विश्वत सेन
सोमवार की सुबह। समय करीब 11
बजे। दिल्ली के बड़े अस्पतालों में शुमार राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल के बाल रोग
चिकित्सा पंजीकरण कक्ष की खिड़की नंबर-16..। बच्चों के अभिभावकों की लंबी कतार
सुबह आठ बजे से ही लगी है पंजीकरण कराने के लिए। पूरे दो घंटे में पांच बच्चों की
पर्चियां कटीं और बाकी लाइन में खड़े होकर हाथ को पंखा बनाकर झल रहे हैं और झल्ला
रहे हैं अस्पताल प्रशासन पर। हाथ को पंखा इसलिए बनाए हुए हैं, क्योंकि अस्पताल की
छत में टंगा दादा जमाने का सफेद पंखा रांय-रुईं करते हुए चल तो रहा है, लेकिन उसकी
हवा किसी को लग नहीं रही। पसीने से लोगों का शरीर पसीजा हुआ है, तो बच्चों के दर्द
से दिल। सिर्फ बड़े ही नहीं, बच्चे भी गर्मी से चिचिया रहे हैं और चिल्ला रही हैं
वे महिलाएं, जो घर से निकली हैं इलाज कराने के नाम पर, लेकिन साथ में पड़ोसियों की
भी पर्ची साथ में लेकर आई हैं। पड़ोसधर्म का निर्वहन करने के लिए।
दुर्भाग्यवश, हम भी अपने बच्चे
को लेकर उन्हीं हैरान-परेशान अभिभावकों में खड़े थे। गनीमत यह रही कि मैं अन्य
अभिभावकों की तरह सुबह आठ बजे अस्पताल नहीं पहुंचा। दो घंटे लेट पहुंचा यह सोचकर
कि भीड़ छंट गई होगी, तो पंजीकरण में आसानी होगी। पंजीकरण खिड़की से करीब सौ मीटर
दूर तक अभिभावकों की लाइन। इसे देखकर मेरा हौसला खिड़की तक पहुंचने से पहले ही
पस्त हो गया। पस्त हौसले का पुलिंदा बना दिया उस खिड़की पर बैठे हुए कर्मचारी ने।
दस बजे से पूरे 12 बजे तक हम करीब सौ से अधिक माता-पिता लाइन में अपनी बारी आने का
इंतजार करते रहे। एक-एककर आगे खिसकते, लेकिन आधे घंटे के बाद। जब दिन के 11.30 के
पास घड़ी का कांटा पहुंचा, तो मुझसे रहा नहीं गया। लाइन से निकल आगे बढ़ा और
खिड़की में झांककर देखा। देखा तो देखता ही रह गया।
पंजीकरण कक्ष में पूरे पांच
बंदे। दो मुस्टंडे और तीन पूरे डंडे। दोनों मुस्टंडे बातों से बरस रहे थे अस्पताल
प्रशासन और आईटी डिपार्टमेंट पर। दस मिनट तक मैं उनका यह तमाशा देखता रहा। मैं
खिड़की के पास खड़े एक भलेमानुष से पूछा-भैया, क्या बात है? ये पर्ची क्यों नहीं
बना रहे? भलेमानुष ने कहा-भाई साहब, आप खुद ही पूछ लें। मैंने अपना परिचय दिए बिना
ही जब एक मुस्टंडे-से दिखने वाले बंदे से पूछा, तो उसका जवाब था-सर्वर डाउन है, तो
मैं क्या करूं। मैं क्या अपने सिर में डाटा डाउनलोड करूंगा। मैंने कहा-नहीं,
बिलकुल नहीं। आप करेंगे तो कंप्यूटर में ही, लेकिन तब जब आपका सर-वर ठीक हो जाएगा।
मेरे इस कटाक्ष को वह समझ गया और आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हुए बोला-मैं तुम लोगों को
अच्छी तरह देखना जानता हूं। कहो तो बताऊं, कैसे सर-वर डाउन होता है? उसके तेवर देख
मैंने झट से कहा- नहीं भाई, कहने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे तेवर से ही पता चल
रहा है। फिलहाल तुम यह बताओ कि पर्ची कब बनाओगे? उसने कहा-कल सुबह आना तब बनेगी।
फिर हमने लाख कोशिश की, लेकिन उसने पर्ची नहीं बनाई। हम भी अपना-सा मुंह लटकाए और
सिर पीटते हुए घर वापस आ गए। क्योंकि हमारे पास कोई दूसरा चारा ही नहीं था। सारा
चारा खाने वाले खा गए, तो हम बिना चारा के ही तो होंगे।
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