शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

तामस से कभी प्यार न कर


विश्वत सेन
दुर्वासा ही नहीं थे जग में,
जिनको गुस्सा आता था।
सृष्टि के हर प्राणी को,
अब भी गुस्सा आता है।।
गुस्से के वशीभूत होकर,
मनुज-दनुज बन जाता है।
विभीषण-शकुनी को तजकर,
सीधा समर कर जाता है।।
कभी अकारण आता है यह,
कभी सकारण आता है।
जब आता, तब होश न रहता,
जाते मनुज पछताता है।।
क्षणभर के आवन-जावन में,
सुषुप्त लहू को भड़काता है।
दीनबंधु से वैर करावे,
सरोकार तुड़वाता है।।
जग में तिल-तिल जीने को,
विवश यही करवाता है।
सुविचारी-कुविचारी को,
जवान-ए-जंग बनवाता है।।
अपने पे यदि आ जाए मनुज,
तो वंश नष्ट हो जाता है।
बैठ निखट्टू फिर जीवनभर,
वही मनुज पछताता है।
शंभू नहीं अब कोई जग में,
जो गरलाम्बु पी जाएगा।
नीलकंठ से लिपट गरलधर,
शीत-शांत हो जाएगा।।
सब मानव तनधारी हैं,
कलियुग के व्यभिचारी हैं।
पल-दो-पल सब्र को,
जो न कभी बांधा है।
जिसने दमभर के लिए सही,
खुद को न कभी साधा है।।
वह जग को अब क्या बांधेगा,
असाध्य को क्या साधेगा?
खुद को साधे, सब सधता है,
बिना बांधे सब बंधता है।
सुयोधन ही जब साध न सका,
अखिल ब्रह्म को बांध न सका।
तू तो मात्र मनुज है,
इन दुराचारियों का अनुज है।
परजीवि, परगामी है,
दशानन का अनुगामी है।।
वह भी किसी का हो न सका,
बंधु विच्छेद पर रो न सका।
ईश्वर को भज लेता तो,
क्रोध को तज लेता तो,
अभिमानी, हतभागी न बनता।
गार्हस्थ जीवन का वैरागी न बनता।।
कंद, मकरंद और वैरागी,
तीनों अनुग्रह के अधिकारी।
उठकर तू हुंकार तो कर,
‘हरियाली’ का सत्कार तो कर।
जुड़ जायेंगे, दिग-दिगन्त,
तेरा यश भी होगा जीवन्त।
बड़ों से कभी रार न कर,
तामस से कभी प्यार न कर।
तामसी यदि होती दुनिया,
‘अमर प्रेम’ न करती दुनिया।
जीवन है अनमोल रतन,
बाकी हैं सब तुच्छ धन।
प्राणी मात्र की रक्षा कर,
तामस से कभी प्यार न कर।।

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