेकता में एकता और बहुजाति प्रथा वाले देश में यदि केवल दो ही जाति (एक गरीब और दूसरी गरीबों के उत्थान में सहयोग करने वाली) को परिभाषित किया जा रहा हो, तो यह चिंता का विषय जरूर है।

शनिवार, 7 जुलाई 2018

मीडिया भी 'अमीर और गरीब' हो गया (विरासत के झरोखे से...भाग-दौड़-10)

विश्वत सेन

हमारा देश भारत आम तौर पर विकासशील देश या फिर गरीबों वाला देश कहा जाता है। कहा जाना भी वाजिब है, क्योंकि यहां की अर्थव्यवस्था में चंद मुट्ठी भर करीब दो फीसदी के आसपास ऐसे लोग हैं, जिनके पास देश की आधी से अधिक संपत्ति है। बाकी के 98 फीसदी लोगों के पास 50 फीसदी। 
हमारे देश में जहां कहीं भी अव्यवस्था या गरीबों और मजलूमों के साथ अन्याय की घटना सामने आती थी, तो यहां की मीडिया शासन-प्रशासन की नाक में दम कर देता था, लेकिन अब शासन और प्रशासन के साथ-साथ मीडिया भी गरीबों और मजलूमों से विमुख हो गया है। चाहे वह सरकार में शामिल राजनेता हो या फिर गली-कूचे का छुटभैय्या नेता, लालफीताशाही में अहम किरदार निभाने वाला बड़ा वाला आईएएस ऑफिसर हो या फिर हजारीबाग के बंदोबस्त कार्यालय में काम करने वाला कोई कर्मचारी, सबको हर जगह हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही है और इन्हीं लोगों के साथ मीडिया के लोगों को भी हरियाली दिखायी दे रही है। खासकर, भोंपू मीडिया और बुद्धू बक्सा के लोगों को तो और भी अधिक हरियाली दिखाई दे रही है, क्योंकि उन्हें सत्ता की सरपरस्ती हासिल है। इसीलिए उन्हें अपने-अपने बक्सों पर राजनेताओं के पैनल के साथ राष्ट्रवाद, फ्रॉडवाद, रेप, गैंगरेप, धोखाधड़ी, बाबागिरी आदि मुद्दों पर बहस करने से फुर्सत ही नहीं होती। अब कोई यह नहीं दिखाता या फिर छापता है कि आज फलाने स्थान पर फलाने अधिकारी ने फलाने गरीब के साथ अनर्थ किया और मजलूम की रोटी को रिश्वत में बदलकर अपनी जेब में रख लिया।
आजकल मीडिया यह दिखाने और छापने में मशगूल है कि फलाना नेता पर फलानी जांच एजेंसी ने कार्रवाई की और फलाने को जेल भेज दिया। यह इसलिए भी उसके लिए जरूरी हो जाता है, क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे उसके आका की ओर से निर्देश दिया जाता है। फिजां में फूल खिला है, तो धरती लाल होगी ही। यह फूल पलाश का नहीं है कि उसके इर्द-गिर्द भौंरे या मधुमक्खियां टहलेंगे और उसके पराग से मधु या शहद बनाकर सूखी धरती पर मिठास फैलायेंगे। यह फूल कमल का कंटीला फूल है, जिसमें से पराग लेने के लिए भौंरे जाते हैं और उसका पराग भी चूसते हैं, मगर सही मायने में शहद बनाने वाली मधुमक्खियां दूर ही रहती हैं। शायद इसीलिए इस फूल की पंखुड़ियां कोमल न होकर तलवार के सरीखे धारदार हो गयी हैं और वहशियों के लिए हथियार बन गयी हैं। शायद यही कारण है कि देश का मीडिया भी तलवार सरीखे हो गयी इन पंखुड़ियों के भय से दीन-हीन गरीबों और मजलूमों से  विमुख होकर अमीरी-अमीरी का खेल खेल रहा है। अलबत्ता, कमजोर आदमी की सुंदर बहू की तरह कुछ दबे-कुचले टाइप के मीडिया के धड़े हैं, जो अपनी पत्रकारिता के धर्म का निर्वहन करते हुए गरीबों और मजलूमों का अब भी साथ दे रहे हैं। मगर, उनकी दशा भी दयनीय हो गयी है या दयनीय करने का प्रशासकीय प्रयास किया जा रहा है, ताकि वह शासकीय सकारात्मकता को परोसकर वाहवाही के पात्र बन सकें।
मगर, इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि मीडिया के अमीरी और गरीबी का यह खेल कितना दिन तक चलेगा? आज सामाजिक विकृतियों को जन्म देने वाले सत्तासीन है, तो इनकी पांचों उंगलियां घी में नजर आ रही हैं। कल यह तलवार की धार वाले फूल की पंखुड़ियां मुरझा जाएंगी, तब क्या होगा? क्या कभी किसी ने इस बारे में कुछ सोचा है?

अंतिम कड़ी

शनिवार, 3 मार्च 2018

यह 'जोर' खतरनाक है

विश्वत सेन
आज त्रिपुरा में ढाई दशक पुरानी वामदल की 'मानिक' सरकार ध्वस्त हो गयी। आज के करीब पांच साल पहले बंगाल में भी ज्योति बसु का राजनीति से संन्यास लेने के बाद बनी बुद्धदेव सरकार भी ध्वस्त हो गयी थी। दोनों सरकारों की सरकार के अवसान में एक ही समानता है और वह हिंसा है। तब महीनों तक राजनीतिक जुगलबंदी से महीनों तक सिंगूर जला था, आज दार्जिलिंग समेत पूरा देश जल रहा है।
आज देश में हर काम जोर-जबरदस्ती किया जा रहा है या कराया जा रहा है। राजनीति में दक्षिण पंथ जोर-जबरदस्ती कर रहा है, तो सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के संस्थानों में पेबस्त समर्थक। हर जगह लोग-बाग मनमानी के शिकार हैं। प्रत्यक्ष रूप से गैर-भाजपा दलों के नेताओं को जबरिया भाजपा या एनडीए के घटक दल बनने पर मजबूर किया जा रहा है या नहीं मानने पर उन्हेंं विभिन्न आरोपों में 'भितराया' जा रहा है।
सरकारी और निजी प्रतिष्ठानों में गैर-भाजपा सोच रखने वाले कामगारों को या तो धकियाया जा रहा है या फिर ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि आत्मसम्मानी जिल्लत और जलालत की नौकरी को रात मार दे।
देश में इस समय यह जो 'जोर-जबरदस्ती' किया जा रहा है, उसका एकमात्र कारण देश के लोगों का माइंडवाश करना है। जो उनकी बात मान गये, वे भी प्रताड़ना के शिकार और जो नहीं मानने रहे, वे प्रताड़ित तो किये ही जा रहे हैं। जो लोग प्रताड़ना के भय से कायराना अंदाज में तोहफा कबूल करवा रहे हैं, उनसे यह सोचकर बदला लिया जा रहा है कि तुम और तुम्हारे पूर्वजों ने हमें सत्ता से दूर रखा। अब हम तुम्हें अपने पास रखकर समुचित सुविधा से भी दूर रखेंगे।
आज यही वजह है कि जितनी श्रमशक्ति को हर साल देश में रोजगार दिया नहीं जा रहा, उससे कहीं ज्यादा नौकरी-पेशा लोग बेरोजगार होने के कगार पर हैं या बेरोजगार हो गये हैं। देसी-विदेशी सर्वेक्षण एजेंसियां हर साल पैदा होने वाली नयी श्रमशक्ति के आंकड़ों को तो पेश करती हैं, मगर बिरली एजेंसी ही ऐसी है, जो 40-45,  46-50, 51-55 और 56-60 आयु वर्ग के बीच नौकरी गंवाने वालों की रिपोर्ट पेश करती हो।
चौंकाने वाली बात यह भी है कि बीते चार सालों के दौरान 40-60 आयु वर्ग के कामगारों का रोजगार या तो समर्थक अधिकारियों की वजह से जा रही है या फिर मजबूरन उन्हें छोड़ना पड़ रहा है। देश में यह जो एक अलग तरह की बेरोजगारी पैदा हो रही है, वह नवसृजित श्रमशक्ति की बेरोजगारी से भी अधिक खतरनाक है।
नवसृजित श्रमशक्ति में एक युवक को रोजगार की दरकार रहती है, मगर बरसों से कार्यरत कामगारों के पीछे परिवार के अनेक सदस्यों की फौज रहती है, जिसमें नवसृजित श्रमशक्ति भी शामिल होती है। ऐसे में, जरा गौर कीजिए कि आज देश में जो 'जोर-जबरदस्ती का खेल चल रहा है, वह राजनीति के लिए ही नहीं, आम अवाम के लिए भी ख़तरनाक है।

बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

'फार्ट अटैक' करना भी एक कला है...(विरासत के झरोखे से...भाग-नौ)

विश्वत सेन

बात 1990 के दशक की है। गर्मी का मौसम था और शाम का समय। वहीं करीब पांच बजे रहा होगा। हम बच्चे घर के पास महुआ के पेड़ के नीचे बैठ घटिया रहे थे। साथी खिलाड़ियों का इंतजार था कि आएं, तो घर के सामने वाले फील्ड में फुटबॉल खेलना जाए। उधर, बाबा घर के सामने खटिया बिछाकर किसी की जन्म कुंडली बना रहे थे। उनकी खाट के नीचे हमारा 'कारा' कुत्ता बैठा था। बाबा का कुत्तों से बैर रहता, मगर कारा खासकर उनकी खाट के नीचे ही बैठता। खैर, हम बच्चे बात कर ही रहे थे कि अचानक बम फटने जैसी धड़ाम की आवाज हुई और इस आवाज के साथ ही बाबा की खाट के नीचे बैठा कारा जोर से भौंकते हुए निकला और फील्ड का पता नहीं कितना चक्कर लगा गया। उधर, हम बच्चों को हंसते-हंसते पेट में बल पड़ गया, मगर हंसी थमने का नाम न ले। हालांकि, हमें थे कि बाबा जोर का फार्ट मारते हैं, मगर हंसी कारें की हालत देखकर आ रही थी। उस बेचारे को लाख पुकारें मगर न चुप होने का नाम ले और न रुकने का और बार-बार बाबा की ही ओर मुंह करके भौंके। इसकी परिणति यह हुई कि बाबा अगर दुरा पर बैठ जाएं, तो कारा फील्ड में चला जाए बाबा उसे कभी-कभार प्यार से बुलाएं भी, तो वह उनके पास सटता ही नहीं।
अच्छा, ऐसा भी नहीं था कि बाबा एकांत में फार्ट मारते, जब वह निकलने को होता, तो मार देते। वे उसे अपानवायु कहते। उनके पास मारने की कला भी थी। अगर वे राह में चल रहे होते और फार्ट जोर मार गया, तो धोती पकड़कर 'चुर-चुर, चुर-चुर' करते हुए कुछ दूर चले जाते। खंड़ाऊ की आवाज के साथ फार्ट की आवाज एक अलग आवाज बनाती।
बात फार्ट की है, तो यह जान लेना भी जरूरी है कि उसे निकालना भी बहुत जरूरी है। फार्ट निकालना जीवन का सामान्य प्रक्रिया है, कई बार अगर तेज आवाज के साथ फार्ट निकल जाए तो शर्मिंदगी महसूस होती है। 
एक रिसर्च के मुताबिक, इसमें शर्मिंदगी की कोई बात नहीं बल्कि यह आपके पाचनतंत्र के स्वस्थ होने का संकेत है। पेट के अंदर गैस बनने से हवा निकलती है और हमेशा हवा छोड़ते समय आवाज नहीं होती या दुर्गंध नहीं फैलती है।
एक व्यक्ति औसत रूप से दिन में 14 बार हवा छोड़ता है। ज्यादातर समय हवा बगैर आवाज के बाहर निकलती है और ऐसे में ज्यादातर कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस निकलती है। जब तेज गंध के साथ हवा निकलती है तो यह इस बात का संकेत है कि आपको फाइबर लेवल सही मिल रहा है और आपकी आंत में पर्याप्त संख्या में अच्छे बैक्टीरिया हैं। आपकी गैस से बहुत ही असहनीय गंध आती है तो इसका मतलब यह नहीं कि आप अस्वस्थ हैं। इसके उलट इसका मतलब यह है कि आप ऐसी चीजें खा रहे हैं, जिससे हाइड्रोजन सल्फाइड गैस काफी मात्रा में पैदा हो रही है। साथ ही इसका यह मतलब भी है आप हाई फाइबर वाली डायट ले रहे हैं। गैस से गंध निकलना उस समय चिंताजनक हो सकता है जब आप डेयरी उत्पाद का ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं।
हायर पर्सपेक्टिव नाम की पत्रिका के मुताबिक, फार्ट (हवा छोड़ना) में गंध मुख्य रूप से हाइड्रोजन सल्फाइड के कारण आती है। हम कई तरह के खाने खाते हैं जिनके पचने के बाद कम्पाउंड्स यानी हाइड्रोजन सल्फाइड बनती है। इससे कई तरह की गंध पैदा होती है जो गैस के साथ बाहर निकलती है। जब फार्ट में तेज गंध हो तो यह इस बात का मजबूत संकेत है कि आपके पेट में सब कुछ ठीक है।
कई स्टडी में यह बात सामने आई है कि गैस सूंधने वाले लोगों को भी फायदा होता है। मेथेन की गंध बीमारियों के खतरे को कम कर देती है और लोगों को लम्बे समय तक जिंदा रहने में मदद करती है। इस गंध से सही होने वाली एक बीमारी डिमेंशा है। हाइड्रोजन सल्फाइड इस बीमारी में जिस तरह एंजाइम काम करते हैं, उस तरीके को बदल देती है।
हालांकि आपको इस बात को लेकर सचेत रहना है कि कहां गैस छोड़ी जाए लेकिन गैस से डरने की जरूरत नहीं है। अगर उसमें गंध है तो इसका मतलब आप अच्छा काम कर रहे हैं।

जारी....

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

झोले वाला किरोड़ीमल (विरासत के झरोखे से...भाग-आठ)

विश्वत सेन

सदी के महानायक श्री अमिताभ बच्चन। वे फिल्म बनाने के शौकीन और हम देखने के। अच्छा लगता, उनकी फिल्म देखकर। कुछ सीखने को मिलता। उनकी फिल्मों में एक चीज कामन थी और वह थी किरोड़ीमल या फिर सेठ किरोड़ीमल। यह किरोड़ीमल फिल्म में सिक्वेंस के हिसाब पटकथा लेखक डालते थे या फिर दर्शकों के बीच रोचकता पैदा करने के लिए महानायक किरोड़ीमल वाला एकाध सीन पेबस्त कराते, इसका मुझे पता नहीं। इसे वही जानें। हमने तो देखा, उसी को फिल्म की ब्यूटी मानी। अब जैसे फिल्म जादूगर को ही ले लें। पूरा एक सीन किरोड़ीमल पर पेबस्त है।
 खैर, फिल्म है। देखा, मनोरंजन और बात खत्म। मगर, बाद के बरसों में जानने-समझने का मौका मिला तो समझा, 'हो सकता है दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से उनका नाता रहा है, इसलिए एक काल्पनिक किरदार के तौर पर उसे पेश किया गया। वैसे, फिल्मों के लिए किरोड़ीमल टाइप के सेठों के किरदार आम तौर पर काफी प्रचलित रहा है। इस लिहाज से भी हमने इस चिरजीवि पात्र पर ज्यादा माथा-पच्ची नहीं की। भाई फिल्म है, उसे मनोरंजन के तरीके से दो। अब यह थोड़े पता था कि 20वीं सदी के फ़िल्मों का यह चिरजीवि किरदार 21वीं सदी तक अपने आपको फिल्मी पर्दे से निकालकर आम जनजीवन में इतनी गहरी पैठ बना लेगा? ये बात अब समझ में आ रही है कि सदी के महानायक श्री अमिताभ बच्चन और उनके पहले के फिल्मकारों ने किरोड़ीमल को जीवंत क्यों बनाए रखा था।
एक बात और। वह यह कि हमारे यहां भारत में झोला का बहुत अधिक महत्व है। दुनिया मंगल पर जाने की सोच रही है, मगर आज भी भारत में एक कहावत सरेआम सार्वजनिक तौर पर प्रचलित है, "मेरा क्या, मैं तो ठहरा फक्कड़। झोला उठाऊंगा और चल दूंगा।"
ये झोला और किरोड़ीमल वाला फंडा मुझे बीते चार-पांच दिनों से बखूबी तब और समझ में आने लगा है, जब एक महाघोटाले का उद्भेदन हुआ है। मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता कि उसके राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं, मगर यह जरूर समझ में आ गया कि बैंकों का हजारों करोड़ रुपयों का कर्ज डालकर विदेश भागने वाले वहीं तो झोले वाले किरोड़ीमल हैं, जिनका अक्स अक्सर फ़िल्मों में उकेरा गया है। यह बात दीगर है कि संदर्भों में बदलाव आया है, मगर चरित्र तो हू-ब-हू वहीं है।
आपने, हमने सबने देखा है कि फिल्मों के किरोड़ीमल जनता के पैसों पर एशो-आराम का साम्राज्य खड़ा करते हैं और जब भेद खुल जाता है या खुलने लगता है, तो झोला उठाकर विदेश भाग जाते हैं या फिर भागने की तैयारी कर रहे होते हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या सरकार इन झोले वाले किरोड़ीमलों को फिल्मों के नायकों की तरह पकड़ेगी या फिर...?

जारी...