सोमवार, 26 सितंबर 2011

जब ‘नवाब’ बने ‘मुंशी’


उपन्यास सम्राट, आधुनिक कहानियों के पितामह और प्रगतिशील लेखक प्रेमचंद के नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द न जुड़े, तो उनका नाम अधूरा लगता है। मुंशी और प्रेमचंद एक-दूसरे के पर्याय हैं, लेकिन यह कोई नहीं जानता कि लमही के डाकमुंशी अजायब राय के बेटे धनपतराय, नवाबराय और फिर प्रेमचंद, ‘मुंशी’ प्रेमचंद कैसे बन गए। ‘मुंशी’ प्रेमंचद के नाम के पीछे •ाी एक अजीब दास्तां है। क्या है यह अजीब दास्तां है, पढ़िए इस रिपोर्ट में...



विश्वत सेन


हिन्दी साहित्य के उपन्यास सम्राट और आधुनिक कहानियों के पितामह मुंशी प्रेमचंद का पूरा जीवन ही रहस्यमय रहा है। चाहे उनका बाल्यकाल रहा हो या फिर साहित्यक काल। धनपत राय से नवाब राय, फिर नवाब राय से प्रेमचंद और प्रेमचंद से ‘मुंशी’ प्रेमचंद तक के सफर में भी गहरा रहस्य है। यदि आप उपन्यास या कहानी सम्राट का नाम ले रहे हों और उसके आगे मुंशी नहीं लगाया, तो नाम का उच्चारण ही बेमानी साबित होता है। आज प्रेमचंद के नाम का पर्याय है मुंशी। मुंशी उपनाम के बिना प्रेमचंद का नाम अधूरा लगता है, मगर हर किसी को इस बात का पता नहीं है कि प्रेमचंद, मुंशी प्रेमचंद कैसे बनें? क्या आप जानते हैं? यदि नहीं, तो हम आपको बताते हैं। उनके नाम के साथ मुंशी का उपनाम जुड़ने की कहानी भी अजीब है। 
दरअसल, प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी उपनाम कब और कैसे जुड़ गया, इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है। साहित्य से जुड़े कुछ और खासकर उन लोगों को पता है, जिन्हें ‘हंस’ और ‘सरस्वती’ से वास्ता है। अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि शुरुआत में प्रेमचंद अध्यापक थे। उनके जमाने में अध्यापकों को ‘मुंशीजी’ कहा जाता था। इसके अलावा कायस्थों के नाम के पहले सम्मानस्वरूप ‘मुंशी’  शब्द लगाने की परंपरा रही थी। तीसरी बात यह भी है कि पूंजीपतियों के यहां बही-खाते का हिसाब-किताब रखने वालों को भी ‘मुंशीजी’ कहा जाता है। इसीलिए अधिकांश व्यक्ति मुंशी के इन्हीं रूपों को प्रेमचंद के साथ जोड़कर देखते हैं। वे समझते हैं कि शायद इन्हीं कारणों से प्रेमचंद के साथ जुड़कर ‘मुंशी’ रूढ़ हो गया, मगर उनके इस नाम के पीछे की वास्तविकता कुछ और ही है।
प्रोफेसर शुकदेव सिंह के मुताबिक, प्रेमचंद कभी अपने नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द का प्रयोग खुद नहीं करते थे। वह कयास लगाते हैं कि यह उपनाम सम्मान सूचक है। इसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने भी लगा दिया होगा। उनका यह कथन अनुमान पर आधृत है। वास्तविक और प्रामाणिक तथ्य यह है कि प्रेमचंद और कन्हैया लाल मुंशी ‘हंस’ नामक समाचार पत्र में एक साथ काम करते थे। इसके संपादक और सह-संपादक के रूप में प्रेमचंद और कन्हैया लाल मुंशी काम करते थे। कभी-कभी इस पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर प्रेमचंद और कन्हैया लाल मुंशी का लेख एक साथ छपता था और एक ही लेख में दोनों का नाम जाता था। प्रेमचंद के नाम के आगे कन्हैया लाल मुंशी का नाम लिखा जाता था। कभी-कभी कन्हैया लाल मुंशी का पूरा नाम न छापकर सिर्फ ‘मुंशी’ लिखा जाता था और फिर उसके पीछे कॉमा लगाकर प्रेमचंद का नाम छपता था। यह नाम कुछ इस तरह ‘मुंशी, प्रेमचंद’ छपता था। इस प्रकार के नाम हंस की पुरानी प्रतियों पर अब भी देखा जा सकता है। कई बार छपाई के दौरान कन्हैया लाल मुंशी के नाम ‘मुंशी’ के बाद कॉमा नहीं लग पाता था और छप जाता था मुंशी प्रेमचंद। कालांतर में पाठकों ने मुंशी और प्रेमचंद को एक समझ लिया और प्रेमचंद बन गए मुंशी प्रेमचंद। छापाखाने की इसी तकनीकी गलती के कारण प्रेमचंद का नाम मुंशी के बिना अधूरा लगता है। प्रेमचंद को जानने वाले यह भी बताते हैं कि उन्होंने कभी अपने नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। अपनी कहानियों में उन्होंने हमेशा प्रेमचंद ही लिखा है।
गौरतलब है कि 31 जुलाई, 1880 को जन्मे प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था। इन्हें नवाबराय के नाम से भी जाना जाता है। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने नवाबराय के नाम से उर्दू में कहानियां और उपन्यास लिखने लगे। 1910 में ‘सोजे-वतन’ के प्रकाशन के बाद जिला कलक्टर ने उन्हें तलब कर लिया और अंग्रेजी हुकूमत द्वारा उनके लिखने पर रोक लगा दी गई। इसके बाद भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। सोजे-वतन के बाद ही बंगाली साहित्यकार के उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने पहली बार ‘उपन्यास सम्राट’ के नाम से संबोधित किया। नवाबराय के नाम प्रतिबंध लगने के बाद वे धनपत राय के नाम से लिखते थे, लेकिन उस समय ‘जमाना’ पत्रिका के संपादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद के नाम से लिखने की सलाह दी। उनकी यह सलाह धनपतराय को पसंद आ गई और उन्होंने प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया।
आगे चलकर प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया, जिस लीक पर पूरी सदी का साहित्य आगे चल पड़ा। उनकी प्रगतिवादी सोच ने आने वाली एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित किया और साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिंदी साहित्य की एक ऐसी विरासत बन गई है, जिसके बिना हिंदी का विकास संभव ही नहीं था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, जिÞम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब हिंदी में काम करने की तकनीकी सुविधाएं नहीं थीं, तब उनके जैसा काम करने वाला लेखक उनके सिवा और कोई दूसरा नहीं हुआ। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनके साथ प्रेमचंद की दी हुई विरासत और परंपरा ही काम कर रही थी। बाद की तमाम पीढ़ियों, जिसमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं।
हिन्दी साहित्य के पितामह प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन जिन ऊंचाइयों तक पहुंचा हुआ था, उनका निजी जीवन उससे कहीं अधिक दुखदायी और संघर्षमय था। वाराणसी के नजदीक लमही गांव में हुआ था। उनकी माता आनंदी देवी और पिता मुंशी अजायबराय थे। पिता लमही में डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा की शुरुआत उर्दू-फारसी से हुई, जबकि जीवन की शुरुआत अध्यापन कार्य से। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे गोरखपुर के एक विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और 1910 में इंटर पास किया। 1919 में स्नातक पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त किए गए। सात वर्ष की उम्र में उनकी माता आनंदी देवी और 14 साल की उम्र में पिता अजायबराय का देहांत हो गया। यही कारण है कि उनका शुरुआती जीवन संघर्षमय रहा। उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार 15 साल की उम्र में हुआ। उनका यह विवाह सफल नहीं रहा। चूंकि, प्रेमचंद आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती के विचारों से काफी प्रभावित थे, इसलिए वे आर्य समाज से काफी हद तक जुड़े थे। उस समय दयानंद सरस्वती ने विधवा विवाह को लेकर आंदोलन चलाया हुआ था। प्रेमचंद उनके इस मुहिम को सफल बनाने के लिए 1906 में बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह किया। प्रेमचंद और शिवरानी देवी की तीन संताने हुर्इं। उनमें श्रीपतराय, अमृतराय और कमला देवी श्रीवास्तव शामिल हैं। 1910 में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गई। कलक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे। यदि लिखा, तो जेल भेज दिया जाएगा। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया।

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