क्या रचिएगा, क्या बसिएगा,
अपने-अपनों को बांटते हैं सब,
अपने ही अपनों को देते धोखा।
माता पर है पिता का शासन,
या फिर पिता हो गए लाचार।
घर में उनकी नहीं सुनता कोई,
सब पर चढ़ गया लवेरिया बुखार।
लव के चक्कर में बेटों का,
नहीं खुलता कभी उनका लब।
माता का बेलन दिखते ही,
तितर-बितर हो जाते हैं सब।
रिलेशनशिप की आड़ में,
माता का चलता है पूरा शासन।
बिना पैसे के बाप को,
दुकानदार भी नहीं देता राशन।
बूढ़ा बाप किधर जाए,
चुपचाप बैठकर चिचियाता है।
वैसे ही जैसे खटारा स्कूटर,
किक मारते ही किकियाता है।
जब तक कंधों में बचा था जोर,
नहीं मचाता था घर में कोई शोर।
कमर की हड्डी को मुड़ते ही,
आने लगा अब विपत घनघोर।
माता जी के घनचक्कर में,
बहुओं ने मुंह लिया है मोड़।
बिलबिलाते, छटपटाते बाप को,
बेटों ने भी अब दिया है छोड़।
आमद जब तक होती रहती,
नहीं लगाया कभी संदूक में ताला।
पेंशन देरी से मिलने पर,
छिन जाता है मुंह का निवाला।
रचती-बसती इस दुनिया में,
कितनों को ही उसने बसाया।
उसकी दुखती रगों पर देखो,
पत्नी ने ही दो धौल जमाया।
बिगड़ते-बिखरते इन रिश्तों पर,
बस एक ही रट वह लगाता है।
क्या रचना है, क्या बसना है,
सब रचा-बसा मिट जाता है।
क्या बनाइएगा, क्या बिगाडि़एगा,
सबकुछ मन का एक धोखा है।
क्या रचिएगा, क्या बसिएगा,
रचने-बसने का नहीं अब मौका है।
-विश्वत सेन
फरवरी आठ, 2012
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