सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

सिर्फ एक आम आदमी


विश्वत सेन
वह दीपक नहीं, पर जलता है
वह हीरा नहीं, पर घिसता है
वह सोना नहीं, पर तपता है
वह शोषित है, पर आह नहीं
वह राही है, पर राह नहीं
वह इस जग का दुत्कार है।
दीन-दुखियों की पुकार है
फटे-पुराने चीथड़ों पर,
रोटी के दो-एक टुकड़ों पर
जीवन गुजारा करता है,
कभी न आहें भरता है
न जीता है, न मरता है,
लेकिन गुजारा करता है।
जग के प्यारे हैं सारे,
राज दुलारे हैं सारे
पह वह इस जग का है मारा
युग के जुए को है सम्हारा
न देखता है वह आगे
और न देखता है वह पीछे,
एक राह पर चल रहा वह
बस अपनी आंख मीचे।
लग ही जाती है सहसा,
दुनिया की ठोकरें
गिर ही जाता है वह सहसा,
शहर के उस मोड़ पे
जहां पर अल्फ्रेड की
बुत है एक खड़ी
और खाने को पड़ी है
बेंत की वो चार छड़ी।
कोई मुलाजिम आएगा,
उस मोड़ पर अकड़कर
और साथ ले जाएगा उसे
हथकड़ियों में जकड़कर।
जाके थानेदार से,
वह कहेगा चार बातें,
पीठ पर उसकी पड़ेगी
कोतवाल की सात लातें
और कहा जाएगा उससे,
बोल तू ने कितनी पी है
या कि तेरी जेब में,
शराब की बोतल पड़ी है।
जग का मारा, वह बेचारा
मांगेगा थोड़ा-सा पानी,
चार हंटर खाने पर फिर
याद आ जाएगी नानी।
डेमोक्रेटिक इस देश में,
यह नहीं है, वह नहीं है
पर है यह इस देश का
सिर्फ एक आम आदमी।

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

नहीं फटेगी छाती

विश्वत सेन 
चाक हाल देख कुम्हार का 
चाक चाक़ से बोला
बिना चाप के चाल न होगी
औ चाल रह जायेगा खुल्ला
मिट्ठी करो जरा पाणी को 
धूल धौल गिर जमाव 
हरिणी के दिन आवेंगे 
धन पावस लियो कराय
विधु हिरणी-सी चमकत हरिणी 
वेद-वेदांत पूजाय
मृदुमृदा के सेज-सज्जा पर 
इन्हें लियो बुलाय
ताहि समय देख केहु पाहन 
पायन लियो पखार 
घृत, दधि, अईपन के बिना भी
आरती लियो उतार
चक्र चाव सुन जागा चक्रधर 
धरणी लियो सम्हार
धर धरनी ओटन लगे 
करन लगे बेडा पार
ताहि समय कछु देख कै
हरिणी का हिया डोला 
रजत, ताम्र, सुवर्ण, पुष्प लै
चक्रधर से बोला 
पूरी हुयी धरणी तुम्हारी 
अब बनेगी चाल 
चाक चाप के धरियो
नहीं रहोगे फटेहाल 
हरिणी के सम्मुख देख कै 
चक्रधर भये निढाल 
धूल पाणी जोड़ी कै 
चरणामृत दिए डाल
धन्य भया जीवन उनका 
धन्य भई चकबाती
अब हरिणी के बिना कभी 
नहीं फटेगी छाती

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

तामस से कभी प्यार न कर


विश्वत सेन
दुर्वासा ही नहीं थे जग में,
जिनको गुस्सा आता था।
सृष्टि के हर प्राणी को,
अब भी गुस्सा आता है।।
गुस्से के वशीभूत होकर,
मनुज-दनुज बन जाता है।
विभीषण-शकुनी को तजकर,
सीधा समर कर जाता है।।
कभी अकारण आता है यह,
कभी सकारण आता है।
जब आता, तब होश न रहता,
जाते मनुज पछताता है।।
क्षणभर के आवन-जावन में,
सुषुप्त लहू को भड़काता है।
दीनबंधु से वैर करावे,
सरोकार तुड़वाता है।।
जग में तिल-तिल जीने को,
विवश यही करवाता है।
सुविचारी-कुविचारी को,
जवान-ए-जंग बनवाता है।।
अपने पे यदि आ जाए मनुज,
तो वंश नष्ट हो जाता है।
बैठ निखट्टू फिर जीवनभर,
वही मनुज पछताता है।
शंभू नहीं अब कोई जग में,
जो गरलाम्बु पी जाएगा।
नीलकंठ से लिपट गरलधर,
शीत-शांत हो जाएगा।।
सब मानव तनधारी हैं,
कलियुग के व्यभिचारी हैं।
पल-दो-पल सब्र को,
जो न कभी बांधा है।
जिसने दमभर के लिए सही,
खुद को न कभी साधा है।।
वह जग को अब क्या बांधेगा,
असाध्य को क्या साधेगा?
खुद को साधे, सब सधता है,
बिना बांधे सब बंधता है।
सुयोधन ही जब साध न सका,
अखिल ब्रह्म को बांध न सका।
तू तो मात्र मनुज है,
इन दुराचारियों का अनुज है।
परजीवि, परगामी है,
दशानन का अनुगामी है।।
वह भी किसी का हो न सका,
बंधु विच्छेद पर रो न सका।
ईश्वर को भज लेता तो,
क्रोध को तज लेता तो,
अभिमानी, हतभागी न बनता।
गार्हस्थ जीवन का वैरागी न बनता।।
कंद, मकरंद और वैरागी,
तीनों अनुग्रह के अधिकारी।
उठकर तू हुंकार तो कर,
‘हरियाली’ का सत्कार तो कर।
जुड़ जायेंगे, दिग-दिगन्त,
तेरा यश भी होगा जीवन्त।
बड़ों से कभी रार न कर,
तामस से कभी प्यार न कर।
तामसी यदि होती दुनिया,
‘अमर प्रेम’ न करती दुनिया।
जीवन है अनमोल रतन,
बाकी हैं सब तुच्छ धन।
प्राणी मात्र की रक्षा कर,
तामस से कभी प्यार न कर।।

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

सफलता का सरल यन्त्र


विश्वत सेन 
पहले उठकर करो प्रणाम 
निज मात-पिता हैं धरती के धाम!
अतिथि-अभ्यागत हैं दूसरे देव 
जग में उत्तम हैं गुरुदेव!!
मात-पितर की पूजा करना,
गुरुओं को देना सम्मान!
अतिथि-अभ्यागत की पूजा करना,
प्रबुद्धजनों का रखना मान!!
फिर करो तुम कल की चिंता
जागने से सोने तक औ'
सोने से जागने तक,
कर्मदेव की पूजा करना 
फलाफल से जी न भरना!
बन जायेंगे बिगड़े काम
ईश्वर का तुम धरना ध्यान!
जिसने लिया आलस का सहारा 
उसे फिर कष्टों ने मारा!
कई थपेड़े सहने पड़ेंगे 
आतप-आंधी सहने पड़ेंगे!
फिर न मिलेगा कोई सहारा 
क्यूंकि आलस ने है तुमको मारा!!
प्रबुद्धजनों की मानों बात 
कभी न आएगा झंझावत!
जीवन सुखमय हो जायेगा,
फिर न कभी तू पछतायेगा!!
यदि तुमने कभी 'सार' न सीखा,
रह जाओगे 'ठूंठ' सरीखा!
यही जीवन का हिया मूल मंत्र
सफलता का सरल यन्त्र!

त्रिशूल गायब

विश्वत सेन
एक बार हिम शिखर पर
उठा बवंडर भारी 
गुस्से से लाल-पीले 
हो रहे थे जटाधारी  
उनका त्रिशूल गायब था 
हो रही थी उन्हें फ़िक्र भारी 
माता जया से सक्रोध पूछा,
बता, त्रिशूल कहाँ है नारी?
शांत भाव से माता बोलीं,
क्रोध तजो तो त्रिपुरारी.
आज शाम पुत्र गणेश 
जा रहा था बाज़ार,
संग में उसके जा रही थी,
एक सुन्दर लड़की प्यारी
चाउमीन खाने को कहता था,
पर नहीं था घर में आटा.
कह गया है मुझसे, कह देना 
ले जाता हूँ पापा का कांटा

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

अनजान पथ का राही हूं


अनजान पथ का राही हूं
फक्कड़पन का हमराही हूं
तिमिरांध मिटाना है मुझको
ज्ञानांजन लगाना है मुझको
दुर्गम पथ हो मेरा आलोकित
यदि ज्ञान दें हमको समयोचित
अडिग अविचल डटा रहूंगा
नीलकंठ से सटा रहूंगा
यही मेरी अभिलाषा है
मृगतृष्णा है, मृदुभाषा है

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

चित्कारता क्यूं है मनुज?




विश्वत सेन

चित्कारता क्यूं है मनुज?
दहाड़ता क्यूं है मनुज?
जब मन का नहीं होता,
तो मन को मारता क्यूं है मनुज?
कूदरत की तरह नेमतें देती है ज़िंदग़ी
ग़र हो मुकाबिल,
तो मौके भी देती है ज़िंदग़ी
हर कदम पे पड़ा है किस्मत का ख़ज़ाना
हर शख्स को एक अक्ल भी
देती है ज़िंदग़ी
ग़र क़ाहिली को बेबसी बताए कोई
तो बेकसी का सितम भी ढाती है ज़िंदग़ी
फिर हाल-बेहाल होकर
पछताता क्यूं है मनुज?

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

स्वार्थ में दुनिया पड़ी है कब से अंधी



विश्वत सेन

वह बेचारा, वक्त का हारा
जीवन पथ पर यूं अकेला
फिर रहा था मारा-मारा
जिंदगी जिंदादिली का नाम है
 काहिलों का फिर यहां क्या काम है
है अगर जिंदगी का यही फलसफा
तो बेचारे के लिए फिर ये जहां
साल-दर-साल तक क्यों चुप रहा?
कौन अपना है पराया जानकर
बेमुरादों को सहारा मानकर
बेधड़क पथ पर यूं बढ़ता रहा
बैल को भी बाप कह चलता रहा
दोस्त और दुश्मनों की है परख
पर दोस्त ही है दुश्मनी निभा रहा
नहीं हो रही जिंदगी की जुगलबंदी
स्वार्थ में दुनिया पड़ी है कब से अंधी
भाई को भाई रास नहीं है आ रहा
खून का भी रंग है बदलता जा रहा
होंगे बिरले जिंदगी में जिनकी कभी
हो रही होगी उनके जीवन में जुगलबंदी
पर यहां तो रात का राजा पड़ा है
राह में कुछ झपटने को आतुर खड़ा है
अहर्निश में एक दाना मुंह में पड़ा है
और झपट लेने को कुत्ता भी अड़ा है
पास में ही एक बच्चा सो रहा
क्षुधा तृप्ति के लिए था रो रहा
पर हाय! न थी उसके पास रोटी
और न काटकर देने के लिए ही बोटी
सब दधीचि बन न जाते हैं यहां
दूसरों को नोचकर खाते हैं यहां
वह अकेला ही बेचारा है नहीं इस देश में
अनगिनत बेचारे हैं न जाने के किस वेष में
जिनकी जिंदगी की हो न पाती जुगलबंदी
क्योंकि स्वार्थ में दुनिया पड़ी है कब से अंधी
स्वार्थ में दुनिया पड़ी है कब से अंधी

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

यौवन पर डाका?




विश्वत सेन

तनिक अटारी ठाढ़ भई, सुंदर-सी कचनार
कबहुं घुंघट पट खोल दे, कबहुं झरोखे झांक
कंचन कामिनी देख कै, लौंडन छोड़े उच्छवास
मधुर मिलन की आस में, करन लगे उपवास
यौवन पर डाका देख कै, काकी का तन-मन डोला
काका के सम्मुख जाय के, कर्णपात्र में विष को घोला
काका के बदले तेवर, चल पड़ा जुबाने खंजर
लौंडन के हिय को बेधा, कामिनी को छेदा
काका के तेवर देख कै, लौंडन भए तितर-बितर
अटारी पर न कामिनी रही, न देहरी पर मंजर

जाति विशेष की धरोहर नहीं है ‘दलित’



विश्वत सेन
भारतीय राजनीति का प्रचलित शब्द ‘दलित’ जाति विशेष के साथ जुड़कर रूढ़ हो गया है, मगर हमारे देश के मनीषियों और कवियों ने शतकों पहले व्यापक पैमाने पर इसका आकलन किया है। आधुनिक राजनीतिक और मीडिया जाति विशेष पर हो रहे अत्याचार और उनकी मांगों पर हाय-तौबा मचाते हैं, लेकिन कवियों ने देश के हर दीन-हीन और लाचार को दलित माना है। उनके लिए दलित शब्द किसी जाति विशेष के दायरे में सिमटा हुआ नहीं था, बल्कि इसकी व्यापकता अपार थी। तभी तो मुक्तछंद के प्रवर्तक और छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने पूरी कविता ही दलितों पर लिख डाली है। उन्होंने ‘दलित जन पर करो करुणा’ नामक कविता में ईश्वर यानी गुलाम भारत के शासक अंग्रेजों से दलितों पर दया करने की गुहार लगाई है। इसमें उन्होंने अंग्रेजी सरकार से स्पष्ट रूप से कहा है कि तुम लोगों पर इतना अधिक अत्याचार न करो। दीन-हीन, गरीब की गरीबी तो इस देश की नीयति है, लेकिन तुम्हारा अत्याचार उनसे कहीं अधिक दीन-हीन है। 
इतना ही नहीं ‘निराला’ ने अकेले दलितों के माध्यम से ही सरकार पर प्रहार नहीं किया है, बल्कि ‘वह तोड़ती पत्थर, देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर’ में आजादी के बाद की सरकारों की दशा-दिशा का भी अनोखा चित्रण किया है। यह उनकी कलम की धार का ही कमाल है कि उन्होंने आजादी के बाद और उसके पहले की देश की दयनीय स्थिति का चित्रण महज चंद शब्दों में पूरा कर दिया है। यह नियंता की मार नहीं, बल्कि देश के नीति-निर्धारकों की अदूरदर्शी सोच का दुष्परिणाम है। आज देश के गरीब गरीबी की दलदल में पहले से कहीं अधिक धंसते जा रहे हैं और अमीर अमीरी की अट्टालिका बना रहे हैं। इस असमानता का कोई परावार नहीं है।
दरअसल, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’  हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभो में से एक हैं। अपने समकालीन कवियों से इतर उन्होंने कविता में कल्पना कम और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी हैं। हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक चर्चित साहित्यकारों में से एक निराला का जन्म बंगाल की रियासत महिषादल (जिला मेदिनीपुर) में माघ शुक्ल एकादशी संवत 1955 तदनुसार 21 फरवरी सन 1899 में हुआ था। उनकी कहानी संग्रह लिली में उनकी जन्मतिथि 21 फरवरी 1899 अंकित की गई है। वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा 1930 में प्रारंभ हुई। उनका जन्म रविवार को हुआ था, इसलिए सुर्जकुमार कहलाए। उनके पिता पंडित राम सहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का गढ़कोला नामक गांव के निवासी थे।
निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरंभ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की आयु में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद फैली महामारी में न सिर्फपत्नी मनोहरा देवी, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन अनर्थपूर्ण आर्थिक संघर्ष में बीता। निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया। जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मोहल्ले में स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में 15 अक्तूबर 1961 को उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की।
बता दें कि ‘निराला’ की पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में ही हुई। उन्होंने 1918 से 1922 तक यह नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। 1922 से 1923 के दौरान कोलकाता से प्रकाशित समन्वय का संपादन किया। 1923 के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई, जहां वे संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से 1935 के मध्य तक संबद्ध रहे। 1935 से 1940 तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद 1942 से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून 1920 में, पहला कविता संग्रह 1923 में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का ‘उच्चारण’ अक्तूबर 1920 में मासिक  पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियां उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं, किन्तु उनकी ख्याति विशेषरूप से कविता के कारण ही है।
‘निराला’ की काव्यकला की सबसे बड़ी विशेषता है चित्रण-कौशल। आंतरिक भाव हो या बाह्य जगत, उनके दृश्य-रूप, संगीतात्मक ध्वनियां हो या रंग और गंध, सजीव चरित्र हों या प्राकृतिक दृश्य, सभी अलग-अलग लगने वाले तत्वों को घुला-मिलाकर निराला ऐसा जीवंत चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उन चित्रों के माध्यम से ही निराला के मर्म तक पहुंच सकता है। निराला के चित्रों में उनका भावबोध ही नहीं, उनका चिंतन भी समाहित रहता है। इसलिए उनकी बहुत-सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है। इस नए चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के कारण अक्सर निराला की कविताएं कुछ जटिल हो जाती हैं, जिसे न समझने के नाते विचारक उन पर दुरूहता आदि का आरोप लगाते हैं। उनके किसान-बोध ने ही उन्हें छायावाद की भूमि से आगे बढ़कर यथार्थवाद की नई भूमि निर्मित करने की प्रेरणा दी। विशेष स्थितियों, चरित्रों और दृश्यों को देखते हुए उनके मर्म को पहचानना और उन विशिष्ट वस्तुओं को ही चित्रण का विषय बनाना, निराला के यथार्थवाद की एक उल्लेखनीय विशेषता है। निराला पर आध्यात्मवाद और रहस्यवाद जैसी जीवन-विमुख प्रवृत्तियों का भी असर है। इस असर के चलते वे बहुत बार चमत्कारों से विजय प्राप्त करने और संघर्षों का अंत करने का सपना देखते हैं। निराला की शक्ति यह है कि वे चमत्कार के भरोसे अकर्मण्य नहीं बैठ जाते और संघर्ष की वास्तविक चुनौती से आंखें नहीं चुराते। कहीं-कहीं रहस्यवाद के फेर में निराला वास्तविक जीवन-अनुभवों के विपरीत चलते हैं। हर ओर प्रकाश फैला है, जीवन आलोकमय महासागर में डूब गया है आदि ऐसी ही बातें हैं। यह रहस्यवाद निराला के भावबोध में स्थायी नहीं रहता, वह क्षणभगुर ही साबित होता है। अनेक बार निराला शब्दों, ध्वनियों आदि को लेकर खिलवाड़ करते हैं। इन खिलवाड़ों को कला की संज्ञा देना कठिन काम है। लेकिन सामान्यत: वे इन खिलवाड़ों के माध्यम से बड़े चमत्कारपूर्ण कलात्मक प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों की विशेषता यह है कि वे विषय या भाव को अधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त करने में सहायक होते हैं। निराला के प्रयोगों में एक विशेष प्रकार के साहस और सजगता के दर्शन होते हैं। यह साहस और सजगता ही निराला को अपने युग के कवियों में अलग और विशिष्ट बनाती है।

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

सत्ता सुख का मोहपाश


भाजपा के रथी लाल कृष्ण आडवाणी सत्ता का सुख पाने के लिए रथ यात्रा निकालते हैं, लेकिन दुरभाग्यवश वह हर बार गच्चा खा जाते हैं। रथी का मनोरथ पूरा नहीं हो रहा है। उम्र के ढलान पर भी उनके मन से सत्ता का लोभ अंकुरित हो रहा है। इस उम्र में उन्हें भजन-कीर्तन करना चाहिए था, मगर वह अब भी सत्ता सुख के लो•ा से वंचित नहीं हो पाए हैं। जनता की गाढ़ी कमाई पर रथ यात्रा निकालते हैं। चाहे वह पार्टी का पैसा हो या सरकार का, आखिर है तो इस देश की जनता का ही। भ्रष्टचार की आवाज बुलंद करने वाले भाजपाइयों को क्या यह दिखाई नहीं देता? क्या यह दिखाई नहीं देता कि मुंह में सत्ता का खून लगाए बूढ़ा शेर दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे बढ़ने नहीं देना चाहता? 

विश्वत सेन 
भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उप-प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने सत्ता के लोभ में जब-जब रथ यात्राएं निकालीं, देश को नुकसान हुआ। पार्टी और पब्लिक का पैसा पानी की तरह बहाया गया, मगर हर यात्रा की समाप्ति के बाद उन्हें या उनकी पार्टी को कुछ हासिल नहीं हुआ। अलबत्ता, देश को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंक दिया गया। जिस सत्ता सुख की पूर्ति के लिए उन्होंने यात्राएं शुरू की, मगर उन्हें यह सुख नहीं मिल पाया। इसके बावजूद वह अभी तक सत्ता सुख के लोभ से वंचित नहीं हो पाए हैं। चाहे वह राम रथ यात्रा हो या फिर भारत उदय यात्रा। हर यात्रा में नुकसान ही उठाना पड़ा है। हर बार गच्चा खाया, लोगों को मुगालते में रखा और अदूरदर्शी फैसले लोगों पर थोपा, फिर भी कुछ हासिल नहीं हुआ। राम रथ यात्रा के दौरान दंगे हुए, जिसमें हजारों बेगुनाहों का खून बहा और सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया गया। इससे अभी तक आम जनता ही नहीं, न्यायपालिका और कार्यपालिका भी नहीं उबर पाई है। हर बार की यात्रा के दौरान सुरक्षा के लिए सरकारी तंत्र को मुश्तैद होना पड़ता है। उनकी सुरक्षा का विशेष प्रबंध करना पड़ता है। सांप्रदायिक दंगा को नियंत्रित करने की व्यवस्था करनी पड़ती है और इन पर राज्य सरकारों को बहाने पड़ते हैं करोड़ों रुपये। आडवाणी की हर यात्रा का एकमात्र उद्देश्य सत्ता प्राप्त करने का होता है, मगर इस रथी का मनोरथ हर बार अधूरा ही रह जाता है।
यह बात दीगर है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी की उम्र भले ही ढलान पर हो, लेकिन इस 84 साल के उम्र में भी वे खुद को सत्ता के लोभ से मुक्त नहीं कर पाए हैं। जिस उम्र में आदमी भजन-कीर्तन करता है, उस उम्र में भी उनके मन में सत्ता का लोभ संवरित है। आखिर क्यों? क्यों नहीं, वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर दूसरी पंक्ति के नेताओं को पनपने दे रहे? हर बार वे सरकार और देश को अस्थिर कर सत्ता के गलियारे में पहुंचने का प्रयास करते हैं और हर बार उन्हें असफलता ही हाथ लगती है। सबसे बड़ा गच्चा तो 2004 में खाए, जब उन्होंने ‘इंडिया शाइनिंग’ ‘फील गुड’ के समय अपनी रथ यात्रा निकाली। किसी को भी जानकर हैरत होता है कि 2004 के मार्च से शुरू ‘भारत उदय यात्रा’ के पहले केंद्र की राजग सरकार ने ‘इंडिया शाइनिंग’ और ‘फील गुड इंडिया’ के प्रचार पर सौ अरब से भी अधिक राशि फूंक दिया। इसके बावजूद न तो सरकार को और न ही पार्टी को कुछ हासिल हुआ। उल्टे, 2004 के आम चुनाव में पार्टी ही नहीं, राजग को करारी हार का सामना करना पड़े। इसके बाद भी बूढ़े शेर के मुंह में लगे खून का स्वादर नहीं गया और इसके बाद भी कई यात्राएं की गर्इं। देश के लोगों को लोभ की बेदी पर कुर्बान किया गया और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। अब देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को लक्ष्य बनाकर यह यात्रा शुरू की जा रही है।
इन सबके बीच सवाल यह उठता है कि भ्रष्टाचार और कालाधन के नाम पर सरकार की नाक में दम करने वाली भाजपा के अन्य सदस्य आडवाणी और उनके खेमे के लोग उनसे इसका हिसाब क्यों नहीं लेते? क्या रथ यात्राओं में खर्च की गई धनराशि जनता की गाढ़ी कमाई का हिस्सा नहीं है? क्या यह भ्रष्टाचार का नमूना नहीं है कि एक नेता निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ भी करने को आमादा है? हर बार संकीर्ण मानसिकता को प्रचारित कर देश को सांप्रदायिक दंगे की आग में झोंका जाता है। उनसे क्यों नहीं पूछा जाता कि इस प्रजातांत्रिक देश में रथ यात्रा करने का औचित्य क्या है? क्या रथ उनकी सामंती सोच का परिचायक नहीं है। अमूमन रथ का इस्तेमाल राजा-महाराजा किया करते थे। गरीबों के पास बैलगाड़ी भी नसीब नहीं थी। उनकी सामंती सोच का ही नतीजा है कि आज की युवा पीढ़ी भावनात्मक रूप से उनकी मुहिम से जुड़ नहीं पा रही है। बावजूद इसके वह अपने मुट्ठीभर लोगों के सहारे बार-बार रथ यात्राएं निकाल रहे हैं। आडवाणी रथ यात्रा करके आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या उम्र के इस पड़ाव में वे खुद को सत्ता के लालच से खुद को मुक्त कर पाएं हैं?

राम रथ यात्रा
25 सितंबर 1990 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जन्मदिन पर नवरात्र के समय सोमनाथ शुरू की गई थी भाजपा व लाल कृष्ण आडवाणी की पहली राजनीतिक यात्रा। दावा था छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों को उनका असली चेहरा दिखाने का, लेकिन सांप्रदायिकता के भंवरजाल में खुद फंस गए। मुद्दा राम जन्मभूमि को मुक्ति दिलाने का था। राष्ट्रीय एकता को अल्पसंख्यकों के हाथ की कठपुतली बताया गया। इसमें सैकड़ों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा, राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान उठाना पड़ा और रथ यात्रा में लाखों रुपये पानी की तरह बहाया गया। इस यात्रा से उपजे विवाद के निपटारे के लिए सरकार के आयोग का गठन करना पड़ा, जिसके लिए आत करोड़ों रुपये खर्च किए गए। रथ यात्रा के समापन पर हुई हिंसा से जुड़े मुकदमों के निपटारे और सुनवाई के लिए आयोध्या की निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट की कीमती समय जाया हुआ और इस मुकदमे को लड़ने में लंबे समय तक लाखों रुपये को पानी की तरह बहाया गया। इन सबके बावजूद अब तक न तो राम मंदिर का निर्माण हुआ और न ही अल्पसंख्यक सांप्रदायिक तत्वों से राम जन्मभूमि को मुक्ति। अलबत्ता, सत्ता के गलियारे तक पहुंचने के लिए इस रथ यात्रा से आडवाणी की लोकप्रियता एक कट्टर हिंदूवादी नेता के रूप में जरूर मिली। हालांकि इस यात्रा को लाल कृष्ण आडवाणी अलग रूप में देखते हैं और इसे अल्पसंख्यकों व उनके रहनुमाओं पर किया गया प्रहार मानते हैं। वह कहते हैं

जनादेश यात्रा
राम रथ यात्रा की सांप्रदायिकता से उत्साहित आडवाणी ने सत्ता के गलियारे में पहुंचने के लिए 11 सितंबर 1993 को एक बार फिर सरकार के विरोध में जनमत जुटाने के लिए जनादेश यात्रा की शुरुआत की। यह यात्रा स्वामी विवेकानंद के जन्म दिन पर मैसूर से शुरू की गई। इस बार उन्होंने केंद्र की पीवी नरसिम्हाराव सरकार को अपना निशाना बनाया। इसमें उन्होंने संविधान 80वां संशोधन विधेयक तथा लोक प्रतिनिधित्व (संशोधन) विधेयक पर सरकार को घेरने की कोशिश की। उन्होंने यात्रा के माध्यम से देश में राजनीतिक उबाल लाने का अथक प्रयास किया। इसमें पूर्व उप-राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत ने जम्मू से यात्रा की, पोरबंदर से मुरली मनोहर जोशी और कलकत्ता से कल्याण सिंह ने। इन चारों स्थान से यात्रा शुरू कर सरकार के विरोध में जनमत जुटाने का प्रयास किया गया, मगर हुआ ठीक इसका उल्टा। यात्रा से केंद्र सरकार के खिलाफ जनमत बढ़ने के बजाए वह पहले से ज्यादा मजबूत हो गई।

स्वर्ण जयंती रथ यात्रा
देश में सशक्त राष्ट्रवाद को पुनर्स्थापित न्यायिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में व्यापक सुधार के लिए 15 अगस्त से पहले स्वर्ण जयंती रथ यात्रा की शुरुआत की गई। इसमें सोच, अभिव्यक्ति, आस्था और पूजा की स्वतंत्रा को लक्ष्य बनाया गया। बेवजह बनाए गए लक्ष्य में भी भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की मंशा पूरी न हो सकी। इस बार भी उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर देश को भड़काकर सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की थी। मंशा थी, देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंककर राजनीतिक रोटी सेंकने की, जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिल सकी।

भारत उदय यात्रा
1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार के कार्यकाल के दौरान मार्च-अप्रैल 2004 का भारत उदय यात्रा शुरू की गई। इस यात्रा से पहले ही राजग सरकार ने वर्ष 2003 में ‘इंडिया शाइनिंग’ और ‘फील गुड’ का नारा बुलंद किया। आडवाणी की इस यात्रा का उद्देश्य देश के लोगों को सरकार की योजनाओं को देशवासियों तक पहुंचाना और सरकार के पक्ष में जनमत जुटाना था। इसे शुरू करने के पहले भी जुलाई 2003 में भाजपा नेता आडवाणी ने यात्रा करने की कोशिश की थी, लेकिन अकारण उसे टाल दिया गया। इस यात्रा के शुरू होने के बाद सरकार और पार्टी मुगालते में समय से पहले 15वीं लोकसभा का चुनाव करा दिया। इसी फील गुड और इंडिया शाइनिंग के नारों और आडवाणीजी की यात्रा का कुपरिणाम रहा कि राजग चुनाव में हार गया। बता दें कि आडवाणी ने पूरे पांच महीने तक अपनी यात्रा जारी रखा। इसमें भी करीब सौ अरब रुपये बर्बाद किए गए, मगर नतीजा सिफर ही रहा।

भारत सुरक्षा यात्रा
15वीं लोकसभा चुनाव में हार का मुंह देखने के बाद भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने केंद्र सरकार को घेरने के लिए सुरक्षा मामलों को लेकर 6 अप्रैल से 10 मई 2006 भारत सुरक्षा यात्रा निकाली। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा करना, जेहादी आतंकवाद और वामपंथी उग्रवाद और अल्पसंख्यक विघटनकारी राजनीति से लोगों को सुरक्षा प्रदान कराना था, मगर हुआ ठीक इसका उल्टा। देश में 2006 के बाद से आतंकी गतिविधियां बढ़ीं और कई बड़े बम धमाके हो गए। आज तक देश बम धमाकों की गूंज से कांप रहा है और हजारों बेगुनाह मौत के गाल में समा गए। इसमें भी पार्टी और आम आदमी का पैसा जमकर पानी की तरह बहाया गया।
कुल मिलाकर भाजपा के इस महारथी की रथ यात्रा का आज तक कोई नतीजा नहीं निकला। यह बात दीगर है कि इनकी यात्राओं ने देश में सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाया और हिंसा फैलाने में अहम भूमिका निभाई।