मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

फुलौरी बिन चटनी कैसे बनी (विरासत के झरोखे से...भाग-दो)

विश्वत सेन

'कैसे बनी, कैसे बनी; फुलौरी बिना चटनी कैसे बनी...'
1980 के दशक में भोजपुरिया फिल्म इंडस्ट्री अथवा भोजपुरिया बेल्ट में यह गाना बहुत अधिक प्रचलित हुआ noथा। इस गाने का मूल भाव ' बिना चटनी के फुलौरी कैसे बनेगी' था, जिसका दूसरा भाव उस समय के युवाओं और गीतकारों ने अपने अंदाज में पेश किया और स्वीकारा। दरअसल, भोजपुरी भाषा का यह गीत भारत के भोजपुरिया फिल्म इंडस्ट्री अथवा भोजपुरिया बेल्ट में काफी बाद में आया, जब कंचन और बाबला ने इसे 1983 में रिमेक गीत को गाया। इसके पहले इसे त्रिनिदाद में सुंदर पोपो ने गाया था। 1983 में कंचन और डाबला के इस गीत को तत्कालीन समाज में भोंडा माना जाता था। किसी शादी-समारोह या सार्वजनिक स्थल पर इसे बजाया जाता था, तो मां-बहनें चेहरे पर साड़ी का पल्लू रखकर मुंह छुपा लेती और गीत बजने वाले स्थान से बुदबुदाती-गरियाती हुई चुपके से चमककर रुखसत हो जातीं।
1980 के ही दशक में बंबइया फिल्म इंडस्ट्री में एक गाना 'दोनों जवानी के मस्ती में चूर, तेरा कुसूर न मेरा कुसूर, एक्सीडेंट हो गया रब्बा-रब्बा...।' यह गाना किस फिल्म का है, इसके अभिनेता कौन हैं और इसे किस सिचुएशन में फिल्माया गया, कहने की जरूरत नहीं। यह गीत भी उस जमाने के नौजवानों के रंगों में बहने वाले लहू में उबाल भर देता और वे नारियों के प्रति आसक्त हो जाते। इस गाने के बारे में भी तत्कालीन सभ्य समाज के लोगों में वही धारणा थी, जो 'कंचन और बाबला' के गाए गीत के प्रति थी। इस गीत को भी सार्वजनिक स्थल अथवा शादी-समारोह में बजाने के बाद औरतों की वहीं प्रतिक्रिया होती, जो 'फुलौरी बिना चटनी' को लेकर होती।
इन दोनों गीतों के प्रति सभ्य समाज के लोगों की इस तरह की अवधारणा इसलिए थी, क्योंकि हमारे समाज में उस समय इस तरह का भोंडापन या खुलापन नहीं था, जो उसे आसानी हजम कर सके। बाद के बरसों में फिल्मकारों ने अपनी-अपनी फिल्मों में ऐसा-ऐसा व्यंजन परोसा कि भाई लोग 1990 का दशक आते-आते रशियन टीवी के आदी हो गए। 21 सदी में तो पूछिए ही मत, कुकुरमुत्तों की तरह पोर्नोसाइट्स की बाढ़ ही आ गई। 21वीं सदी की शुरुआत से 2016 के सितंबर तक तो फिर भी यह साइबर कैफे, लैपटॉप और डेस्कटॉप तक ही सिमटा था, मगर दूरसंचार के क्षेत्र में तथाकथित तौर पर क्रांति लाने के लिए पेश किये गये 'जिओ' इसे हर घर के हर बिस्तर के नीचे, गली-कूचों, राह-बाट, स्कूल-कॉलेज, जहां हम आप सोच भी नहीं सकेंगे; वहां उतार कर रख दिया। दूरसंचार क्षेत्र की तथाकथित इस क्रांति ने भले ही कुछ नहीं दिया हो, मगर भारत के नौजवानों की किस्मत और हाथों में क्लीवता की डोर थमाने का काम जरूर किया। 1980 के दशक के जिस भारत देश में यहां की औरतें होंगे गानों के बोल सुनकर शर्म और नफ़रत से लाल हो जाया करती थीं, आज 21वीं सदी के दूसरे दशक के आते-आते उसी भारत में कैसा माहौल बदला है, यह भी कहने की जरूरत नहीं है।
1980 के ही दशक के दौरान भारतीय राजनीति में भी कई परिवर्तन देखे गए। आपातकाल और जेपी के आंदोलन से देश उबरा था। भारत में इंदिरा गांधी की सरकार थी। जनसंघ भारतीय जनता पार्टी बन चुका था। राजनीतिक स्वच्छता कायम करने को लेकर बहस और प्रयास जारी थे। राजनीतिक गलियारों में एक-दूसरे दल के लोगों द्वारा आरोप-प्रत्यारोप लगाते जाते, मगर भाषायी शुचिता और मर्यादा का भी ख्याल रखा जाता। 1990 के दशक में जब पूर्व प्रधानमंत्री मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की ओर से मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया गया और जनमोर्चा से टूटकर नये राजनीतिक दलों का अभ्युदय होने लगा, तो राजनीतिक गलियारे से भाषायी मर्यादा पर भी आघात होने लगा। लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक पटल पर अभ्युदय के बाद यह मर्यादा तार-तार हो गई। आज जब 21वीं सदी का दूसरा दशक आने को है, तो देश के राजनीतिक गलियारों में किस तरह की भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, वह कहने की जरूरत नहीं है। जैसे फिल्मकारों ने अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिए सामाजिक सोच को बदला, वैसे ही आज के राजनेताओं ने वोट की राजनीति करने के लिए देश की आबोहवा को बदल कर रख दिया। अब इसमें देश के नागरिकों को यह तय करना होगा कि इस बदले परिवेश में उन्हें क्या ग्रहण करना है और किसे त्यागना है। देश में हर जगह उत्पादों की भरमार है।

जारी....

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