मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

उसको क्यों रोने दूं


फागुन आया, फगुन आया, 
दिल हो गया है बाग-बाग।
बसंती हवा के चलते ही, 
डर से जाड़ा गया है भाग।
दिलजले, मनचले ही नहीं, 
ठरकी बूड्ढे हो गए जवान।
काम पिपासा के तरकश पर, 
चढ़ा दिया आवेग कमान।
तरुण कामिनी के उरोज पर, 
झंकृत होता यौवन का तार।
एक कोने में दुबक विरहधर, 
रो रहा देखो जार-बेजार।
रमणी सजकर रनिवास में, 
करती रहती उसका इंतजार।
सांझ पहर बल खाती युवती, 
चौकड़ी मारती खेत-बधार।
मंद-मंद बहता समीर जब, 
उस यौवन से टकराता है।
पलभर के उसके छुअन से, 
मादकता से भर जाता है।
लपक-झपटकर पीला फूल, 
झट चोटी से सट जाता है।
कभी कटि, कभी नंद प्रदेश में, 
इठलाता, इतराता है।
मदमस्त, पर पस्त युवती, 
हाथों से उसे सहलाती है।
दबकर यौवन के भार तले, 
ऐसे मन को बहलाती है।
दूर झाड़ी में बैठा ठरकी, 
देख उसे मचल जाता है।
तजुर्बे का हवाला देकर, 
उस युवती को फुसलाता है।
अनचाहा, अनजाना देखकर, 
कामिनी ठिठक जाती है।
जोबन रसपान कराने में वह, 
शरमाती, सकुचाती है।
बड्ढे ठरकी से अच्छा, 
कोने में दुबका विरहधर है।
पहर दो पहर ही नहीं, 
वह प्रेम करता आठों पहर है।
अरुण, तरुण, कोमल, कपोल, 
इसको क्यों छूने दूं।
जिसका हक बनता है इस पर, 
उसको क्यों रोने दूं।
यही सोचकर चली वह युवती, 
अपने प्रियतम को मनाने।
पूरी राह इस ठरकी बुड्ढे को, 
लगी मूर्ख बनाने।
घर की देहरी आते बोली, 
जाती हूं अब मैं चाचा।
नहीं तो गाल पर तेरे, 
जड़ देती हूं जोरदार तमाचा।
-विश्वत सेन
फरवरी आठ, 2012

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