अम्बुधि नज़र आता है
मन सूबे में एक 'पर' लगाऊं
फिर परों के संग होड़ मचाऊँ
आसमान में करतब दिखाऊँ
नील पतंगों को ललचाऊँ
पर मन मोर ठिठक जाता है
जब अम्बुधि नज़र आता है!
मन में मैंने आस जगाई
हरियाली की घास उगाई
प्यासों की सब प्यास बुझाई
अंधियारों में भी दीपक जलाई
पर सब व्यर्थ चला जाता है
जब अम्बुधि नज़र आता है!
सर पर है आकाश बड़ा
समद में है जहाज खड़ा
पंछी उस पर कब से पड़ा
उड़ने को है तैयार खड़ा
पर नीरद देख अटक जाता है
जब अम्बुधि नज़र आता है!
हौसले में कोई कमी नहीं
अभिलाषाएं अभी थमी नहीं
तल तलातल कहीं जमीं नहीं
बातों में कहीं नमी नहीं
उड़-उड़ जाऊं, पंख फैलाऊँ
फिर लौट के वहीँ आ जाऊं
उदधि नीर बहा जाता है
जब अम्बुधि नज़र आता है!
भू-पति भी है बेसुध पड़ा
आशीष वाणी है नहीं गढ़ा
उलटे पर कतराने पर अड़ा
मंसूबे पर दिया पानी गिरा
सब कौशल धरा रह जाता है
जब अम्बुधि नज़र आता है!
बीच भंवर में फंसी ज़िन्दगी
जहाज में है फंसा वो पंछी
नीला अम्बर न सुने बंदगी
नीले पानी में सिर्फ दिखे बूँद ही
तब अश्रु अंश टपक जाता है
जब अम्बुधि नज़र आता है!
किनारे का कुछ पता नहीं
धरातल भी कहीं सटा नहीं
सगे सम्बन्धी भी सगा नहीं
जीवन से कभी दगा नहीं
सब बाट बिखर जाता है
जब अम्बुधि नज़र आता है!
पंडित आशीष देते सौ बार
नृप नाग देता है एक बार
नृप,सृप, पावक, नीर बदमाश
करते रहते सौ-सौ वार
रक्त धार निकल आता है
जब अम्बुधि नज़र आता है!
खग कुल कूल से नहीं बिछुड़ा
नाविक औंधे मुंह है गिरा
गृह नृप साजिश से है घिरा
आँखों पर है चश्मा चढ़ा
जब गिरगिट-सा बदल जाता है
तब अम्बुधि ही नज़र आता है!
लड़का राजा हो, जानी प्रधान
मामला बिगड़ जाए साँझ-विहान
नारी न देखे कुल की शान
तान देती है खुद तीर कमान
तरकश सरकश बन जाता है
तब अम्बुधि ही नज़र आता है!
नारी नागिन का एक स्वभाव
निज स्वार्थवश करती है घाव
या फिर कर देती विष का स्राव
तभी डूबती है जीवन की नाव
तब अमित विष बन जाता है
जब अम्बुधि नज़र आता है!
नारी ममता की है मूरत
ताड़े ललना की भोली सूरत
पति की बनती है वो पूरक
नाजुक नाडी की है संवाहक
तब सब अर्थ नष्ट हो जाता है
जब स्वार्थ बहुत टकराता है
पतवार पतन कर जाता है
तब अम्बुधि ही नज़र आता है!
कभी बेटी बनती है नारी
कोई बहना बनती है प्यारी
प्रेम पुजारन तन मन बेचे
सजती-स्नावार्ती है वह न्यारी
सब दुलार दुर्लभ हो जाता है
जब नारी रूप बदल जाता है
सर्वार्थ स्वार्थ बन जाता है
तब अम्बुधि ही नज़र आता है!
खग कुल है कुछ डरा हुआ
नारी विद्रोह से है भरा हुआ
अरि बन गई है एक नारी
विद्रोही पर है वह भारी
नृप प्यार वार बन जाता है
तब अम्बुधि ही नज़र आता है!
पहले उसने किया गौर नहीं
अब कहीं उसको ठौर नहीं
नृप का है वह सिमौर नहीं
अगम जलधि का छोर नहीं
जब ओर-छोर मिट जाता है
तब अम्बुधि ही नज़र आता है!
-विश्वत सेन
अप्रैल 18 , 2012
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