शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

:::सुगंधा:::

"प्रहर्षिणी" छंद की कविता
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:::सुगंधा:::

उत्तप्त अधर अधीर हो रहा था,
पीने को जहर सुधीर हो रहा था।
ढाया जो कहर अमीर हो रहा था,
सारा ये शहर जमीर खो रहा था।।

कौमारी बदन यहां रही सुगंधा,
जोरों से रुदन करे वही सुगंधा।
आंखों से नित बहती निर्मल गंगा,
बातों से इक कहती कथा सुगंधा।।

प्रेमी की बनकर प्रेयसी सजी वो,
फूलों की सजकर सेज सी बिछी वो।
हंसा की बनकर हंसिनी रही वो,
हो प्रेमातुर तब संगिनी बनी वो।।

मार्ग प्रेम पर रती रती चली थी,
रातों में बनकर रोशनी जली थी।
पात्रों में बन मदगंध सी ढली थी,
बागों में इक मकरंद की कली थी।।

उत्तप्त अधर अधीर हो रहा था,
पीने को मदिर अचीर हो रहा था।
दो तंगी शिखर उतंग हो रहा था,
दो प्रेमी युगल निशंक हो रहा था।।

ज्वाला सा तन दहका जरूर ही था,
शोला भी इक भड़का समीर से था।
नीड़ों में तन उसका लुका-छिपा था,
फूलों से मन बहका खिला खिला था।।

बागों से मलयज को जरा चुराती,
पेड़ों के किसलय से सुरा बनाती।
प्राणों के प्रियतम को वही पिलाती,
सांसों में तब खुद को रही बसाती।।

प्राणों में वह जिसको रही बसाती,
बातों में वह उसको रखा फसादी।
सोची थी वह उससे रचाय शादी,
भागा था, तब डरके वही कुघाती।।

घातों के इस दुख से दुखी जवानी,
सालों से इस जग को कहे कहानी।
रातों में वह सबको कहे रवानी,
आंखों से सब उसको कहें जुबानी।।

रातों में इक दिन आ गया कुमारा,
दूजा था, पर वह था नहीं अवारा।
आते ही वह उससे मिला बिचारा,
बातों से दिल उसका भरा दुबारा।।

पायी जो सरसिज श्याम कोमलांगी,
लाली पाकर फिर वो खिला विभांडी।
माया सी जब कहने लगी शुभांगी,
जाया सी तब रहने लगी विभांगी।।

प्राणों के प्रियतम की हुई सुगंधा,
रातों के अब तम से गई सुगंधा।
आंखों से अब उसके बहे न गंगा,
जानूं के घर अपने बसी सुगंधा।।

नोट: यह कविता पिंगल शास्त्र में वर्णित प्रहर्षिणी छंद में रची गई है।
प्रहर्षिणी छंद का स्वरूप है:-

‘‘उत्तुंग, स्तन कलश द्वयोन्नतांगी,
लोलाक्षी, विपुल नितंब शालिनी च।
बिम्बोष्ठी, नर-वर मुष्टि-मेय-मध्या,
सा नारी, भवतु मन: प्रहर्षिणी ते।।’’

-विश्वत सेन
अप्रैल पांच, 2013