बुधवार, 20 मार्च 2013

करुणाकर

वल्कलधारी गंगधर सदा करें कल्याण।
पलपल तारें अंकधर सदाशिव भगवान।।

गरल अमित सम समझ के किए कंठ विषपान।
सरल सुधा सम जगत में जनमें सरल सुजान।।

हिमधर्म धर उठ उतंग जस फैला हिमालय।
मनधर्म धर उठ उतंग बन शैल करुणालय।।

हरित धर्म धर हरितवन हरित करे संसार।
सरिस धर्म धर हरित मन संकट हरें अपार।।

चौपाई:-
जन जड़मति मत करहु निधाना। हरहु कुमति देहु विज्ञाना।।
एहि छन वर देहु भगवाना। धन संपति बढ़े निधाना।।

मन संतोष दिवस नहि यामा। बिनु संपति बिगड़ै कामा।
मलिन मलेच्छ कहे सब तबहि। मनई हेठ दिखे तब जबहि।।

बिनु संपति नहि होय उद्योगा। बिनु संपति लगै नहि भोगा।।
जनि जड़मति करे ढिठाई। जानबूझ हंसे ठठाई।।

बोलई बात अति खिसियानी। बिनु बातहि बात लड़ानी।।
धरम कमर कर करूं उद्योगा। धन धार बनै नहि योगा।।

दली कपटी रहइ निज संगा। चहकि दहकि मरदइ अंगा।।
तट तड़ाग सोचूं तब बाता। दीन दिवस दिखावे दाता।।

ऐसा कर मन रचे विधाता। करम सो न बढ़े अख्याता।।
शतकोटि जनी मानस होई। विंश कोटि जनि अरु सोई।।

पंचकोटि धरनी पर बालक। अधकोटि बनै कुलघालक।।
अधकोटि तहि चमकै अकासा। पर उपकार करै परकासा।।

शतकोटि कृषक तहि भयऊ। धर धरणि लिपट जहि गयऊ।।
दश कोटि भए वाणिज्य वणिक। समकोटि करे राज अधिक।।

द्वादश कोटि मन के मालिक। जिन चरणन बरसे माणिक।।
शतकोटि जेहि करे किसानी। ताहि समान मोहि जानी।।

जिनके ढिग बैठे नहि कोई। लगे मलेच्छ जस कोई।।
दुरवासा सम करे आचरण। निज को सभ्य कहे जो जन।।

रक्त रुधिर सम बहे शरीरा। सभ्य समाज भेदै गिरा।।
अरथ न कामहि सम बटवारा। समरथ सब लगावे पारा।।

सकल जगत फैली खुदगजी। सब मिल करई मनमरजी।।
भोलेनाथ सुनौं मम बानी। शीघ्र उठाहु अब पानी।।

जन-जन के दुख हरौं पुरंदर। जगत के कल्याण सुंदर।।
सम समाज सुंदर करौं शंकर। जगत पिता हे जगदीश्वर।।

दोहा:-
मनुज बन करहु मनुज के अबहिं रक्षा भरतार।
मनुज बनवाहु दनुज के करुणाकर करतार।।

-विश्वत सेन
मार्च 20, 2013

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