शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

क्यों छेड़ा बगावती राग?

विश्वत सेन
स्वाधीनता संग्राम के दौरान राजनेता और आजादी के दीवाने यह कहते पाए जाते थे, ‘ये देश है वीर जवानों का, अलोलों का, मस्तानों का/ इस देश का यारों क्या कहना/ ये देश है दुनिया का गहना।’ समय बदला, शासन बदला, सरकारें बदली और बदल गई आजादी के दीवानों की परिभाषा। आजादी के दीवानों की महत्वाकांक्षा स्वाधीनता से जुड़ी थी। बदले परिवेश और परिभाषा में 21वीं सदी के आजाद भारत में लोगों की महत्वाकांक्षाएं राजनीतिक चाहत के रूप में बलवती होती चली गईं।  बलवती होती महत्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाने के लिए हथियार बना गांधीजी के आंदोलन, अनशन और हड़ताल रूपी अस्त्र।
बापू यानि मोहनदास करमचंद गांधी। देश से अंग्रेजों को बाहर का रास्ता दिखानेवाला हाड़-मांस का पुतला। 20वीं सदी के "भारत" में उन्होंने जिन हथियारों का इस्तेमाल किया 21वीं सदी के "इंडिया" में वही हथियार राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने वाला एटम बम बन गया। घर की दहलीज से लेकर संसद भवन तक अनशन, आंदोलन और हड़ताल। बापू का हथियार देश के लिए नासूर और भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने वाला अमोघ अस्त्र बन गया। खासकर राजनीति के मैदान में लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का राजनेताओं और स्वार्थी लोगों के पास अन्य कोई दूसरा तरीका ही नहीं है।
वर्ष 1975 से 77 तक इमरजेंसी के काल में बापू के हथियारों का देश में शायद पहली बार व्यापक तरीके से किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया गया। जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में देश की सत्ता परिवर्तन करने के उद्देश्य से छेड़ा गया सबसे बड़ा आंदोलन। इस आंदोलन (जेपी आंदोलन) की परिणति क्या हुई, प्राय: देश का हर नागरिक जानता है। इस आंदोलन ने देश में कई राजनीतिक सूरमा भी पैदा किए। वे इस समय सत्ता शिखर पर पहुंचकर जेपी का कम और खुद का नाम ज्यादा रोशन कर रहे हैं। तब जेपी का यह आंदोलन "मील का पत्थर" साबित हुआ था। इसकी तात्कालिक सफलता तब के युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी। इस आंदोलन के पहले और उसके बाद देश के विभिन्न हिस्सों में भिन्न-भिन्न मांगों को आंदोलन होते रहे, लेकिन राजनीति के फलक पर उनकी चमक फीकी रही। 20वीं सदी के इस आंदोलन को देशवासियों का अपार समर्थन मिला। उसके साथ भावनाएं जुड़ीं। भावनाएं भड़कीं और उससे खिलवाड़ भी किया गया, मगर उस आंदोलन के प्रणेता तब  तक मैदान में डटे रहे, जब तक कोई नतीजा नहीं निकला। 
21वीं सदी के वर्ष 2011 में जेपी और गांधी के आंदोलनों से प्रेरित होकर अन्ना हजारे और उनके कुछ साथियों ने भी तथाकथित तौर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। आन्दोलन क्या एक मुहिम छेड़ी। भेड़ की तरह इस मुहिम से भी भावनाएं जुड़ीं। करीब एक साल तक चलने वाले इस आंदोलन में समाजसेवी अन्ना हजारे ने तीन बार अनशन किया, मगर तीनों बार उनकी इस मुहिम का हश्र क्या हुआ, यह  बताने की आवश्यकता नहीं। इस दौरान पहली बार के अनशन को छोड़कर महाराष्ट्र और अभी जंतर-मंतर पर किया गया अनशन बेनतीजा ही समाप्त करना पड़ा। हां, इस दौरान इतना जरूर हुआ कि इसके कर्ता-धर्ताओं ने देश की भावनाओं के साथ खिलवाड़ खूब किया। देश में महान परिवर्तन का सपना दिखाकर आंदोलन की शुरुआत करने वालों की मंशा साफ हुई, तो पूरा देश हक्का-बक्का रह गया। वे लोग भी अवाक रह गए, जिन लोगों ने भ्रष्टाचार को समाप्त करने की आस लगाकर तन, मन और धन के साथ भावनाओं को जोड़ा। आखिरी अनशन के आठवें-नौवें दिन अन्ना की राजनीतिक पार्टी बनाने या किसी राजनीतिक दल से समर्थन लेने की घोषणा करना ने पूरे देश की भावनाओं को आघात पहुंचाने का काम किया है।
हालांकि इस एक साल के दौरान अन्ना के आंदोलन के प्रणेताओं ने देश के कुछ हिस्सों में घूमकर सरकार और खासकर कांग्रेस के खिलाफ  माहौल बनाने का प्रयास किया, मगर उनकी कार्यशैली पर कई  बार सवाल उठाये गए। ज्यादातर लोगों ने सराहा, लेकिन नई घोषणा के साथ भावनाएं बदलीं और बदल गए लोगों के सुर। सुर उन लोगों के भी बदले जो अन्ना दल में शामिल हैं या थे। इस घोषणा का अब अलग मायने और मतलब निकाला जाने लगा है और निकाला जाने लगा है मीन-मेख। लेकिन इन सबके बीच एक जो बड़ा सवाल पैदा होता है, वह यह कि जब यही करना था, तो फिर इतना कुछ करने की जरूरत ही क्या थी? क्यों छेड़ा बगावती राग? क्यों खेला लोगों की भावनाओं से और क्यों पहुंचाया देश को आर्थिक और सामाजिक नुकसान? कौन देगा इसका जवाब? अन्ना, अन्ना आंदोलन के प्रणेता या फिर उनके अंध समर्थक? क्योंकि अब राजनीति में आने और राजनीतिक दल बनाने की घोषणा से देश के लोगों की भावनाएं भी बदली हैं और इस बदली भावनाओं में राजनेताओं को तो जनता के सवालों का जवाब देना ही पड़ता है। जवाब देना अब इसलिए भी जरूरी है कि अब टीम अन्ना समाजसेवक नहीं, एक राजनीतिक दल के सदस्य बनकर रह गए हैं।

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