बुधवार, 7 मई 2014

सुख के दिन न आये रे भैया, विपद के दिन आयो रे

विश्वत सेन

भारत की आधुनिक पत्रकारिता की एक बड़ी विडंबना है। देश में उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण अखबारों और मीडिया घरों की आमदनी बढ़ने के साथ ही संपादकों और प्रबंधन के लोगों की आय में बढ़ोतरी तो हुई, लेकिन निचले स्तर के पत्रकार और अन्य कर्मचारियों को अब भी औने-पौने वेतन पर ही काम करना पड़ रहा है। देश की सरकार ही नहीं, बल्कि मीडिया घराना भी अब बिना अदालती डंडा बरसाये अपने कर्मचारियों को आर्थिक लाभ देना नहीं चाहते। नौबत यहां तक पहुंच गयी है कि श्रमिक पत्रकारों की वेतन बढ़ोतरी के अदालती आदेश आने के बाद भी अखबारों के मालिक और मीडिया घराना अवमानना करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। 

देश के लाखों पत्रकारों की माली हालत सुधारने के लिए जीएस मजीठिया की अध्यक्षता में गठित आयोग ने वर्ष 2011 में सरकार से सिफारिश की। मजीठिया आयोग की सिफारिश के आधार पर सरकार ने अधिसूचना जारी कर दी। इस अधिसूचना के विरोध में देश के बड़े मीडिया घरानों ने सुप्रीम कोर्ट की शरण गही. सुप्रीम कोर्ट ने इन मीडिया घरानों को फटकारते हुए अप्रैल के अंत तक मजीठिया आयोग की सिफारिशों के आधार पर अखबारों में वेजबोर्ड गठित कर वेतन बढ़ोतरी और 2011 से एरियर का लाभ देने की हिदायत दी। 

अदालत की ओर से कहा यह गया था कि सात मई, 2014 तक देश के अखबारों की ओर से पत्रकारों के खातों में बढ़े हुए वेतन के साथ एरियर की पहली भेज देनी चाहिए। आज सात मई समाप्त होने को है, मगर देश के अखबारों में टाइम्स ऑफ इंडिया, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, द हिंदू, आनंद बाजार पत्रिका आदि को छोड़ कर बाकी हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा, रांची एक्सप्रेस, प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, आज, देश बंधु, चौथी दुनिया, महानगर टाइटम्स, नवभारत, दबंग दुनिया सहित कई छोटे-बड़े अखबारों ने न तो वेजबोर्ड का गठन किया और न ही पत्रकारों और अपने कर्मचारियों को बढ़ा हुआ वेतन ही दिया। स्थिति यह है कि कई अखबारों ने तो अपने कर्मचारियों को अप्रैल महीने में मिलने वाला इन्क्रीमेंट भी नहीं दिया है। 

वहीं दूसरी ओर, जिन अखबारों ने तथाकथित तौर पर मजीठिया आयोग की सिफारिशों के आधार पर लाभ देने का ऐलान किया है, उनमें से ज्यादातर लोगों ने अप्रैल माह के इन्क्रीमेंट को ही मजीठिया का लाभ बता दिया है। नवभारत टाइम्स में तो कॉन्ट्रैक्चुअल पत्रकारों को मजीठिया की श्रेणी में भी शामिल नहीं किया गया है। 

यह पहला मौका नहीं है, जब देश के पत्रकारों के वेतन तय करने के लिए सरकार की ओर से आयोग का गठन किया गया है। मजीठिया आयोग के पहले देश की सरकारों ने पत्रकारों के वेतन तय करने के लिए पालेकर आयोग, बछावत आयोग, मणिसाणा आयोग का भी गठन किया था। इसके पहले वर्किग जर्नलिस्ट एक्ट-1955 बनाया गया और इससे भी पहले औद्योगिक विकस अधिनियम संसद से पास किया गया। 

गौर करने वाली बात यह भी है कि जब-जब सरकार की ओर से पत्रकारों का वेतन तय करने के लिए आयोग का गठन किया गया, देश के अखबारों के मालिकों और उसके नीति-निर्धारक तत्वों ने ऐतराज जाहिर किया।यहां तक कि ज्यादातर अखबारों के मालिकों ने सरकारी और अदालती आदेशों की नाफरमानी ही की। हां, यह बात दीगर है कि अखबारों के मालिकों को अपने संपादकों और प्रबंधकों को लाखों रुपये वेतन देने में ऐतराज नहीं है। वहीं, जब निचले स्तर के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि की बात आती है, तो उनकी मरी हुई नानी दोबारा मर जाती है। 

यह जानकर हैरानी होती है कि देश के कई अखबारों के संपादकों की तनख्वाह हजारों में नहीं, बल्कि लाखों में है। उनके सुख-सुविधा पर कंपनी की ओर से भारी-भरकम रकम खर्च की जाती है, वो अलग से। जितनी तख्वाह एक संपादक को दी जाती है, उतने में कम से कम 50 से भी ज्यादा निचले स्तर के कर्मचारी 25-50 हजार मासिक वेतन के आधार पर रखे जा सकते हैं।

दूसरी बात यह भी है कि अखबारों के मालिकों को निचले स्तर के पत्रकारों और कर्मचारियों को वेतन बढ़ाने में तब दिक्कत हो रही है, जबकि उन्हें कागज कोटे में रियायती दरों पर मिलता है। छपाई के लिए स्याही से लेकर प्रिंटर तक कोटा ही कोटा है। यहां तक कि सरकार की ओर से विज्ञापन भी कोर्ट में भरपूर दिया जाता है। फिर भी अखबारों के मालिकों को उसका लाभांश अपने कर्मचारियों में वितरित करने में हिचक हो रही है। 

इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि अपनी ही बिरादरी का आदमी, जो कभी रिपोर्टर, उप संपादक और समाचार संपादक था, आज संपादक बनने के बाद अपने ही लोगों का खून चूसने के लिए तरह-तरह का तिलिस्म रचता है। इसे संपादकों और मालिकों की सामंती सोच नहीं कहेंगे, तो और कया कहेंगे। 

विडंबना यह भी है कि जब देश में महिलाएं दलित, अल्पसंख्यक और अन्य दूसरे समुदाय के लोग समस्याग्रस्त होते हैं, तब यहां की राजनेता अपनी राजनीति चमकाने लगते हैं। आज देश का चौथा स्तंभ और देश-समाज के लोगों की समस्याओं को सरकारों के सामने उजागर करने वाले ही वर्षो से समस्याग्रस्त हैं। फिर देश का कोई राजनेता अथवा संस्था, यहां तक कि खुद पत्रकारों की हितैषिणी संस्थाएं उनका साथ देने को तैयार नहीं है। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि पत्रकारों की सबसे बड़ी संस्था प्रेस क्लब ऑफ इंडिया भी देश के श्रमिक पत्रकारों को मजीठिया का लाभ दिलाने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा रहा है। 

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