विश्वत सेन
चित्कारता क्यूं है मनुज?
दहाड़ता क्यूं है मनुज?
जब मन का नहीं होता,
तो मन को मारता क्यूं है मनुज?
कूदरत की तरह नेमतें देती है ज़िंदग़ी
ग़र हो मुकाबिल,
तो मौके भी देती है ज़िंदग़ी
हर कदम पे पड़ा है किस्मत का ख़ज़ानाहर शख्स को एक अक्ल भी
देती है ज़िंदग़ी
ग़र क़ाहिली को बेबसी बताए कोई
तो बेकसी का सितम भी ढाती है ज़िंदग़ी
फिर हाल-बेहाल होकर
पछताता क्यूं है मनुज?
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