एक रहिन बखेती लाल,
करते रहिन खुरपेच।
बात-बात में चाल चलें,
भेद खुले, तो जाएं झेंप।
गांव-घर में लड़ाई करावें,
खेती पर डालें वह डोरा।
जो चाल में खलल पड़ जाए,
तब करा दें चोरी-चोरा।
उनकी इस हरकत से भैया,
गांव-जवार था पूरा परेशान।
उनके बिना मगर रहती थी,
फीकी किसी महफिल की शान।
नाम बखेती, बखत देखकर,
चलते थे अपनी वो चाल।
हाथ मलते रह जाते सारे,
माल उड़ाते बखेती लाल।
सवा सेर पर अढ़इया भारी,
पड़ गया मुसद्दी लाल से पाला।
बखेती लाल के हडिय़ा में,
पडऩे लगा मकड़ी का जाला।
चूल्हे में पड़ गया था पानी,
नही मिलता था कोई एक दाना।
पनबट्टा भी बिकने लगा,
जिसको दिया था उनका नाना।
चिंतामग्न रहने लगे बखेती,
खूब चलते थे चाल पर चाल।
मुसद्दीलाल के एक चाल पे,
मात खा जाते बखेती लाल।
जोर लगाया, जुगत भिड़ाया,
फिर भी नहीं बनी कोई बात।
बात-बात पर झुंझला जाते,
बुढ़ापे में चलाते घूस्सा-लात।
घर की माली हालत देखकर,
बखेती ने किया ऐलान।
मैं न रहूं घर में यदि, तो
पेड़ से रस्सी देना कोई तान।
सांझ ढले तो फिर उसमें,
बांध देना कोई एक कनस्तर।
कुछ दिनों के लिए जाऊंगा,
यहीं पास में है एक बस्तर।
नहीं आएंगे चोर-उचकके,
और न घुसेगा कोई कुत्ता-बंदर।
वैसे भी, अब नहीं बचा कुछ
मेरे इस घर के अंदर।
इतना कहकर चले बखेती,
थानेदार की देहरी पर।
धू-धू कर जलने लगा उनका घर,
आधी रात के बीतने पर।
अंधेरी रात में घोर सन्नाटा,
लपट-झपट रही थीं लपटें।
टोपी पहने, रूल बगल में,
दरोगाजी लिख रहे थे रपटें।
आधीरात को आगजनी देख,
गांव में मच गया हाहाकार।
उधर, मुसद्दीलाल की पीठ पर,
पड़ रही थी हण्टर की मार।
समझ गया था पूरा गांव,
चल दिया है इसने तगड़ी चाल।
पेड़ की ओट में छिपकर,
मुस्कुरा रहे थे बखेती लाल।
जनवरी 19, 20012
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