बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

'फार्ट अटैक' करना भी एक कला है...(विरासत के झरोखे से...भाग-नौ)

विश्वत सेन

बात 1990 के दशक की है। गर्मी का मौसम था और शाम का समय। वहीं करीब पांच बजे रहा होगा। हम बच्चे घर के पास महुआ के पेड़ के नीचे बैठ घटिया रहे थे। साथी खिलाड़ियों का इंतजार था कि आएं, तो घर के सामने वाले फील्ड में फुटबॉल खेलना जाए। उधर, बाबा घर के सामने खटिया बिछाकर किसी की जन्म कुंडली बना रहे थे। उनकी खाट के नीचे हमारा 'कारा' कुत्ता बैठा था। बाबा का कुत्तों से बैर रहता, मगर कारा खासकर उनकी खाट के नीचे ही बैठता। खैर, हम बच्चे बात कर ही रहे थे कि अचानक बम फटने जैसी धड़ाम की आवाज हुई और इस आवाज के साथ ही बाबा की खाट के नीचे बैठा कारा जोर से भौंकते हुए निकला और फील्ड का पता नहीं कितना चक्कर लगा गया। उधर, हम बच्चों को हंसते-हंसते पेट में बल पड़ गया, मगर हंसी थमने का नाम न ले। हालांकि, हमें थे कि बाबा जोर का फार्ट मारते हैं, मगर हंसी कारें की हालत देखकर आ रही थी। उस बेचारे को लाख पुकारें मगर न चुप होने का नाम ले और न रुकने का और बार-बार बाबा की ही ओर मुंह करके भौंके। इसकी परिणति यह हुई कि बाबा अगर दुरा पर बैठ जाएं, तो कारा फील्ड में चला जाए बाबा उसे कभी-कभार प्यार से बुलाएं भी, तो वह उनके पास सटता ही नहीं।
अच्छा, ऐसा भी नहीं था कि बाबा एकांत में फार्ट मारते, जब वह निकलने को होता, तो मार देते। वे उसे अपानवायु कहते। उनके पास मारने की कला भी थी। अगर वे राह में चल रहे होते और फार्ट जोर मार गया, तो धोती पकड़कर 'चुर-चुर, चुर-चुर' करते हुए कुछ दूर चले जाते। खंड़ाऊ की आवाज के साथ फार्ट की आवाज एक अलग आवाज बनाती।
बात फार्ट की है, तो यह जान लेना भी जरूरी है कि उसे निकालना भी बहुत जरूरी है। फार्ट निकालना जीवन का सामान्य प्रक्रिया है, कई बार अगर तेज आवाज के साथ फार्ट निकल जाए तो शर्मिंदगी महसूस होती है। 
एक रिसर्च के मुताबिक, इसमें शर्मिंदगी की कोई बात नहीं बल्कि यह आपके पाचनतंत्र के स्वस्थ होने का संकेत है। पेट के अंदर गैस बनने से हवा निकलती है और हमेशा हवा छोड़ते समय आवाज नहीं होती या दुर्गंध नहीं फैलती है।
एक व्यक्ति औसत रूप से दिन में 14 बार हवा छोड़ता है। ज्यादातर समय हवा बगैर आवाज के बाहर निकलती है और ऐसे में ज्यादातर कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस निकलती है। जब तेज गंध के साथ हवा निकलती है तो यह इस बात का संकेत है कि आपको फाइबर लेवल सही मिल रहा है और आपकी आंत में पर्याप्त संख्या में अच्छे बैक्टीरिया हैं। आपकी गैस से बहुत ही असहनीय गंध आती है तो इसका मतलब यह नहीं कि आप अस्वस्थ हैं। इसके उलट इसका मतलब यह है कि आप ऐसी चीजें खा रहे हैं, जिससे हाइड्रोजन सल्फाइड गैस काफी मात्रा में पैदा हो रही है। साथ ही इसका यह मतलब भी है आप हाई फाइबर वाली डायट ले रहे हैं। गैस से गंध निकलना उस समय चिंताजनक हो सकता है जब आप डेयरी उत्पाद का ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं।
हायर पर्सपेक्टिव नाम की पत्रिका के मुताबिक, फार्ट (हवा छोड़ना) में गंध मुख्य रूप से हाइड्रोजन सल्फाइड के कारण आती है। हम कई तरह के खाने खाते हैं जिनके पचने के बाद कम्पाउंड्स यानी हाइड्रोजन सल्फाइड बनती है। इससे कई तरह की गंध पैदा होती है जो गैस के साथ बाहर निकलती है। जब फार्ट में तेज गंध हो तो यह इस बात का मजबूत संकेत है कि आपके पेट में सब कुछ ठीक है।
कई स्टडी में यह बात सामने आई है कि गैस सूंधने वाले लोगों को भी फायदा होता है। मेथेन की गंध बीमारियों के खतरे को कम कर देती है और लोगों को लम्बे समय तक जिंदा रहने में मदद करती है। इस गंध से सही होने वाली एक बीमारी डिमेंशा है। हाइड्रोजन सल्फाइड इस बीमारी में जिस तरह एंजाइम काम करते हैं, उस तरीके को बदल देती है।
हालांकि आपको इस बात को लेकर सचेत रहना है कि कहां गैस छोड़ी जाए लेकिन गैस से डरने की जरूरत नहीं है। अगर उसमें गंध है तो इसका मतलब आप अच्छा काम कर रहे हैं।

जारी....

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

झोले वाला किरोड़ीमल (विरासत के झरोखे से...भाग-आठ)

विश्वत सेन

सदी के महानायक श्री अमिताभ बच्चन। वे फिल्म बनाने के शौकीन और हम देखने के। अच्छा लगता, उनकी फिल्म देखकर। कुछ सीखने को मिलता। उनकी फिल्मों में एक चीज कामन थी और वह थी किरोड़ीमल या फिर सेठ किरोड़ीमल। यह किरोड़ीमल फिल्म में सिक्वेंस के हिसाब पटकथा लेखक डालते थे या फिर दर्शकों के बीच रोचकता पैदा करने के लिए महानायक किरोड़ीमल वाला एकाध सीन पेबस्त कराते, इसका मुझे पता नहीं। इसे वही जानें। हमने तो देखा, उसी को फिल्म की ब्यूटी मानी। अब जैसे फिल्म जादूगर को ही ले लें। पूरा एक सीन किरोड़ीमल पर पेबस्त है।
 खैर, फिल्म है। देखा, मनोरंजन और बात खत्म। मगर, बाद के बरसों में जानने-समझने का मौका मिला तो समझा, 'हो सकता है दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से उनका नाता रहा है, इसलिए एक काल्पनिक किरदार के तौर पर उसे पेश किया गया। वैसे, फिल्मों के लिए किरोड़ीमल टाइप के सेठों के किरदार आम तौर पर काफी प्रचलित रहा है। इस लिहाज से भी हमने इस चिरजीवि पात्र पर ज्यादा माथा-पच्ची नहीं की। भाई फिल्म है, उसे मनोरंजन के तरीके से दो। अब यह थोड़े पता था कि 20वीं सदी के फ़िल्मों का यह चिरजीवि किरदार 21वीं सदी तक अपने आपको फिल्मी पर्दे से निकालकर आम जनजीवन में इतनी गहरी पैठ बना लेगा? ये बात अब समझ में आ रही है कि सदी के महानायक श्री अमिताभ बच्चन और उनके पहले के फिल्मकारों ने किरोड़ीमल को जीवंत क्यों बनाए रखा था।
एक बात और। वह यह कि हमारे यहां भारत में झोला का बहुत अधिक महत्व है। दुनिया मंगल पर जाने की सोच रही है, मगर आज भी भारत में एक कहावत सरेआम सार्वजनिक तौर पर प्रचलित है, "मेरा क्या, मैं तो ठहरा फक्कड़। झोला उठाऊंगा और चल दूंगा।"
ये झोला और किरोड़ीमल वाला फंडा मुझे बीते चार-पांच दिनों से बखूबी तब और समझ में आने लगा है, जब एक महाघोटाले का उद्भेदन हुआ है। मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता कि उसके राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं, मगर यह जरूर समझ में आ गया कि बैंकों का हजारों करोड़ रुपयों का कर्ज डालकर विदेश भागने वाले वहीं तो झोले वाले किरोड़ीमल हैं, जिनका अक्स अक्सर फ़िल्मों में उकेरा गया है। यह बात दीगर है कि संदर्भों में बदलाव आया है, मगर चरित्र तो हू-ब-हू वहीं है।
आपने, हमने सबने देखा है कि फिल्मों के किरोड़ीमल जनता के पैसों पर एशो-आराम का साम्राज्य खड़ा करते हैं और जब भेद खुल जाता है या खुलने लगता है, तो झोला उठाकर विदेश भाग जाते हैं या फिर भागने की तैयारी कर रहे होते हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या सरकार इन झोले वाले किरोड़ीमलों को फिल्मों के नायकों की तरह पकड़ेगी या फिर...?

जारी...

सोमवार, 19 फ़रवरी 2018

"मुर्गा भौंकता है" (विरासत के झरोखे से...भाग-सात)

विश्वत सेन

"मुर्गा भौंकता है।" है न अचरज की बात! यह वाक्य पढ़कर आप कहेंगे कि आपसे होली के मौसम में ठिठोली की जा रही है, मगर आप इसे होली की ठिठोली न समझें। यह हकीकत है। प्राकृतिक तौर पर तो कुत्ता भौंकता है, मगर दुनिया में लोग मुर्गे को भी भौंका रहे हैं; जैसे भारत में पेपरलेस इकोनॉमी के लिए 'अनहोनी को होनी और होनी को अनहोनी' में तब्दील किया जा रहा है।

मुर्गे का भौंकना भी नेचुरली हैरान करने वाली बात है, मगर मलेशिया की सरकार ने इसे सच कर दिखाया है। मलेशिया भारत का मित्र राष्ट्र है और सत्तासीन होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर भाई मोदी मलेशिया का दौरा भी कर चुके हैं। जाहिर सी बात है, 'दुनिया का विश्वगुरु बनने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार अननेचुरल को प्रैक्टिकल बनाने के लिए भगीरथ प्रयास कर सकती है, तो भला मलेशिया पीछे क्यों रहे। सो, उसने 'मुर्गे को भौंकाने का भगीरथ प्रयास' कर दिया। आखिर भारत का मित्र है और हर मित्र अपने अनन्य का अनुकरण करता ही है और करना चाहिए।

दरअसल, वाकिया यह है कि मलेशिया सरकार ने लूनर न्यू ईयर को सेलिब्रेट करने के लिए पूरे पन्ने का एक विज्ञापन प्रकाशित करवाया है। इस विज्ञापन में मुर्गे को भौंकते हुए दिखाया गया है। इसका कारण यह है कि चीनी राशि चक्र में 12 साल का एक चक्र माना जाता है। इसमें हर साल को एक जानवर के रूप में दर्शाया जाता है। इस हिसाब से मलेशिया में चीनी राशि चक्र के अनुसार रूस्टर ईयर यानी मुर्गे वाला साल अभी हाल ही में खत्म हुआ है। अब डॉग ईयर शुरू हुआ है। मलेशिया सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने विज्ञापन के माध्यम से डाग ईयर की शुभकामनाएं दी, मगर इस विज्ञापन में मुर्गे को चीनी भाषा में कुत्ते की तरह भौंकता हुआ दर्शाया गया है यानी दो जैविक प्रजातियों के नेचुरल कार्य-व्यवहार का घालमेल। जैसे भारत में इस समय हिंदू धर्म के नाम पर घालमेल किया जा रहा है। आर्य संस्कृति के सनातन धर्म को जबरन हिंदू धर्म बनाया जा रहा है।

खैर, मलेशिया सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने विज्ञापन के जरिए घालमेल तैयार कर तो दिया, मगर इस विज्ञापन के बाद उसे आलोचना का भी शिकार होना पड़ा। आनन फानन में वाणिज्य मंत्रालय इसे तकनीकी त्रुटि बताकर माफी भी मांग लिया, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। डिजिटाइजेशन के इस युग में जहां व्हाट्सएप जैसे महाज्ञानियों की यूनिवर्सिटी संचालित हो रही हो, तो भला #मिर्च_मुसल्लम के साथ यह ज्ञान प्रसारित न हो, यह संभव नहीं। सो, मुर्गे के भौंकने वाला ज्ञान भी सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और अब भारतीय अखबारों की सुर्खियां बन गया। मुर्गे को भौंकने वाली यह खबर सहूलियत के हिसाब से प्रकाशित की जा रही है और लोगों द्वारा नमक, मिर्च मसाले के साथ इसका मजा भी लिया जा रहा है। मैंने भी सहूलियत के हिसाब से आपके लिए परोसा है, आप भी मजे लें।

जारी...

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

देश ही नहीं, विदेशों में भी हिंदी का 'हवा महल' बना रहा रेडियो (विरासत के झरोखे से...भाग-छह)

विश्वत सेन

1924 में जब मद्रास प्रेसीडेंसी क्लब ने भारत में स्थापना की थी, तब उसके संस्थापकों को यह गुमान भी नहीं होगा कि यह रेडियो एक दिन भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में हिंदी का 'हवा महल' तैयार कर देगा। जी हां, आप सौ फीसदी सही पढ़ रहे हैं। भारत में रेडियो की स्थापना आज से करीब 194 साल पहले 1924 में हुई थी। इसकी शुरुआत मद्रास प्रेसीडेंसी क्लब ने की थी। स्थापना के तीन साल बाद तक इस क्लब ने रेडियो से प्रसारण का काम किया, मगर आर्थिक तंगी के कारण इसका प्रसारण बंद कर दिया गया।

मद्रास प्रेसीडेंसी क्लब का रेडियो प्रसारण बंद होने के बाद 1927 में ही तब के बांबे और आज की मुंबई के कुछ व्यापारियों ने कलकत्ता और मुंबई से भारतीय प्रसारण कंपनी (Indian Broadcasting Company) की स्थापना कर रेडियो पर कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू किया। यह कंपनी भी 1930 के आते-आते रेडियो कार्यक्रम के प्रसारण में विफल साबित हुई। इसके दो साल बाद भारत में शासन कर रही अंग्रेजी हुकूमत ने रेडियो कार्यक्रमों का प्रसारण करने का जिम्मा अपने हाथों में ले लिया। उसने अलग से एक प्रसारण विभाग स्थापित कर भारतीय प्रसारण सेवा की शुरुआत की, जिसका 1936 में नाम बदलकर All India Radio कर दिया गया। इसे संचार विभाग देखा करता था। देश जब आजाद हुआ और आजाद भारत की नमी सरकार पर रेडियो के प्रसारण का भार पड़ा, तो 1957 में इसका नाम "आकाशवाणी" रखा गया। आकाशवाणी को संचालित करने का प्रसारण एवं सूचना मंत्रालय को सौंपा गया।

देश आजाद होने तक यानी 1947 तक देश में रेडियो के कुल छह स्टेशन ही हुआ करते थे। 1990 का दशक आते-आते पूरे देश में करीब 146 एएम रेडियो स्टेशन खोले जा चुके थे, जिनसे हिंदी और अंग्रेजी के अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में समाचारों और कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता था। 1990 के मध्य तक 31 नरेंद्र एएम और एफ एम स्टेशनों की स्थापना की जा चुकी थी। 1994 में देश के लोगों को आपस में जोड़ने के लिए करीब 85 FM और 73 वेब स्टेशनों की स्थापना की गई।

बात जब रेडियो की हो और उसमें विविध भारती की चर्चा न हो, तो बेमानी ही होगी। जी हां, वहीं अमीन चाचा यानी अमीन सयानी वाला विविध भारती, जिनकी आवाज का जादू आज भी रेडियो सुनने वालों के सिर चढ़कर बोलता है। इस विविध भारती की स्थापना 1967 में विज्ञापन सेवा प्रभाग द्वारा की गयी।

विविध भारती आकाशवाणी या All India Radio की सबसे अच्छी सेवाओं में एक थी। विविध भारती का 'हवा महल' और 'सैनिक भाइयों के लिए गीत-संगीत का कार्यक्रम सबसे ज्यादा लोकप्रिय है।

देश के अलावा विदेशों में भी All India Radio या अन्य रेडियो स्टेशनों के माध्यम से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का प्रसारण किया जाता है। कहा जाता है कि 1 अक्टूबर, 1939 को ब्रिटिश हुकूमत ने अफगानिस्तान के निवासियों पर निर्देशित कार्यक्रम नाजियों के दुष्प्रचार के मुकाबले के लिए किया था। उस समय ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण 16 विदेशी और 11 भारतीय भाषाओं में किया गया था।

खैर, जहां तक भारतीय रेडियो का विदेशों में प्रसारण की बात है, तो 1994 में भारत सरकार ने विदेशों में हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के श्रोताओं के लिए 70 घंटे की खबरें और मनोरंजक कार्यक्रमों के प्रसारण की शुरुआत की। यह प्रसारण 32 साफ्टवेयर ट्रांसमीटर ओर हाई पावर शार्ट वेब बैंड के माध्यम से किया जाता था। आज आलम यह है कि दुनिया के कई प्रमुख देशों में रेडियो के जरिए हिंदी कार्यक्रमों का प्रसारण किया जा रहा है।

इन देशों में रेडियो पर है हिंदी की धूम
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मारीशस
रेडियो प्लस- हिंदी, भोजपुरी, तमिल, तेलुग

बेस्ट एफ एम- हिंदी, अंग्रेजी, क्रियोल

टाप एफ एम- हिंदी, फ्रेंच, क्रिओल

रेडियो मारीशस- हिंदी, उर्दू

ताल एफ एम- हिंदी, भोजपुरी

रेडियो प्लस- हिंदी, फ्रेंच, क्रियोल

म्यूजिक एफ एम- हिंदी, अंग्रेजी, क्रिओल

अमेरिका
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104.9 एफ एम- भारतीय भाषा

1110 एएम- भारतीय भाषा

92.7- भारतीय भाषा

ईज़ी 96- हिंदी

मेरा संगीत- बालीवुड के हिंदी गीत

ईसीबी रेडियो- हिंदी, अंग्रेजी

त्रिनिदाद और टोबैगो
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रेडियो जागृति- हिंदी
हेरिटेज रेडियो- हिंदी
रेडियो 90.5 एफ एम- हिंदी

दुबई
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हम 106.2- हिंदी
सिटी 1016- हिंदी
रेडियो स्पिइस 105.4 एफ एम- हिंदी

नोट: विश्व रेडियो दिवस पर विशेष

जारी.....

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

बदल गये 'महात्मा' (विरासत के झरोखे से....(भाग-पांच)

विश्वत सेन

बचपन में जब हम एक क्लास उत्तीर्ण करके दूसरे वाले बड़े क्लास में जाते, तब एक अलग तरह का उत्साह, उल्लास और ललक रहती। अब एक ही तरह के पाठों को रोज बांचना नहीं पड़ेगा और न ही एक ही तरह के अभ्यास वाले प्रश्नों को हल करना पड़ेगा। आज के निजी स्कूलों के बच्चों की तरह चमचमाते जिल्द वाली किताब और कापियां आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं। बिहार पेपर मर्चेंट एसोसिएशन (बी पी एम ए) की कापियां राशन की सरकारी दुकान या कोटे से खरीदी जातीय और किताबें सरकार द्वारा अनुदानित होतीं और स्कूल से ही मिलती नहीं थीं। अच्छा, हमारे समय में हर दूसरे-तीसरे महीने सिलेबस भी नहीं बदलता, इसलिए स्कूल में किताब आने के पहले वार्षिक परीक्षा के समय से ही अपने वरिष्ठ छात्रों से पुरानी क़िताबें लेने का छोड़-छोड़ शुरू हो जाता। मजे की बात देखिए, पहली कक्षा से पांचवीं कक्षा तक की किताबें आसानी से मिल जातीं, मगर छठी से 10वीं तक में झोल था। पांचवीं तक हद से हद पांच किताबें होतीं और दो BPMA की अभ्यास पुस्तिका। इनमें पहाड़ा, गिनती और गणित के लिए सादे पन्ने वाली एक और हिंदी समेत अन्य विषयों के लिए दूसरी रूलदार। छठी में जाने के बाद एक अंग्रेजी की चार लाइन वाली काफी बढ़ जाती। अच्छा, पांचवीं तक हम अभ्यास पुस्तिका का इस्तेमाल कम और स्लेट-पेंसिल का इस्तेमाल ज्यादा करते, ताकि एक तो अक्सर गोल-गोल बने और दूसरा कोटे से मिलने वाली अभ्यास पुस्तिका के पन्ने कम खर्च हों। तीसरा यह कि फाउंटेन पेन, स्याही और नींबू के पैसों की भी बचत हो। हिंदी अंग्रेजी में लिखना लिखने के अलावा केवल हिसाब बनानें में ही उसका इस्तेमाल होता।
खैर, इसी तरह घिसते-घसीटते हम पहुंच गये नौंवीं कक्षा में। नौंवीं कक्षा मतलब एक सम्मानजनक क्लास। इसके बाद अब 10वीं और फिर सीधा मैट्रिक बोर्ड। मैट्रिक बोर्ड उत्तीर्ण करने का अर्थ यह कि आयरन गेट पार। इसके बाद शिक्षा के लिए खुला आसमान। मगर, नौंवीं कक्षा तक पहुंचने के पहले शर्त यह थी कि आपने पहले की कक्षाओं में जो पढ़ा है, उसका भली-भांति ज्ञान होना आवश्यक है। चाहे वह कोई भी विषय क्यों न हो। जिस विषय में कोई छात्र कमजोर दिखा नहीं कि उसे उसी क्लास में रोक दो, जिसमें वह पढ़ रहा है। अब एक ही क्लास में साल जाया करने के भर से प्राय: सभी बच्चे पूरे साल जी-तोड़ मेहनत करने में लगे रहते। नौंवीं कक्षा के पहले तीसरी-चौथी से ही हमें संस्कृत की सुक्तियां, कबीरदास के दोहे, सुरदास की कुंडलियां, रहीम के दोहे-सवैया, हरिवंश राय बच्चन की बाल कविताएं, सुमित्रानंदन पंत की कविताएं आदि कंठस्थ करा दी गयी थीं या हमने कर लिया था। इन्हीं संस्कृत की सुक्तियों में एक सुक्ति है या उसे श्लोक भी कह सकते हैं, जिसे आज अक्सर बात-बात में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आधे-अधूरे तरीके से अपनी राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक सांस्कृतिक सहूलियत के हिसाब से पेश किया जाता है।
श्लोक है-यह
"अयं निज परोवेति गणना लघुचेतसां।
उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुंबकम्।।"

इसका अर्थ यह हुआ कि
"अपना-पराया, तेरा मेरा आदि की गणना करने के बजाय उदार चरित वालों के लिए पूरी पृथ्वी ही कुटुंब के समान है।"

अर्थात
जो व्यक्ति उदार चरित के होते हैं, उनके लिए अपना परिवार, सगे-संबंधी और कुटुंब की बात कौन करे, पूरी पृथ्वी पर निवास करने वाले चराचर जीव-जंतु सभी परिवार या संबंधी हैं।"
इसीलिए हमारे शास्त्रों में पर्वतों, वृक्षों, जीव-जंतुओं को मनुष्यों की तरह व्यवहार करते हुए दर्शाया गया है। आज जिस तरीके से "वसुधैव कुटुंबकम्" के सिद्धांत को परोसा जा रहा है, उसे कहने की जरूरत नहीं है। किसी रटंतु तोते की तरह इसे वांचा तो जा रहा, मगर कर्म की धरातल से यह कोसों दूर है।
खैर, जब हम नौंवीं कक्षा में आए तो समझ और शिक्षा का दायरा बढ़ गया। यहां पर संस्कृत की सूक्तियों के बजाय यक्ष के प्रश्न और युधिष्ठिर के उत्तर आ गये। इन्हीं यक्ष-युधिष्ठिर की प्रश्नोत्तरी में यक्ष ने एक सवाल पूछा था-"क: महात्मनां?" अर्थात "महात्मा कौन है?"

धर्मराज युधिष्ठिर ने जवाब दिया है:
"विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा,
सदसि  वाक्पटुता  युधि  विक्रमः।
यशसि  चाभिरुचिर्व्यसनं  श्रुतौ,
प्रकृतिसिद्धमिदं   हि  महात्मनाम् ।।
अर्थात
जो व्यक्ति विपत्ति में धैर्य ,समृद्धि में क्षमाशीलता , सभा में वाक्पटुता , युद्ध में पराक्रम ,यशस्वी ,वेद शास्त्रों को जानता हो, वह इन छह गुण से परिपूर्ण व्यक्ति स्वाभाविक रूप से महात्मा या महापुरुष कहलाता है। 
आज आलम यह है कि हर गली में गेरूआ रूप धारण करके महात्मा जी पधारे जाते हैं। आसाराम और राम रहीम जैसे लोग भी महात्मा ही कहलाना चाहते हैं। यही नहीं बहुत सारे महात्मा तो टेलीविजन के समाचार चैनलों पर बैठकर डिबेट में अपनी महतमै झाड़ते रहते हैं। कोई गेरुआ में, तो कोई सच्चाई के प्रतीक लकदक सफेद कपड़ों में प्रवचन सुना रहे होते हैं। भारत को एक बार फिर विश्व गुरु होने का सपना देखते और दिखाते हैं। मौका पड़ने पर "मां की-धी की" करने से बाज नहीं आते।
खैर, नौंवीं के बाद 10वीं और बोर्ड के बाद इंटर में आया। यहां आने के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, बापू या फिर मोहनदास करमचंद गांधी से रूबरू हुआ। हालांकि, बापू को बचपन से ही जानते थे, मगर व्यापक पैमाने पर समझने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ। हालांकि, बीते दो दशकों से बापू को समझने के प्रयास में लगा हूं, मगर आज तक उन्हें समझ नहीं पाया। हो सकता है, यह मेरी मंदअक्ली हो। फिर हमने यह देखा कि बापू का राजनीतिक इस्तेमाल कैसे होता है। आज के चार साल पहले तक बापू को कांग्रेस की थाती कहा जाता था और आरोप चार साल पहले वाली उदारवादी हिंदूवादी विचारधारा के लोग लगाते थे। आज अचानक बापू का स्वरूप बदल गया। जैसे द्वापर और कलियुग वाले महात्माओं का स्वरूप बदला, उसी तरह महात्मा गांधी या बापू का स्वरूप बदल गया। अब हम जैसे लोग यह सोचने पर मजबूर हैं कि महात्मा का उपयोग सहूलियत के हिसाब वसुधैव कुटुंबकम् की तरह कहां-कहां किया जाएगा? मैं समझता हूं कि बापू को बापू के स्वरूप में और महात्मा को महात्मा के स्वरूप में ही रहने दिया जाए, तो बेहतर हो।
जारी...

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

संसद में शूर्पणखा, तो फिर लक्ष्मण कौन? (विरासत के झरोखे से...भाग-चार)

विश्वत सेन

बुधवार यानी आठ फरवरी, 2018 को संसद बजट सत्र के पहले दिन दिए गए अभिभाषण पर चर्चा हो रही थी। लोकसभा में जो चर्चा हुई, उसे सुन देख नहीं पाया। राज्यसभा में हो रही चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात सुनने को मौका मिला। मौका क्या मिला, दफ्तर में था। दफ्तर में एक साथी हैं, जो खुद को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अनन्य अनुयायी मानते हैं। अपनी भावना प्रदर्शित करने के लिए वे भाजपा भक्त अथवा सरकार भक्त समाचार चैनल ही देखते हैं। पदेन वरिष्ठ हैं, तो उनके कामों में हस्तक्षेप करना मैं उचित नहीं समझता। बुधवार आठ फरवरी, 2018 को जब मैं दफ्तर पहुंचा, तो दूरदर्शन का समाचार चैनल ट्यून कर दिया गया। इस नाते मैं भी राज्यसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से पढ़ा जा चुटीला टाइप भाषण देखने सुनने लगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कार्यकाल के करीब चार साल की अवधि के दौरान खुद की सरकार द्वारा किये गये कार्यों की शुरुआत करने का श्रेय पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार और खासकर कांग्रेस को लेकर उन कार्यों को अमलीजामा पहनाने का श्रेय खुद पर या अपनी सरकार पर दे रहे थे। बीच-बीच में वे सुसभ्य भाषा और मजाकिया लहजे में कटाक्ष भी कर रहे थे। किसी-किसी बात पर विपक्ष और कांग्रेस के सदस्यों की ओर से कटाक्ष पर विरोध भी जताया जा रहा था। इसी बीच, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोई बात कही, मुझे ध्यान नहीं है, उस पर एक अट्टहास टाइप की हंसी सुनाई दी। इस हंसी पर सत्ता पक्ष के लोगों ने ऐतराज जाहिर किया। इस ऐतराज पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टिप्पणी की, "उन्हें हंस लेने दीजिए, रामायण के बाद पहली बार तो ऐसी हंसी सुनने को मिल रही है।"
प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी पर सभी ने गौर किया और आपस में चर्चा की कि रेणुका चौधरी को पीएम ने "शूर्पणखा" कहा है। शूर्पणखा मतलब राक्षसी? यानी रेणुका चौधरी की हंसी राक्षसी है या फिर रेणुका राक्षसी है? तमाम तरह की बातें होने लगीं। इसी बीच, देर शाम तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस टिप्पणी पर राजनीति में उबाल आ गया।
अब में सोचने लगा कि यदि प्रधानमंत्री ने कांग्रेस की एक सदस्या को शूर्पणखा यानी राक्षसी कहा है और वह भी भरी संसद में, तब तो उसी संसद में कोई न कोई "राम" और "लक्ष्मण" भी होंगे। अब राम कौन और लक्ष्मण कौन? यह बहुत बड़ा सवाल है। वह इसलिए कि संसद की सदस्यता ने पीएम के भाषण पर कटाक्षपूर्ण अट्टहास किया, यह निंदनीय, अशोभनीय, अमर्यादित और असंसदीय है, मगर प्रधानमंत्री के एक गरिमामय पद पर आसीन होने के नाते सभ्य भाषा में किसी को राक्षस या राक्षसी नहीं कहना चाहिए।
शूर्पणखा की चर्चा जब संसद और संसद से बाहर होने लगी, तब मैंने सोचा कि क्यों शूर्पणखा और राक्षस-राक्षसी को लेकर ज्ञानवर्धन कर लिया जाए। आचार्य चतुर सेन की पुस्तक "वयं रक्षाम:" पढ़ी थी, तो उन्होंने राक्षसों को वंश या कुल रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया है। संस्कृत के 'रक्ष' शब्द का अर्थ रक्षा करना होता है, जिसमें 'रक्ष, रक्षति, रक्षति...' करके धातुरूप और शब्द रूप भी है। इसके अलावा रक्षा संस्कृति भी है, जिसका वर्णन सनातनी ग्रंथों, पुरानों और शास्त्रों में भी है। मेरा मतलब यहीं पर आकर रुक जाने से नहीं था, मेरा मतलब गूढ़ता को जरा और धारण करने और फिर उसका सरलीकरण करने से था।
मेरा अभियान शुरू हुआ। पहले मैंने सोशल मीडिया के विद्वानों से सवाल दागा। शूर्पणखा के कितने नाम थे? इस सवाल का कारण यह था कि "रावण की बहन थी शूर्पणखा। शूर्पणखा दंडकारण्य निवासिनी थी। पंचवटी में उसने मर्यादा पुरुषोत्तम राम को देखा और वह उन पर मोहित हो गयी।" यहां इस कहानी को रोक रहा हूं और वह इसलिए कि रावण की बहन शूर्पणखा, सूर्पनखा, सुपनेखा या फिर स्वर्णनखा को शास्त्रकारों, कहानीकारों, उपन्यासकारों और देशज-विदेशज तमाम रचनाधर्मियों ने "राक्षसी" या "राक्षसनी" कहकर खलनायिका के रूप में पेश किया है, तो पहले हमें यह जान लेना जरूरी है कि "राक्षसी" या "राक्षसनी" कहते किसको हैं।
मेरे पास चौखंभा सुभारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित डा ब्रह्मानंद तिवारी द्वारा व्याख्यायित और अमर सिंह द्वारा रचित अमरकोश है। मैंने "राक्षसी" की परिभाषा वहां खोजना शुरू किया। इस पुस्तक के दूसरे कांड के चौथे वर्ग में 128वां श्लोक मिला। आप भी उस श्लोक से रूबरू होंगे, तो बेहतर होगा। यथासंभव इसका अन्वय के साथ अर्थ समझाने का प्रयास करूंगा। हो सकता है, मेरे अन्वय और भावार्थ में त्रुटि हो, क्योंकि अभी मैंने ढंग से हिंदी तो सीखी ही नहीं है, तो संस्कृत क्या खाक बांचूंगा। फिर भी...।
श्लोक:-
"कुणि: कच्छ: कांतलको नन्दिवृक्षोsथ राक्षसी।
चंबा धनहरी क्षेम-दुष्पत्र-गणहासका:।।"

अन्वय: 1
कुणि: कच्छ:= कुणिणक: अच्छ: स: कुणिकच्छ:। कुणिक:=सूर्यपुत्र भगवान शनि और अच्छ:=आंख।
अर्थात, सूर्यपुत्र भगवान शनि की आंख के समान आंख हो जिसकी।
सूर्यपुत्र शनि देव को कणिकाक्षी भी कहा जाता है।

अन्वय:2

कांतलको=कांत: कथयसि चंद्रमाश्च अलक: केशवारूणि। अर्थात चंद्रमा की तरफ बाल उठे हों जिसके।

अन्वय:3
नंदिवृक्षोथ=भगवान शंकर वाहन: नंदी अर्थात वृषभ: समान वृक्ष: अर्थात वक्ष: तथा ओष्ठ:
यानी बैल के समान वक्ष और ओंठ हों जिसके।
चंडा=विकराल
धनहरी=मेघ के समान काली
क्षेमदुष्पत्र=उत्पात मचाने वाला
गणहासका:= समूह में खड़े लोगों की हंसी के समान अकेला हंसने वाला या अट्टहास करने वाला।

भावार्थ

जिसकी आंखों से अंगारे बरसते हों, जिसके बाल आकाश की ओर उठे हों, चेहरा कुरूप एवं छाती बैलों जैसी हो, बदन विकराल हो, जो हमेशा उत्पात मचाने वाली हो; वह "राक्षसी" या "राक्षसनी" कहलाती है।

अब "राक्षसी शूर्पणखा ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप-गुण पर मोहित होकर प्रणय निवेदन किया, तो उन्होंने कहा-"मेरे पास मेरी भार्या सीता तो है, मगर लक्ष्मण अविवाहित है; तुम उसके पास जाओ। कामांध "राक्षसी" शूर्पणखा लक्ष्मण के पास गती और प्रणय निवेदन किया। लक्ष्मण ने फिर उसे रामजी के पास भेज दिया पुनश्च राम ने लक्ष्मण के पास। अंत में उसने लक्ष्मण से विवाह करने की जिद ठान ली, जिसपर लक्ष्मण ने उसका नाक काट दिया। इस घटना के बाद वह लंका गती और रावण से व्यथा बताती। रावण ने खर-दूषण को भेजा। आदि-आदि।"
~सोशल मीडिया विद्वान और महाज्ञानी गूगल महाराज के अनुसार।
अब सवाल यह पैदा होना स्वाभाविक है कि यदि कांग्रेस की सदस्या ने संसद में प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान अट्टहासी उपहास उड़ाने की वजह से "राक्षसी" हो सकती है, तो उन्हीं सत्तपक्षी या विपक्षी सदस्यों में से कोई न कोई तो राम और लक्ष्मण भी होगा?

नोट: यह लेख किसी राजनीतिक दुर्भावना, कटाक्ष या किसी आम या खास व्यक्ति की आलोचना के लिए नहीं लिखा गया है। यह महज मन में उपजे सवालों का जवाब ढूंढने का प्रयास भर है।

जारी.....


मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

'....अब आप अनंत कुमार से प्रादेशिक समाचार सुनिए' (विरासत के झरोखे से भाग-तीन)

विश्वत सेन

1980 के दशक बिहार (तब झारखंड राज्य नहीं बना था) विकास कर रहा था. शाम 7.30 बजे तली में सटे किरासन तेल से ऊर्जा लेकर मद्धम लालिमा वाले लौ के साथ लालटेन प्रकाशमान अंधेरों को चीरने का काम करता रहता. सर्दी, गर्मी और बरसात के थपेड़ों से जूझने वाले चिरायु लालटेन के इर्द-गिर्द लोग बैठे रहते. वे दिनभर के कामों से थके रहते. उधर, गौ माताएं पागुर पारतीं, भैंसें अपनी पूछों से रक्त पिपासु मच्छरों को भगाने का उपक्रम करतीं, मकड़ियां अपने ही बुने जाल से आजाद होने का प्रयास करतीं, फतींगे लालटेन के मद्धम प्रकाश के इर्द-गिर्द मंडराते रहते और छिपकलियां उन फतींगों को चट करने की फिराक में लगी रहतीं.
इस बीच, हम जैसे अबोध बच्चे चिरायु लालटेन मद्धम लालिमा लिये देदीप्यमान लालटेन के प्रकाश में किसी वीर की भांति गोल घेरे में चक्रव्यूहाकार बैठे रहते. इस दौरान हमारी आंखें पुस्तकों के अक्षरों के साथ युद्ध कर रही हाेतीं. उधर, खाट या फिर चौकी पर बाबूजी अपने सहकर्मी के साथ बैठे होते. सामने वाली चौकी पर बाबा और एक स्पेशल खाट पर दुखहरण पंडित जी. तभी रेडियो पर सुस्पष्ट बुलंद आवाज "ये आकाशवाणी का पटना केंद्र है. अब आप अनंत कुमार से प्रादेशिक समाचार सुनिए" उभरती.
इस आवाज के सुनते ही चिरायु लालटेन के पास चक्रव्यूहाकार बैठे अबोध बालकों, खाट-चौकी पर बैठे बड़े-बुजुर्गों, गौशालाओं की गाय-भैंसों, मकड़ियों और छिपकलियों के कान खड़े हो जाते. लगता, 'सभी इस आवाज की प्रतीक्षा कर रहे हाें.' सबका तात्कालिक कार्य-व्यवहार बंद हो जाता. रेडियो पर प्रसारित वाक्य के दो शब्द 'आकाशवाणी' और 'अनंत' मानो हमारी चेतना को अनंत शून्य में लेकर चला जाता. 'आकाशवाणी' शब्द सुनते ही लगता, 'अब अनंत आकाश में देवी-देवता, यक्ष-गंधर्व, किन्नर-किरीट सभी उपस्थित होंगे और आकाशवाणी होने वाली है-'देवव्रत, आज से तुम भीष्म कहलाओगे.' उस समय हमारे बाल मन के लिए आकाशवाणी का मतलब यही था.
पटना रेडियो स्टेशन के समाचार वाचक अनंत कुमार की बुलंद आवाज सुनकर यही प्रतीत होता, मानो इस आवाज में सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी एक कतार में खड़े हों. समाचार वाचक अनंत कुमार हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप कई तरीकों से विभिन्न समाचारों को पढ़ रहे होते. हम एकाग्रतापूर्वक उस दैवीय आवाज को सुनते. हमारी एकाग्रता तब भंग होती, जब 7.39 पर वे कहते, 'एक बार फिर से मुख्य समाचार सुनिए.' सबसे बड़ी बात यह होती, जिस दिन समाचार पढ़ने अनंत कुमार नहीं आते, लगता, 'आज हमने कुछ खो दिया है.' हालांकि, उनके स्थान पर श्री संजय बनर्जी को भेजा जाता, मगर मन में इस बात की कसक बनी रहती. संजय बनर्जी मुख्य रूप से क्रिकेट की कमेंट्री के लिए जाने जाते थे.
आवाज की सुपष्टता और बुलंदी अमीन चाचा यानी श्री अमीन सयानी और श्री अमिताभ बच्चन की आवाजों में भी देखने को मिलती है, मगर अनंत कुमार के आगे सारी आवाज आज भी फीकी लगती है. अनंत कुमार की उसी आवाज को सुनने की लालसा पिछले साल भी तब जगी, जब मैं पटना में स्थानांतरित कर दिया गया था. जिज्ञासा को शांत करने रेडियो स्टेशन पहुंचा, तो पता चला कि आकाशवाणी के पटना केंद्र के समाचार वाचक अनंत कुमार अनंत लोकवासी हो गये और जिस युग में वे समाचार वांचा करते थे; उस युग में रिकाॅर्डिंग की व्यवस्था नहीं थी. समाचार डाइरेक्ट टेलीकास्ट किया जाता था.
खैर, 1980 के ही दशक में दूरदर्शन के क्षेत्र में महान क्रांतिकारी हुई. इस दौरान रामानंद सागर की रामायण और बीआर चोपड़ा का महाभारत धार्मिक धारावाहिक आया. रामानंद सागर के रामायण ने टेलीविजन को लोकख्याति प्रदान की और बीआर चोपड़ा के महाभारत ने उसे घर-घर, झोपड़ी-मोहल्ले का वासी बना दिया. हिंदी समाचार जगत के क्षेत्र में अखबार और रेडियो के अलावा दूरदर्शन ने भी जगह बना ली थी, मगर उस पर सरकारी होने का ठप्पा लगा हुआ था.
दूरदर्शन समाचार के दर्शकों को सरकारी ठप्पे से आजाद कराने के ध्येय से श्री एसपी सिंह 'जनता के द्वारा, जनता के लिए' के सिद्धांत पर चौबीस घंटे का समाचार चौबीस मिनट के कार्यक्रम 'आजतक' के रूप में लेकर आए. इस कार्यक्रम का अलग तेवर-कलेवर था. दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित एफ-19 इनर सर्किल में इसका दफ्तर और स्टुडियो दोनों था. दर्शकों से मिल रहे रिजल्ट के बाद इसे दूरदर्शन से हटाकर पूरे 24 घंटे का खांटी निजी समाचार चैनल बना दिया गया.
हालांकि, इस दौर में हिंदी-अंग्रेजी के अन्य समाचार कार्यक्रम थे, मगर 24 मिनट से 24 घंटे का यह पहला प्रयोग था. इस प्रयोग के बाद जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मीडिया में 27 फीसदी विदेशी निवेश की छूट दी, तो 24 घंटे वाले निजी समाचार चैनलों की बाढ़ आ गयी. आज  1980 के दशक से लेकर 21वीं सदी के दूसरे दशक के उत्तरार्द्ध तक आलम यह हो गया है कि निजी चैनलों पर ही युद्ध लड़ा जाता है और इसी पर फैसले भी सुना दिए जाते हैं. आभासी और दूरदर्शन वाले इस मीडिया के दौर में मानो अनंत कुमार की वह देदीप्यमान आवाज कहीं गुम सी हो गयी है.


जारी....

फुलौरी बिन चटनी कैसे बनी (विरासत के झरोखे से...भाग-दो)

विश्वत सेन

'कैसे बनी, कैसे बनी; फुलौरी बिना चटनी कैसे बनी...'
1980 के दशक में भोजपुरिया फिल्म इंडस्ट्री अथवा भोजपुरिया बेल्ट में यह गाना बहुत अधिक प्रचलित हुआ noथा। इस गाने का मूल भाव ' बिना चटनी के फुलौरी कैसे बनेगी' था, जिसका दूसरा भाव उस समय के युवाओं और गीतकारों ने अपने अंदाज में पेश किया और स्वीकारा। दरअसल, भोजपुरी भाषा का यह गीत भारत के भोजपुरिया फिल्म इंडस्ट्री अथवा भोजपुरिया बेल्ट में काफी बाद में आया, जब कंचन और बाबला ने इसे 1983 में रिमेक गीत को गाया। इसके पहले इसे त्रिनिदाद में सुंदर पोपो ने गाया था। 1983 में कंचन और डाबला के इस गीत को तत्कालीन समाज में भोंडा माना जाता था। किसी शादी-समारोह या सार्वजनिक स्थल पर इसे बजाया जाता था, तो मां-बहनें चेहरे पर साड़ी का पल्लू रखकर मुंह छुपा लेती और गीत बजने वाले स्थान से बुदबुदाती-गरियाती हुई चुपके से चमककर रुखसत हो जातीं।
1980 के ही दशक में बंबइया फिल्म इंडस्ट्री में एक गाना 'दोनों जवानी के मस्ती में चूर, तेरा कुसूर न मेरा कुसूर, एक्सीडेंट हो गया रब्बा-रब्बा...।' यह गाना किस फिल्म का है, इसके अभिनेता कौन हैं और इसे किस सिचुएशन में फिल्माया गया, कहने की जरूरत नहीं। यह गीत भी उस जमाने के नौजवानों के रंगों में बहने वाले लहू में उबाल भर देता और वे नारियों के प्रति आसक्त हो जाते। इस गाने के बारे में भी तत्कालीन सभ्य समाज के लोगों में वही धारणा थी, जो 'कंचन और बाबला' के गाए गीत के प्रति थी। इस गीत को भी सार्वजनिक स्थल अथवा शादी-समारोह में बजाने के बाद औरतों की वहीं प्रतिक्रिया होती, जो 'फुलौरी बिना चटनी' को लेकर होती।
इन दोनों गीतों के प्रति सभ्य समाज के लोगों की इस तरह की अवधारणा इसलिए थी, क्योंकि हमारे समाज में उस समय इस तरह का भोंडापन या खुलापन नहीं था, जो उसे आसानी हजम कर सके। बाद के बरसों में फिल्मकारों ने अपनी-अपनी फिल्मों में ऐसा-ऐसा व्यंजन परोसा कि भाई लोग 1990 का दशक आते-आते रशियन टीवी के आदी हो गए। 21 सदी में तो पूछिए ही मत, कुकुरमुत्तों की तरह पोर्नोसाइट्स की बाढ़ ही आ गई। 21वीं सदी की शुरुआत से 2016 के सितंबर तक तो फिर भी यह साइबर कैफे, लैपटॉप और डेस्कटॉप तक ही सिमटा था, मगर दूरसंचार के क्षेत्र में तथाकथित तौर पर क्रांति लाने के लिए पेश किये गये 'जिओ' इसे हर घर के हर बिस्तर के नीचे, गली-कूचों, राह-बाट, स्कूल-कॉलेज, जहां हम आप सोच भी नहीं सकेंगे; वहां उतार कर रख दिया। दूरसंचार क्षेत्र की तथाकथित इस क्रांति ने भले ही कुछ नहीं दिया हो, मगर भारत के नौजवानों की किस्मत और हाथों में क्लीवता की डोर थमाने का काम जरूर किया। 1980 के दशक के जिस भारत देश में यहां की औरतें होंगे गानों के बोल सुनकर शर्म और नफ़रत से लाल हो जाया करती थीं, आज 21वीं सदी के दूसरे दशक के आते-आते उसी भारत में कैसा माहौल बदला है, यह भी कहने की जरूरत नहीं है।
1980 के ही दशक के दौरान भारतीय राजनीति में भी कई परिवर्तन देखे गए। आपातकाल और जेपी के आंदोलन से देश उबरा था। भारत में इंदिरा गांधी की सरकार थी। जनसंघ भारतीय जनता पार्टी बन चुका था। राजनीतिक स्वच्छता कायम करने को लेकर बहस और प्रयास जारी थे। राजनीतिक गलियारों में एक-दूसरे दल के लोगों द्वारा आरोप-प्रत्यारोप लगाते जाते, मगर भाषायी शुचिता और मर्यादा का भी ख्याल रखा जाता। 1990 के दशक में जब पूर्व प्रधानमंत्री मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की ओर से मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया गया और जनमोर्चा से टूटकर नये राजनीतिक दलों का अभ्युदय होने लगा, तो राजनीतिक गलियारे से भाषायी मर्यादा पर भी आघात होने लगा। लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक पटल पर अभ्युदय के बाद यह मर्यादा तार-तार हो गई। आज जब 21वीं सदी का दूसरा दशक आने को है, तो देश के राजनीतिक गलियारों में किस तरह की भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, वह कहने की जरूरत नहीं है। जैसे फिल्मकारों ने अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिए सामाजिक सोच को बदला, वैसे ही आज के राजनेताओं ने वोट की राजनीति करने के लिए देश की आबोहवा को बदल कर रख दिया। अब इसमें देश के नागरिकों को यह तय करना होगा कि इस बदले परिवेश में उन्हें क्या ग्रहण करना है और किसे त्यागना है। देश में हर जगह उत्पादों की भरमार है।

जारी....

लाजो न लागौ सजनवा तोरा

विश्वत सेन

लाजो न लागौ सजनवा तोरा, सब जनवा मोराबे हो।
जनवा मोराबे तू काहे सजन, मनवा भरमावै हो।
लाजो न लागौ सजनवा तोरा.....

चाह बेच चहबच्चा बनैलों, बचन बेच कै बागी;
आह बेच अलबत्ते कमैलों, बचे न कोई रागी;
अब्बो न जो तू संभरबे सजनवा, सब जनवा मोराबे हो;
लाजो न लागौ सजनवा तोरा....

गाय-माय नहिं हाय लेबै हे, आह भरै नहीं नानी;
धांय-धाय तुहि प्राण लेबै जो, स्याह भई है जवानी;
अब्बो न जो तू संभरबे सजनवा, सब जवना मोराबे हो;
लाजो न लागौ सजनवा तोरा...

भोट मिलौ नहिं चोट करे तू, घोंट-घोट मन खोट करै तू;
नोच-खसोट कै नोट भरै तू, लोटपोट तन सोंट करै तू;
अब्बो न जो तू संभरबे सजनवा, सनतवा मोराबे हो;
लाजो न लागौ सजनवा तोरा, सब जनवा मोराबे हो।


~घड़ियाल बाबू