विश्वत सेन
रामराज। समभावी एवं समग्राही अथवा सर्वग्राही शासन की परिकल्पना। शायद लोकतंत्र के सूत्रधारों ने यही सोचकर इस रामराज के शासकीय सिद्धांत को प्रतिपादित किया था कि इस समभावी सिद्धांत पर जनता की जरूरत के अनुरूप सुविधा उपलब्ध कराने के लिए माहौल तैयार किया जाए और शासन में समरूपता हो, ताकि जनता खुशहाल रहे। शायद यही लोकतंत्र की मर्यादा भी है।
यह शास्त्रोक्त और किंवदंती भी है कि दशरथ पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम चंद्र जी के राज्य में जनता खुशहाल थी। वह त्रेता युग था और तब राजतंत्र था। आम तौर पर यह माना जाता रहा है कि शासन के राजतंत्रात्मक प्रणाली में राजा चाहे कितना ही उदार क्यों न हो, मगर उसमें वर्चस्विता और एकात्मवादी भाव होता ही है। वर्चस्विता का भाव न केवल अपने पड़ोसी राज्यों के साथ होता है, बल्कि उसका असर जनजीवन पर भी पड़ता रहा है।
राजतंत्रात्मक शासकीय प्रणाली में राजा के द्वारा शासन चलाने के लिए कथित तौर पर मंत्रियों की नियुक्ति की तो जाती थी, मगर वे सभी राजेच्छा के विपरीत शायद ही कोई कदम उठाते। मंत्रीगण अपने पद को बचाते रखने की खातिर ठकुरसुहाती और चारण प्रथा का सहारा लेते। अधिकतर राजा चूंकि अपने राज़ प्रासादिक भोग-विलास में लिप्त रहते, इसलिए उन्हें राज्य वास्तविक वस्तुस्थिति का भान कम ही रहता। जनता की दशा-दिशा को लेकर जो माहौल ठकुरसुहाती करने वाले मंत्रियों द्वारा पेश किया जाता, राजा उसे अंतिम सत्य मानकर लेते। न मानने का कोई कारण न बनता, क्योंकि राज्य में सर्वत्र खुशहाली की ऐसी तस्वीर और उसके समर्थन में ऐसे साक्ष्य पेश किये जाते कि यकीन न करने का कोई कारण न बनता। बिरले राजा ऐसे होते, जो राज्य की वास्तविक वस्तुस्थिति को जानने के लिए जासूसी का सहारा लेते या फिर खुद यदा-कदा वेश बदलकर राज्य भ्रमण पर अज्ञातवास के नाम पर निकल जाते। इन राजाओं को वास्तविक वस्तुस्थिति का भान तो तब होता, जब दूर या पड़ोस का दुश्मन राज उन पर हमला करता या फिर राजविद्रोह के परिणामस्वरूप वे जबरिया अपदस्थ कर दिये जाते। कुछ राजा जो अतिमहत्वाकांक्षी होते, तो वे चक्रवर्ती बनने के लिए अपने द्वीप समूह के राजा-रजवाड़ों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर एकच्छत्र राज्य स्थापित करते। प्रत्येक राजा अपने हिसाब से खुद का चारणान करवाता या फिर आत्मकथा लिखवाता और अपनी ही मर्जी से जनता पर शासन करता।
न्याय और शासन व्यवस्था पूरी तरह से एक ही व्यक्ति के हाथों में होती। शासन के इस प्रणाली में राजा, उसके सगे-संबंधी, मंत्री और उसके सगे-संबंधी, व्यापारी और उसके सगे-संबंधी, विद्वान और उसके सगे-संबंधी, राज पुरोहित और उसके सगे-संबंधी तथा शासन के नजदीक रहने वाले और उसके सगे-संबंधियों में खुशहाली नजर तो आती, मगर आम जनता तब भी निरीह ही रहती।
राजतंत्रात्मक प्रणाली की यह गाथा अकेले भारतीय उपमहाद्वीप की नहीं है, बल्कि दुनिया के सात महाद्वीपों के देशों में थी। चाहे वह फ्रांस हो, रूस हो, ग्रेट ब्रिटेन हो या फिर कोई और देश; व्यक्तिवादी और वंशवादी निरंकुशता की वजह से कई देशों में राजद्रोह भी हुए और राजाओं को अपदस्थ कर नये राजा को गद्दी भी मिली, मगर राजकीय प्रमाद अक्सर निरंकुशता को जन्म दे ही देती।
यही वजह रही कि पूरी दुनिया में राजतंत्रात्मक प्रणाली विफल रही और फिर शासन की लोकतंत्रात्मक प्रणाली की परिकल्पना को मूर्त रूप दिया गया, जिसे दूसरे शब्दों में रामराज भी कह सकते हैं।
भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में एक है। वजह यह है कि इस देश पर करीब दो सौ सालों तक अंग्रेजी हुकूमत रहने के बाद आजादी देने की बात आई, तब इसे एक गणतांत्रिक देश बनाने के लिए दुनिया के कई देशों के कानून और संविधान को मिलाकर एक संविधान तैयार किया गया, ताकि यहां पर रामराज स्थापित किया जा सके। आजादी के आज सत्तर साल से अधिक हो गये, मगर रामराज का प्रतिबिंब अभी तक नजर नहीं आया है। हालांकि, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समय से लेकर आज तक राजनीतिक तौर पर इसकी चर्चा की तो जाती है, मगर यह जमीनी स्तर पर शासन से अभी कोसों दूर है।
क्रमशः जारी...
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रामराज। समभावी एवं समग्राही अथवा सर्वग्राही शासन की परिकल्पना। शायद लोकतंत्र के सूत्रधारों ने यही सोचकर इस रामराज के शासकीय सिद्धांत को प्रतिपादित किया था कि इस समभावी सिद्धांत पर जनता की जरूरत के अनुरूप सुविधा उपलब्ध कराने के लिए माहौल तैयार किया जाए और शासन में समरूपता हो, ताकि जनता खुशहाल रहे। शायद यही लोकतंत्र की मर्यादा भी है।
यह शास्त्रोक्त और किंवदंती भी है कि दशरथ पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम चंद्र जी के राज्य में जनता खुशहाल थी। वह त्रेता युग था और तब राजतंत्र था। आम तौर पर यह माना जाता रहा है कि शासन के राजतंत्रात्मक प्रणाली में राजा चाहे कितना ही उदार क्यों न हो, मगर उसमें वर्चस्विता और एकात्मवादी भाव होता ही है। वर्चस्विता का भाव न केवल अपने पड़ोसी राज्यों के साथ होता है, बल्कि उसका असर जनजीवन पर भी पड़ता रहा है।
राजतंत्रात्मक शासकीय प्रणाली में राजा के द्वारा शासन चलाने के लिए कथित तौर पर मंत्रियों की नियुक्ति की तो जाती थी, मगर वे सभी राजेच्छा के विपरीत शायद ही कोई कदम उठाते। मंत्रीगण अपने पद को बचाते रखने की खातिर ठकुरसुहाती और चारण प्रथा का सहारा लेते। अधिकतर राजा चूंकि अपने राज़ प्रासादिक भोग-विलास में लिप्त रहते, इसलिए उन्हें राज्य वास्तविक वस्तुस्थिति का भान कम ही रहता। जनता की दशा-दिशा को लेकर जो माहौल ठकुरसुहाती करने वाले मंत्रियों द्वारा पेश किया जाता, राजा उसे अंतिम सत्य मानकर लेते। न मानने का कोई कारण न बनता, क्योंकि राज्य में सर्वत्र खुशहाली की ऐसी तस्वीर और उसके समर्थन में ऐसे साक्ष्य पेश किये जाते कि यकीन न करने का कोई कारण न बनता। बिरले राजा ऐसे होते, जो राज्य की वास्तविक वस्तुस्थिति को जानने के लिए जासूसी का सहारा लेते या फिर खुद यदा-कदा वेश बदलकर राज्य भ्रमण पर अज्ञातवास के नाम पर निकल जाते। इन राजाओं को वास्तविक वस्तुस्थिति का भान तो तब होता, जब दूर या पड़ोस का दुश्मन राज उन पर हमला करता या फिर राजविद्रोह के परिणामस्वरूप वे जबरिया अपदस्थ कर दिये जाते। कुछ राजा जो अतिमहत्वाकांक्षी होते, तो वे चक्रवर्ती बनने के लिए अपने द्वीप समूह के राजा-रजवाड़ों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर एकच्छत्र राज्य स्थापित करते। प्रत्येक राजा अपने हिसाब से खुद का चारणान करवाता या फिर आत्मकथा लिखवाता और अपनी ही मर्जी से जनता पर शासन करता।
न्याय और शासन व्यवस्था पूरी तरह से एक ही व्यक्ति के हाथों में होती। शासन के इस प्रणाली में राजा, उसके सगे-संबंधी, मंत्री और उसके सगे-संबंधी, व्यापारी और उसके सगे-संबंधी, विद्वान और उसके सगे-संबंधी, राज पुरोहित और उसके सगे-संबंधी तथा शासन के नजदीक रहने वाले और उसके सगे-संबंधियों में खुशहाली नजर तो आती, मगर आम जनता तब भी निरीह ही रहती।
राजतंत्रात्मक प्रणाली की यह गाथा अकेले भारतीय उपमहाद्वीप की नहीं है, बल्कि दुनिया के सात महाद्वीपों के देशों में थी। चाहे वह फ्रांस हो, रूस हो, ग्रेट ब्रिटेन हो या फिर कोई और देश; व्यक्तिवादी और वंशवादी निरंकुशता की वजह से कई देशों में राजद्रोह भी हुए और राजाओं को अपदस्थ कर नये राजा को गद्दी भी मिली, मगर राजकीय प्रमाद अक्सर निरंकुशता को जन्म दे ही देती।
यही वजह रही कि पूरी दुनिया में राजतंत्रात्मक प्रणाली विफल रही और फिर शासन की लोकतंत्रात्मक प्रणाली की परिकल्पना को मूर्त रूप दिया गया, जिसे दूसरे शब्दों में रामराज भी कह सकते हैं।
भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में एक है। वजह यह है कि इस देश पर करीब दो सौ सालों तक अंग्रेजी हुकूमत रहने के बाद आजादी देने की बात आई, तब इसे एक गणतांत्रिक देश बनाने के लिए दुनिया के कई देशों के कानून और संविधान को मिलाकर एक संविधान तैयार किया गया, ताकि यहां पर रामराज स्थापित किया जा सके। आजादी के आज सत्तर साल से अधिक हो गये, मगर रामराज का प्रतिबिंब अभी तक नजर नहीं आया है। हालांकि, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समय से लेकर आज तक राजनीतिक तौर पर इसकी चर्चा की तो जाती है, मगर यह जमीनी स्तर पर शासन से अभी कोसों दूर है।
क्रमशः जारी...
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