बुधवार, 21 सितंबर 2011

हांफती सरकारें, भागते लोग

विश्वत सेन
जिस समय देश के महापुरुष इस देश को आजादी जंग लड़ रहे थे, उस समय उनके दिमाग में यह दूर-दूर तक नहीं था कि जिसके लिए वह अपने प्राणों को न्योछावर करने जा रहे हैं आने वाले दिनों में उस देश का हश्र बुरा होगा। आज हम खुद को आजाद देश का नागरिक होने का दंभ भले ही भर रहे हों, लेकिन आज भी हम दुनिया की अर्थव्यवस्था के गुलाम हैं। अमेरिका की साख में बट्टा लगता है, तो बाजार का धड़ाम से गिरने का भय हमें सताता है। लीमैन ब्रदर्स खुद को दिवालिया घोषित करती है, तो आर्थिक मंदी का शिकार भारत को होना पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ती हैं, तो हमारे देश में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी हो जाती है। ऐसी स्थिति में फिर हम काहे का आजाद हैं। इसका मतलब तो यह हुआ कि हमारा अर्थतंत्र पूरी तरह से दूसरे के कंधों पर टिकी है।
सरकार कहती है कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों और दुनिया के मठाधीशों के आगे हम मजबूर हैं, क्योंकि हमें उन मठाधीशों से मदद मिलती है। देश की राज्य सरकारें कहती हैं कि हम केंद्र के आगे मजबूर हैं, क्योंकि केंद्र से अरबों रुपये का अनुदान मिलता है। स्थानीय निकाय कहते हैं कि हम राज्य सरकार के आगे नतमस्तक हैं, क्योंकि उससे हमें योजनाओं की राशि मिलती है। इन सबसे इतर यह कि राज्य और केंद्र सरकारें अपने अफसरशाहों और सफेदपोशों के आगे नतमस्तक है, क्योंकि ये देश को चलाने वाली योजनाएं बनाते हैं। योजनाएं बनती हैं और क्रियान्वित भी की जाती हैं, लेकिन उसका फायदा देश की सिर्फ चालीस फीसदी आबादी को ही मिल पाती है। बाकी की 60 फीसदी आबादी मोहन लाल महतो वियोगी की कविताओं को ही चरितार्थ करने में जुटी है। यह बात दीगर है कि उपोक्तावाद और बाजारवाद के इस युग में ग्रामीण इलाकों में भी कुछ लोगों की क्रयशक्ति बढ़ी है, लेकिन अधिकांश किसान, आदिवासी, मूसहर और उपेक्षित वर्ग के लोग अपने जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भाग रहे हैं। सुबह एक जून की रोटी किसी तरह खा लेते हैं, तो रात की चिंता सताती रहती है। दिनभर पत्थर कूटने के बाद ही शायद उन्हें सावन-भादो के महीने में मकई की रोटी और बथुए का साग नसीब हो पाता है। उनके पास महंगे कोल्ड ड्रिंक्स गटकने के पैसे नहीं हैं। उनके सामने अशिक्षा, बेकारी और गरीबी आज भी आजादी के पहले की ही तरह मुंह बाए खड़ी है।
राज्य सरकारें बीपीएल और गरीब परिवार को दो जून की रोटी मुहैया के नाम पर दो रुपये किलो गेहूं और पौने पांच रुपये किलो चावल मुहैया कराने की अनेकानेक योजनाएं चला रही हैं, लेकिन क्या इन सभी योजनाओं का लाभ बीपीएल परिवार के लोगों तक पहुंच रही हैं? इसकी तह में जाने पर स्पष्ट हो जाता है कि दो जून की रोटी के लिए तरसने वाले लोग आज भी फटेहाल और बेहाल हैं। उनका पेट भूख से सटकर पीठ में समा गया है और उनके बच्चे पेट की आग को बुझाने के लिए अपना बचपन र्इंट भट्ठों पर या फिर जंगलों में सूखी लकड़ियां बीनते हुए बिता रहे हैं। यह यहीं तक सीमित हो, तो कोई बात नहीं, लेकिन बाल श्रम की चक्की में पिसता बचपन आज भी शहरों, कस्बों, नगरों और महानगरों के ढाबों में सिसकता हुआ मिल जाएगा। बंगाल के किसी बाप का बेटा अंबाला के ढाबे में अपने परिवार से जुदा दिन काट रहा है, तो किसी की बेटी पंचकूला में किसी अफसर की बीवी की कलछी का शिकार हो रही है। यह सुनकर दिल पसीज जाता है, जब किसी ढाबे पर काम करने वाला बालक कहता है कि उसे घर जाने की फिक्र हो रही है, मगर वह जाए कैसे? उसके माता-पिता उसे अकेला ही छोड़कर चले गए हैं। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, केरल, कर्नाटक आदि समृद्ध राज्यों को छोड़ दें, तो देश के अधिकांश राज्यों की आबादी आज भी गुलामी की ही जिंदगी जी रही है।
विकास के नाम पर देश के राज्यों को बांट दिया गया और नए राज्यों के गठन की मांग की जा रही है, लेकिन अभी तक जिन राज्यों को एक दशक पूर्व अलग किया गया है वही हांफ रहे हैं। छत्तीसगढ़ को छोड़ दें, तो इसके साथ अलग हुए दो राज्य उत्तराखंड और झारखंड की हालत अच्छी नहीं है। विकास के नाम पर यहां भी सिर्फ आंसू ही बहाए जा रहे हैं। खासकर, झारखंड विभाजन के बाद से आज तक राजनीतिक उथल-पुथल से ही नहीं उबर पाया है, तो वह विकास की बात कितनी सोच सकेगा जाहिर है। अभी हाल ही में विभाजित राज्यों की बात छोड़ भी दें, तो पहले से स्थापित राज्यों में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश में भी विकास की गति कछुआ ही है। यहां भी नौकरी-पेशा लोगों को छोड़कर बाकी की स्थिति अच्छी नहीं है। यहां भी गरीबी और भुखमरी सिर चढ़कर बोल रही है। सबसे खराब स्थिति तो उड़ीसा की है, जहां के लोगों को अपनी पेट की धधकती ज्वाला को शांत करने के लिए अपने जिगर के टुकड़े को बेच देना पड़ रहा है। सुनकर और पढ़कर दिल दहल जाता है और मन दहाड़मारकर रोने को होता है, जब किसी मां द्वारा पेट की शांत करने के लिए कलेजे के टुकड़े को मार देने की खबर आती है। शर्म से आंखें तब झुक जाती हैं, जब महाराष्ट्र, उड़ीसा, बंगाल, राजस्थान और देश के दूसरे गरीब राज्यों की महिलाएं रोजी चलाने के लिए सड़कों पर उतर आती हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के भंडारों के बाहर अनाज सड़ रहे हैं, लेकिन देश के गरीबों का पेट भरने के लिए उसके पास अनाज नहीं है।  

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