मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

यह तप की या तपिश की है लाली

विश्वत सेन

हमरे बदरू मियां एक फूल की टहाटह लाली को देखकर काफी बेचैन हैं। उनका पेट गुड़गुड़ा रहा है, अपच हो रहा है और वाक्यबमन तक की स्थिति बन गयी है. लेकिन वह इस टहाटह लाली की बात कहें, तो किससे? यह एक बहुत बड़ा सवाल था। अली भाई विदेश गमन पर थे, हरिया, होरी और कमली अपने-अपने कामों में व्यस्त थे और नरहरी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। स्वभाव से बदरू मियां पुरातन युग के देवताओं के संवदरिया नारद मुनि के अनुयायी, सृष्टि के पहले टंकक और सभी देवताओं में सबसे आगे पूजे जाने वाले भगवान श्री गणोश और विद्या की अधिष्ठात्री देवी मां शारदे के साधक रहे हैं। नारद मुनि के अनुयायी होने के नाते उनके पटे में औरतों की तरह बात पचती नहीं है और यही गुणावगुण उन्हें परेशान किये हुए है।

कई दिनों के इंतजार के बाद अली भाई की स्वदेश वापसी हुई। जैसे ही उन पर बदरू मियां की नजर पड़ी, भूखे भेड़िये की तरह बदरू मियां उन पर झपट पड़े। अली भाई को देखते ही चिल्लाने लगे-‘अरे, भइवा हो, भइवा। एतना दिन कहां रहे। न कोई संदेश, न कोई खोज खबर।’

अली भाई चूंकि बदरू मियां के पैजामी यार थे, इसलिए वे फटाक से समझ गये कि वे क्यों हाल-चाल पूछ रहे हैं। उन्होंने कहा-‘पेट गुड़गुड़ा रहा है क्या?’ बदरू-‘अरे भई, तुम भी पक्के लाल बुझक्कड़ ही हो।’ उन्होंने आगे कहा-‘भाई का बतायें। इस गर्मी में हमने टहाटह लाल आठ पंखुड़ियों वाले खिले हुए एक फूल को देखा है।’
अली भाई-‘तो! इसमें आश्चर्य की कौन सी बात हो गयी? हमरे यहां तो किसिम-किसिम के फूल हर मौसम में खिलते ही रहते हैं।’

बदरू-‘अरे भाई, तुम निरा निठल्ले के निठल्ले ही रहोगे। हम जिस फूल की बात कर रहे हैं, वह गर्मी के मौसम में खिला है। जबकि आम तौर पर गर्मी के मौसम में धूप की तपिश से पृथ्वी की हरियाली झुलस जाती है। फिर यह टहाटह लाल फूल कहां से आया?’ उन्होंने आगे कहा-‘भाई, सोचने वाली बात यह नहीं है कि वह गर्मी के दिन में खिला है। सवाल यह है कि उसकी यह लाली किसी तप की लाली है, धूप से निकली तपिश की लाली है या फिर प्राकृतिक लाली है?’
बदरू मियां की यह बात सुनकर अली भाई का दिमाग चकराया। उन्होंने झल्लाते हुए कहा-‘मियां, तुम हिंदी की छायावादी विधा में वास्तविक बात को छिपाकर व्यंजना में बात करना बंद करो। जो भी कहना है साफ-साफ कहो।’

बात की गाड़ी पटरी से उतरते देख बदरू मियां ने पाला बदला। बॉलीवुड के अभिनेता जीवन के कुटिल अदा वाले अंदाज में उन्होंने समझाते हुए कहा-‘देखो भाई, इस समय चुनाव के साथ ही गर्मी का भी मौसम है। इस मौसम में पूरे देश में एक ही फूल टहाटह लाल है। इस लाली में उसकी तप की, प्रकृति की, धूपिया तपिश या फिर किसी तीसरी शक्ति की लाली समायी हुई है।’

अली भाई उनके कथनों के निहितार्थ को समझ गये। उन्होंने समझाते हुए लहजे में कहा-‘बदरू मियां, वस्तुत: इसमें आपने जितने प्रकार की लाली की बात कही, उन सभी का इसमें सम्मिश्रण है।’ उन्होंने कहा-‘इस प्रतीकात्मक फूल की लाली को बरकरार रखने, राजयोगी कुंडली बनाने और राजपद प्रदान कराने के लिए कई सालों से तप कोई और कर रहा है। तप करने वालों की मंडली में लाखों लोग शामिल हैं और उनके तप का यशबल इसे लगातार प्राप्त हो रहा है। इसलिए यह खुद के नहीं, दूसरे के तप बल से लाल है।’

अली भाई अपनी बात जारी रखते हुए बोले-‘इसे हम दूसरे शब्दों में उधारी तप की लाली भी कह सकते हैं। मान लीजिए कि पुराने जमाने में हमारे यहां ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वनों में आश्रम बनाकर तप करते और करवाते थे। इसके साथ ही, अपने शिष्यों को गार्हस्थ जीवन से लेकर सृष्टि के तमाम नियम-कानूनों का अध्ययन भी कराते थे। वैसे ही कलियुग में एक संस्था है, जो ऋषि-मुनियों सरीखा ब्रह्मज्ञान रखने वाला तप कर रहा है और उसके शिष्य अविवाहित रहते हुए राजमार्ग पर आगे बढ़ जाते हैं।’

बीच में टोकते हुए बदरू मियां ने कहा-‘यह बात तो ठीक है और हम समझ भी गये। लेकिन और दूसरी लाली?’

इस सवाल के जवाब में अली भाई ने कहा-‘देश-दुनिया में रहने के कारण प्राकृतिक रंग तो उसमें होगा ही और धूप की तपिश भी उसके ऊपर पड़ना तय है। इसलिए यह दोनों प्रकार की लाली भी संभव है। लेकिन एक बात और जान लो। तुम जिस लाली की बात कर रहे हो, वह बल का प्रतीक है और राजपद सिर्फ बल से ही प्राप्त नहीं होता। इसके लिए हरियाली, प्रगति, विकास, सच्चई, बल, कल और छल की भी दरकार होती है। इसीलिए बारंबार प्रयास करने के बाद भी इस फूल को लाली प्रदान करने वाले और उसके दूसरे धड़े को सालों से राजपद नहीं मिल पा रहा है। इसकी वजह यह है कि जो तप कर रहा है, उसने राजपद पाने के लिए एक दूसरा धड़ा भी तैयार किया है, जो उसका राजनीतिक मुखौटा है। तपी और मुखौटा दोनों राजनीति के बाकी अंगों को छोड़कर सिर्फ बलवती विधा को ही अपना रहे हैं। देश को अक्षुण्ण और अखंड बनाने के नाम पर देश को खंडित करने का काम कर रहे हैं। तपी जो दिशा-निर्देश जारी करता है, मुखौटा उसका अनुपालन नहीं करता है और सबसे अहम बात यह कि तपी भी वहमी और अहमी है। वह भी बल का पुजारी है। वह भी भारत के वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत को तोड़कर किसी संप्रदाय और धर्म विशेष को लेकर ही चल रहा है। इसलिए उसे राजपद पाने में सफलता नहीं मिल रही है। हालांकि गलती से एक बार कुछ सालों के राज सिंहासन पर आरूढ़ हुआ था, लेकिन सत्ता पर आसीन होते ही तपी और मुखौटे में घमंड आ गया। इसलिए उसे लोगों ने पसंद करना ही छोड़ दिया।’

अली भाई का भाषण सुनने के बाद बदरू मियां ने एक अच्छे शिष्य की तरह सवाल किया। बोले-‘तो फूल को राजपद कैसे मिलेगा?’

अली भाई बोले-‘तपी और मुखौटा दोनों को सोच बदलनी होगी। काम करने का ढर्रा बदलना होगा और रूढ़िवादी सोच को त्यागकर सर्वजनहिताय, सर्वजन सुखाय की नीति का अनुसरण करने के साथ ही वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत का अनुपालन करना होगा। तभी इस प्रजातांत्रिक देश में उसे राजपद मिलेगा। यदि उसने ऐसा नहीं किया, तो उसे जब तक इस देश में लोकतंत्र रहेगा, तब तक राजपद नहीं मिलेगा।’

रविवार, 27 अप्रैल 2014

यह विकास नहीं, विनाश लीला है

विश्वत सेन

हमरे बदरू मियां की कुंभकर्णी नींद टूटी तो वे बौखला गये. बौखलाहट में घरैतिन को भला-बुरा कहा, बच्चों को लपड़बताशा खिलाया और मेमनों पर डंडों की बारिश करायी. उनकी इस हरकत से सभी भौंचक थे. किसी को यह पता नहीं चल रहा था कि आखिर ये मेहरबानी किस बात की? हिम्मत करके घरैतिन ने मेहरबानी का सबब पूछा, तो वे बिफर पड़े. उन्होंने कहा-‘गर्मी से मेरी नींद खुल गयी. आनेवाले समय में लाखों-करोड़ों का नुकसान होने जा रहा है. आसमानी गर्मी, राजनैतिक गर्मी और बातूनी गर्मी से चुनावी सरगर्मी की तपिश बढ़ गयी है. इसका तो तुम लोगों को अंदाजा ही नहीं है.’
घरैतिन ने दोगुने गुस्से में कहा-‘सत्यानाश हो तुम्हारी नींद का. तुम्हें गर्मी सता रही है और तुम हमें. ऐसी कमाई को लुटेरे लूट ले जायें, तो अच्छा. मैं सत्ता की सीढ़ी पर चढ़कर सोनम्मा को मोदीचूर का लड्डू चढ़ाऊंगी.’
घरैतिन की कुटीली बात सुनकर बदरू मियां का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया. उन्होंने बघिया चिग्घाड़ लेते हुए कहा-‘तुम्हें क्या पता है कि इस समर में गर्मी पैदा करने के लिए हजारों करोड़ रुपये दांव पर लगे हैं और तुम हो कि बस.’ घरैतिन ने उनसे भी दोगुने शेरनी दहाड़ में जवाब देते हुए कहा-‘इन हजारों करोड़ रुपये से मेरा क्या? मेरे लिए तो सोनम्मा ही बेहतर है. तुम्हारे लिए यह चुनावी सरगर्मी की तपिश मजेदार होगी. लोग जितना ज्यादा तड़पेंगे, तुम्हें उतना ही मजा आयेगा. मगर घर का चुल्हा-चौका गर्मी या फिर ख्याली पुलावों से नहीं चलता. चुल्हा-चौका खाद्यान्नों, घर की आमदनी और आपसी प्रेम से चलता है. तुम लोगों ने आज तक किया ही क्या है? सिवाय देश को कभी जाति के नाम पर, कभी धर्म और संप्रदाय के नाम पर, कभी आरक्षण के नाम तो कभी रामजी की पुलिया के नाम पर तोड़ने के. तुम अपने दामन के दाग को कभी नहीं देखते, मगर विरोधियों के बिस्तर पर पड़े सिकन को झांकने में न तो शर्म आती है और न ही जमीर धिक्कारता है.’
घरैतिन की दलील के आगे बदरू थोड़ा नरम पड़े, पर गरमी नहीं छोड़ी. बोले-‘तुम्हें क्या पता कि बाहर इस गर्मी से कितना कोलाहल मचा है.’ तपाक से घरैतिन ने जवाब देते हुए कहा-‘हां, मुङो तो यह भी पता है कि इस कोलाहल में इक शांति भी है. यह शांति तूफान आने के की शांति है. मगर ध्यान रखना इस तूफान से आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, मानसिक और पारिवारिक विनाश ही होगा. यह विकास लीला नहीं, विनाश लीला है, जो देश-समाज को गर्त में ढकेलेगा. भाई को भाई से, परिवार को परिवार से, जाति को जाति से और धर्म से धर्म को तोड़ेगी.’