मिट्टी की रोटी
मिट्टी की एक रोटी बनाओ
अब पत्थर की सब्जी बनाओ
तोड़-घोलकर उसे खा जाओ
पेट की ज्वाला शांत कराओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
मन मिट्टी का मिट्टी ही होगा
मिट्टी खाकर मिट्टी में मिलेगा
तब मिट्टी भी नहीं मिलेगी
जब मिट्टी का आटा बनेगा
जोर से पीसो, दम से गूथो
बातों को बातों से बूझो
मिलजुल खाओ, स्वाद चखाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
गैस का इंधन नहीं मिलेगा
हवा से अब इंजन चलेगा
लकड़ी-काठी हाथ बनेगा
मिट्टी ही अब साथ रहेगा
सब मिल गाओ, धूम मचाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
कंकड़-पत्थर चुनकर लाओ
प्यारी-सी अब दाल बनाओ
पात-पतइया बीनकर लाओ
उससे उसमें तडक़ा लगाओ
ताडक़ा रानी जाग चुकी है
पंघत में उसे भी बिठाओ
मिलजुलकर सब कोई खाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
पेट की ज्वाला धधक रही है
रह-रहकर वह बहक रही है
अंदर से आत्मा दहक रही है
देख-देख वह सिसक रही है
सिसक-सिसक दो बूंद गिराओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
गगन का आंगन कितना बड़ा है
चारों ओर पहाड़ खड़ा है
क्षितिजों का मंडप घिरा है
तृणों का यह सेज सजा है
घुलट-पुलटकर सबको सुलाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
नभ में काला मेघ जमा है
पवन का आवेग थमा है
मेघ में वारिद घना है
बेल-विटप सीधे तना है
प्रकृति को सहचरी बनाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
मनुज की सहचरी है अजा
काटी जा रही है अजा-प्रजा
अजात शिशु पर ऋण है चढ़ा
लंपटी-कपटी का घर है सजा
स्वार्थ-कपट को सूली चढ़ाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
महंगासुर दानव बलवान
खड़े हो गये सूरसा के कान
राजा सो गया चादर तान
वनिक बन गये चतुर सुजान
चतुराई की चटनी चटाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
चारण कर रहे गुणगान
राजा प्रजा से है अनजान
प्रजा ले रही आपस में जान
गगनचुंबी बना है कान
कनपट्टी पर भोंपू बजाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
गरीब का बन रहा है निवाला
गरीबी का है पैमाना ढाला
चासनी बना के उसमें डाला
पड़ गया कपटी से पाला
गरीबी नहीं, अब गरीब मिटाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
लोकतंत्र का बज रहा है ढोल
धीरे-धीरे खुल रही है पोल
हेराफेरी है सब गोल-मटोल
बना रहा है अनुपम घोल
मनुज रक्त उनको पिलाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
बढ़ती जा रही है प्यास
नहीं मिटती है मन की त्रास
और बढ़ रहा है अमिट संताप
खत्म हो रहा है मानव प्रताप
दानव प्रताप संगठित कराओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
खत्म हो रहा है अनाज
मार-काट मची है आज
मनुज बना है साग-पात
दनुजों का है राज-पाट
दनुजों को सिंहासन बिठाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
निकलती है तो निकले आह
राजा को है नहीं परवाह
दरबार की तो प्रशस्त है राह
निरीहों पर है टिकी निगाह
निर्दोषों को बलि चढ़ाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
बदल रहा है सबका वेश
शायद ही बचा कोई देश
जन-जन में फैलाओ संदेश
अब वह हो जाए खुद सचेत
संचेतन कुण्डलिनी जगाओ
मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
मिटती जा रही है प्रकृति
हो ही चुकी है अति पर अति
क्यों बनकर बैठे हो यति
आप ही लगाओ कोई युक्ति
युक्ति को हथियार बनाओ
बढक़र आगे प्रकृति को बचाओ
अंधकारमय भविष्य सजाओ
तब मिट्टी की एक रोटी बनाओ।।
विश्वत सेन
अप्रैल 22, 2012
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