सोमवार, 26 सितंबर 2011

जब ‘नवाब’ बने ‘मुंशी’


उपन्यास सम्राट, आधुनिक कहानियों के पितामह और प्रगतिशील लेखक प्रेमचंद के नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द न जुड़े, तो उनका नाम अधूरा लगता है। मुंशी और प्रेमचंद एक-दूसरे के पर्याय हैं, लेकिन यह कोई नहीं जानता कि लमही के डाकमुंशी अजायब राय के बेटे धनपतराय, नवाबराय और फिर प्रेमचंद, ‘मुंशी’ प्रेमचंद कैसे बन गए। ‘मुंशी’ प्रेमंचद के नाम के पीछे •ाी एक अजीब दास्तां है। क्या है यह अजीब दास्तां है, पढ़िए इस रिपोर्ट में...



विश्वत सेन


हिन्दी साहित्य के उपन्यास सम्राट और आधुनिक कहानियों के पितामह मुंशी प्रेमचंद का पूरा जीवन ही रहस्यमय रहा है। चाहे उनका बाल्यकाल रहा हो या फिर साहित्यक काल। धनपत राय से नवाब राय, फिर नवाब राय से प्रेमचंद और प्रेमचंद से ‘मुंशी’ प्रेमचंद तक के सफर में भी गहरा रहस्य है। यदि आप उपन्यास या कहानी सम्राट का नाम ले रहे हों और उसके आगे मुंशी नहीं लगाया, तो नाम का उच्चारण ही बेमानी साबित होता है। आज प्रेमचंद के नाम का पर्याय है मुंशी। मुंशी उपनाम के बिना प्रेमचंद का नाम अधूरा लगता है, मगर हर किसी को इस बात का पता नहीं है कि प्रेमचंद, मुंशी प्रेमचंद कैसे बनें? क्या आप जानते हैं? यदि नहीं, तो हम आपको बताते हैं। उनके नाम के साथ मुंशी का उपनाम जुड़ने की कहानी भी अजीब है। 
दरअसल, प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी उपनाम कब और कैसे जुड़ गया, इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है। साहित्य से जुड़े कुछ और खासकर उन लोगों को पता है, जिन्हें ‘हंस’ और ‘सरस्वती’ से वास्ता है। अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि शुरुआत में प्रेमचंद अध्यापक थे। उनके जमाने में अध्यापकों को ‘मुंशीजी’ कहा जाता था। इसके अलावा कायस्थों के नाम के पहले सम्मानस्वरूप ‘मुंशी’  शब्द लगाने की परंपरा रही थी। तीसरी बात यह भी है कि पूंजीपतियों के यहां बही-खाते का हिसाब-किताब रखने वालों को भी ‘मुंशीजी’ कहा जाता है। इसीलिए अधिकांश व्यक्ति मुंशी के इन्हीं रूपों को प्रेमचंद के साथ जोड़कर देखते हैं। वे समझते हैं कि शायद इन्हीं कारणों से प्रेमचंद के साथ जुड़कर ‘मुंशी’ रूढ़ हो गया, मगर उनके इस नाम के पीछे की वास्तविकता कुछ और ही है।
प्रोफेसर शुकदेव सिंह के मुताबिक, प्रेमचंद कभी अपने नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द का प्रयोग खुद नहीं करते थे। वह कयास लगाते हैं कि यह उपनाम सम्मान सूचक है। इसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने भी लगा दिया होगा। उनका यह कथन अनुमान पर आधृत है। वास्तविक और प्रामाणिक तथ्य यह है कि प्रेमचंद और कन्हैया लाल मुंशी ‘हंस’ नामक समाचार पत्र में एक साथ काम करते थे। इसके संपादक और सह-संपादक के रूप में प्रेमचंद और कन्हैया लाल मुंशी काम करते थे। कभी-कभी इस पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर प्रेमचंद और कन्हैया लाल मुंशी का लेख एक साथ छपता था और एक ही लेख में दोनों का नाम जाता था। प्रेमचंद के नाम के आगे कन्हैया लाल मुंशी का नाम लिखा जाता था। कभी-कभी कन्हैया लाल मुंशी का पूरा नाम न छापकर सिर्फ ‘मुंशी’ लिखा जाता था और फिर उसके पीछे कॉमा लगाकर प्रेमचंद का नाम छपता था। यह नाम कुछ इस तरह ‘मुंशी, प्रेमचंद’ छपता था। इस प्रकार के नाम हंस की पुरानी प्रतियों पर अब भी देखा जा सकता है। कई बार छपाई के दौरान कन्हैया लाल मुंशी के नाम ‘मुंशी’ के बाद कॉमा नहीं लग पाता था और छप जाता था मुंशी प्रेमचंद। कालांतर में पाठकों ने मुंशी और प्रेमचंद को एक समझ लिया और प्रेमचंद बन गए मुंशी प्रेमचंद। छापाखाने की इसी तकनीकी गलती के कारण प्रेमचंद का नाम मुंशी के बिना अधूरा लगता है। प्रेमचंद को जानने वाले यह भी बताते हैं कि उन्होंने कभी अपने नाम के आगे ‘मुंशी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। अपनी कहानियों में उन्होंने हमेशा प्रेमचंद ही लिखा है।
गौरतलब है कि 31 जुलाई, 1880 को जन्मे प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था। इन्हें नवाबराय के नाम से भी जाना जाता है। मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने नवाबराय के नाम से उर्दू में कहानियां और उपन्यास लिखने लगे। 1910 में ‘सोजे-वतन’ के प्रकाशन के बाद जिला कलक्टर ने उन्हें तलब कर लिया और अंग्रेजी हुकूमत द्वारा उनके लिखने पर रोक लगा दी गई। इसके बाद भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। सोजे-वतन के बाद ही बंगाली साहित्यकार के उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने पहली बार ‘उपन्यास सम्राट’ के नाम से संबोधित किया। नवाबराय के नाम प्रतिबंध लगने के बाद वे धनपत राय के नाम से लिखते थे, लेकिन उस समय ‘जमाना’ पत्रिका के संपादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद के नाम से लिखने की सलाह दी। उनकी यह सलाह धनपतराय को पसंद आ गई और उन्होंने प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया।
आगे चलकर प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया, जिस लीक पर पूरी सदी का साहित्य आगे चल पड़ा। उनकी प्रगतिवादी सोच ने आने वाली एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित किया और साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिंदी साहित्य की एक ऐसी विरासत बन गई है, जिसके बिना हिंदी का विकास संभव ही नहीं था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, जिÞम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब हिंदी में काम करने की तकनीकी सुविधाएं नहीं थीं, तब उनके जैसा काम करने वाला लेखक उनके सिवा और कोई दूसरा नहीं हुआ। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनके साथ प्रेमचंद की दी हुई विरासत और परंपरा ही काम कर रही थी। बाद की तमाम पीढ़ियों, जिसमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं।
हिन्दी साहित्य के पितामह प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन जिन ऊंचाइयों तक पहुंचा हुआ था, उनका निजी जीवन उससे कहीं अधिक दुखदायी और संघर्षमय था। वाराणसी के नजदीक लमही गांव में हुआ था। उनकी माता आनंदी देवी और पिता मुंशी अजायबराय थे। पिता लमही में डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा की शुरुआत उर्दू-फारसी से हुई, जबकि जीवन की शुरुआत अध्यापन कार्य से। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे गोरखपुर के एक विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और 1910 में इंटर पास किया। 1919 में स्नातक पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त किए गए। सात वर्ष की उम्र में उनकी माता आनंदी देवी और 14 साल की उम्र में पिता अजायबराय का देहांत हो गया। यही कारण है कि उनका शुरुआती जीवन संघर्षमय रहा। उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार 15 साल की उम्र में हुआ। उनका यह विवाह सफल नहीं रहा। चूंकि, प्रेमचंद आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती के विचारों से काफी प्रभावित थे, इसलिए वे आर्य समाज से काफी हद तक जुड़े थे। उस समय दयानंद सरस्वती ने विधवा विवाह को लेकर आंदोलन चलाया हुआ था। प्रेमचंद उनके इस मुहिम को सफल बनाने के लिए 1906 में बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह किया। प्रेमचंद और शिवरानी देवी की तीन संताने हुर्इं। उनमें श्रीपतराय, अमृतराय और कमला देवी श्रीवास्तव शामिल हैं। 1910 में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गई। कलक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे। यदि लिखा, तो जेल भेज दिया जाएगा। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया।

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

अगर यह आंदोलन है, तो आंदोलन...?

विश्वत सेन
प्रजातांत्रिक देश में प्रजा सर्वोपरि है। खासकर, भारत जैसे संसार के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश में उसका महत्व अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा अधिक है। जिस देश के संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत ही ‘जनता के लिए, जनता के द्वारा’ की गई हो, उसकी प्रजा का क्या कहना। वह चाहे तो तख्ता पलट सकती है ओर चाहे तो ताज पहना सकती है। सब उसकी इच्छा पर निर्भर है, मगर उसकी इच्छा जल्दी बलवती नहीं होती। वह सहनशील है। उसमें सहनशीलता की हद तक सहने की क्षमता है। वह तब तक नहीं बोलती, जब तक कि प्याला भर न जाए। यदि कोई ‘बलात्’ या ‘हठात्’ उसके प्याले को भरने की कोशिश करता है, तो वह प्याला ही छलक जाता है। प्याला भरने का दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं। अन्ना हजारे और उनकी टीम का भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन ‘बलात्’ या ‘हठात्’ की नीतियों पर ही आधृत है। पूरी टीम ने प्रजा के सब्र के प्याले को ‘बलात्’ और ‘हठात्’ भरने की कोशिश की है। यही वजह है कि इसका दुष्परिणाम सामने भी आने लगे हैं। सही मायने में देखा जाए, तो टीम अन्ना का भ्रस्ताचार के खिलाफ छेड़ा गया आंदोलन कायदों के अनुरूप खरा नहीं है। हालांकि कुछ लोगों ने अन्ना के इस आंदोलन को महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण आदि के आंदोलनों से जोड़कर देखना शुरू कर दिया। यह उनकी अपनी सोच हो सकती है, लेकिन कायदे के अनुसार, अन्ना की मुहिम आज भी आंदोलन नहीं है। यह निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए भीड़तंत्र को भड़काकर देश को अस्थिर करने का प्रयास हो सकता है। जो लोग इस मुहिम को आंदोलन का रूप देने में तुले हैं, उन्हें इस बात का भी पता होना चाहिए कि महात्मा गांधी के आंदोलन साधन, साध्य और सिद्धांत पर आधृत होते थे। आंदोलन का सूत्रपात करने के बाद यदि उन्हें लगता था कि उनके एकाध कार्यकर्ता भी उसके सिद्धांतों के अनुरूप खरा नहीं हैं, तो उसे वापस लेने का ऐलान भी कर देते थे। आईआईएम अहमदाबाद के प्रोफेसर अनिल गुप्ता कहते हैं कि ‘‘अन्ना के इस आंदोलन में शामिल ज्यादा लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े थे, लोकपाल के किसी इस या उस मसौदे के पक्ष में नहीं। ज्यादातर लोगों को इस बात का एहसास नहीं कि सर्फि एक संस्था में इतनी ज्यादा शक्ति केंद्रित करने से लोकतांत्रिक समाज के लिए एक बड़ा जोखिम खड़ा होगा। एक लोकतांत्रिक समाज की आत्मा नियंत्रण और संतुलन में बसती है। इसमें पहली चीज ज्यादा महत्वपूर्ण होती है।’’ नागरिक प्रतिरोध को महात्मा गांधी ने राजनीतिक सुधार के एक औजार के रूप में इस्तेमाल किया था, मगर अब इस नागरिक प्रतिरोध का बेजा इस्तेमाल होने लगा है। इसी नागरिक प्रतिरोध को टीम अन्ना ने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया है। प्रोफेसर गुप्ता कहते हैं कि ‘‘अपने निजी हितों को व्यावसायिक और सामाजिक हितों से अलग करने का सिद्धांत गांधीवादी आंदोलनों के मूल्यों से मेल नहीं खाता। आंदोलन के नेता अन्ना हजारे की हैसियत को हर किसी ने स्वीकार किया, लेकिन इसके संचालकों का चरित्र और मंशा संदेह के घेरे में है।’’ इतना ही नहीं, कभी टीम अन्ना के हिस्सा रह चुके और अनशन को तोड़वाने में अहम भूमिका निभाने वाले श्रीश्री 108 श्री रविशंकर जी महाराज भी आंदोलन की प्रक्रिया से इत्तफाक नहीं रखते। रविशंकर जी महाराज कहते हैं कि ‘‘नेतृत्व करने की क्षमता हर किसी में नहीं होती। नेतृत्वकर्ता खुद लोगों को उदाहरण दिखाते हुए उसके आधार पर जीता है और वह पूरी तरह से ईमानदार और निष्पक्ष होता है। जब आपमें अपनेपन की भावना होती है, तो आप यह जान लें कि आने हर किसी को अपना बना लिया है। किसी भी संस्था में अपनेपन की भावना सबसे महत्वपूर्ण होती है। इसीलिए किसी भी संस्था, गैर-सरकारी संस्था या सामाजिक संस्था को अपनेपन की भावना बनानी होती है।’’ प्रोफेसर गुप्ता और श्रीश्री 108 श्री रविशंकर जी महाराज की बातों से यह स्पष्ट है कि टीम अन्ना की संस्था में कहीं न कहीं इस देश की प्रजा के लिए अपनापन नहीं है। उनमें ‘बलात्’ या ‘हठात्’ किसी कार्य को अंजाम देने की भावना भरी है। इसीलिए उनमें बिखराव हो रहा है।
यह बात दीगर है कि वर्ष 2011 की शुरुआत में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल को देश की प्रजा और संसद से पारित कराने की नींव रख दी गई थी। इसके लिए मुट्ठीभर लोगों द्वारा आंदोलन की रूपरेखा तैयार की गई और आंदोलन को ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’’ के बैनर तले संचालित करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए ‘हठी’ अन्ना हजारे को आगे कर एक कोर कमेटी गठित की गई। इसकी स्थापना के समय कोर कमेटी के सदस्यों के रूप में अन्ना हजारे के अलावा किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, शांति भूषण, बाबा रामदेव, महमूद मदनी, आर्च विशप बिशेंट एम कोंसेसाओ, सईद रिजवी, न्या तेवतिया, बीआर लाला आदि को शामिल किया। बाद में, इससे स्वामी अग्निवेश और श्रीश्री 108 रविशंकर को भी जोड़ा गया। इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले अप्रैल में अन्ना हजारे द्वारा अनशन किया गया। उसी समय 16 अगस्त से दोबारा अनशन करने की घोषणा की गई, हठी अन्ना और उनकी टीम की ‘बलात्’ या ‘हठात्’ की नीति से इंडिया अगेंस्ट करप्शन की संस्थापक टीम में विखंडन शुरू हो गया। इसी का नतीजा रहा कि बाबा रामदेव ने अलग राह पकड़ लिया और खुद के बूते नौ दिन का अनशन किया। टीम अन्ना द्वारा बंद कमरे में तैयार की गई भ्रष्टाचार के खिलाफ तैयार की गई रणनीति पूरी तरह लोगों में बनावटी जोश भरने वाली थी। आज से सालों पहले मुंशी प्रेमचंद ने देश में होने वाले इस प्रकार के बनावटी आंदोलनों को लेकर कहा था कि ‘‘बनावटी जोश में ताकत नहीं, इसका उन्हें अंदाजा नहीं है। असली ताकत वह है, जो अपने बदन में हो। खासकर, बड़े आंदोलनों में तो बनावटी ताकत का सहारा नहीं लेना चाहिए। प्रजा जब तक खुद न संभलेगी, तब तक उसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता।’’ इसमें कोई दो राय नहीं कि टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ी गई मुहिम में बनावटपन अधिक था। स्वार्थांध टीम अन्ना को आंदोलन के सिद्धांतों का खयाल ही नहीं रहा। टीम के सदस्य इस बात को भूल गए कि आंदोलन के सिद्धांतों को त्यागने के बाद उन्हें इसके दुष्प्रभावों का सामना भी करना पड़ेगा। उन्होंने कृत्रिम जनसमर्थन के माध्यम से अपनी निरंकुश जनवादिता को देश और सरकार पर थोपने की कोशिश की। इसी का नतीजा रहा कि अनशन के पहले बाबा रामदेव, फिर स्वामी अग्निवेश, जस्टिस संतोष हेगड़े और बाद में श्रीश्री 108 श्री रविशंकर जी महाराज अलग होते चले गए।
दरअसल, यह जानकर लोगों को हैरानी होगी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मुहिम की नींव वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद ही रख दी गई थी। चुनाव के समय भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने देश से बाहर जमा कालेधन को वापस लाने के मुद्दे को उठाकर बैतरणी पार करने की सोची थी। इसके लिए उन्होंने पार्टी स्तर पर पूरजोर कोशिश भी की, मगर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का चुनाव जीतने के कारण उनकी मुहिम दो साल पीछे चली गई। कॉमनवेल्थ गेम्स और टूजी स्पेक्ट्रम घोटालों को उजागर होते ही भाजपा की मुहिम बलवती हो गई और उसके नेता सरकार के खिलाफ गोलबंद होने लगे। सड़क से लेकर संसद तक किए गए हंगामे के बाद जब उनका काम सधता नजर नहीं आया, तो उन्होंने कालेधन को छोड़कर भ्रष्टाचार को अपना मुद्दा बनाया। उसे भूनाने की कोशिश की गई, लेकिन इसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिली। यह पूरा देश जानता है कि राजग सरकार के कार्यकाल में प्रखर वकील प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण केंद्रीय मंत्री थे। वहीं, टीम अन्ना के सदस्यों में शुमार किरण बेदी को दिल्ली पुलिस के संयुक्त आयुक्त के पद पर बने रहते हुए संयुक्त राष्ट्र में भारत की ओर से सुरक्षा सलाहकार बनाकर भेजा गया था। अरविंद केजरीवाल राजग के शासनकाल में ही ‘पालित-पोषित’ हुए। पार्टी ने अपनी मंशा को पूरा न होते देख परोक्ष रूप से पहले बाबा रामदेव, फिर इन तीनों से अपने ‘एहसान’ का बदला चुकाने की नीति अख्तियार की। इसी का नतीजा रहा कि वर्ष 2010 के आखिरी महीनों में किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण की ‘तिकड़ी’ बनी और उन्होंने आमीर खान के माध्यम से अन्ना हजारे को शामिल किया। वर्ष 2010 में ही इस तिकड़ी ने सरकार को घेरने के लिए जनलोकपाल का मसौदा तैयार कर लिया था। इसी का नतीजा रहा कि 2011 की शुरुआत में उन्होंने अपने ‘आकाओं’ के इशारे पर तीव्रता के साथ काम करना शुरू कर दिया। यह बात दीगर है कि टीम अन्ना की ‘बलात्’ या ‘हठात्’ की नीति में भाजपा का ‘हाथ भी जल’ गया, लेकिन अब भी उसे इस बात का संतोष है कि वह अपनी मुहिम में बहुत हद तक सफल है।

जेब पर सरकारी ‘डाका’



विश्वत सेन/नई दिल्ली
वर्ष 2011 की जनवरी में अहमदाबाद के पेट्रोल की कीमत 52 रुपये 28 पैसे थी। सितंबर में तीन रुपये के इजाफे के साथ ही इसकी कीमत 70 रुपये 52 पैसे हो गई। यानी, बीते नौ महीने के दौरान अहमदाबाद में औसतन हर महीने 2 रुपये 26 पैसे की दर से बढ़ोतरी हुई। इसी प्रकार देश के दूसरे शहर भी हैं, जहां प्रतिमाह दो से छह रुपये की औसत से पेट्रोल की कीमतों में इजाफा किया गया। पेट्रोल की कीमतों की यह बढ़ोतरी पिछले 20 सालों में कभी नहीं हुई थी। 
सरकार द्वारा पेट्रोल की कीमतों में करीब तीन रुपये की बढ़ोतरी करने का लिया गया फैसला आम आदमी के लिए दुखदायी साबित होगा। पिछले छह महीने के दौरान सरकार ने शहरों में कई स्तरों पर पेट्रोल की कीमतों में इजाफा करके लोगों की जेबों पर डाका डाला है। सरकार आम जनता के हितों को दरकिनार करते हुए पेट्रोल के दामों में इजाफा करती जा रही है, लेकिन उसे लोगों की जेबों और उनकी आमदनी की रत्ती भर भी परवाह नहीं है।
वर्ष 2011 की शुरुआत से ही सरकार द्वारा देश के कई शहरों में पेट्रोल की कीमतों में हुए इजाफों पर नजर डालें, तो पिछले नौ महीनों के दौरान देश में 3 रुपये 38 पैसे से लेकर 15 रुपये 24 पैसे तक वृद्धि की गई है। जनवरी से जून के दौरान गुजरात के अहमदाबाद में सबसे अधिक पेट्रोल की कीमतों में इजाफा किया गया। 25 जनवरी को यहां पेट्रोल की कीमत 52 रुपये 28 पैसे थी, जबकि 22 मई को इसमें बेतहाशा इजाफा किया गया। इसकी कीमत में 15 रुपये 24 पैसे की बढ़ोतरी की गई और यह 67 रुपये 52 पैसे की ऊंची दर पर पहुंच गई। आंध्र प्रदेश के हैदराबाद में मार्च से मई के बीच पेट्रोल की कीमतों में 5 रुपये 55 पैसे का इजाफा किया गया। 21 मार्च को यहां पेट्रोल की कीमत 65 रुपये 15 पैसे थी। 22 मई को यह बढ़कर 70 रुपये 70 पैसे की दर तक पहुंच गई। दिल्ली में जनवरी  से मई के बीच पेट्रोल की कीमतों में तीन किश्तों में इजाफा किया गया। मई तक इसकी कीमतों में करीब 5 रुपये 04 पैसे का इजाफा किया गया। 16 जनवरी को दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 58 रुपये 37 पैसे थी। 15 मई 2011 तक इसकी कीमत 63 रुपये 41 पैसे कर दी गई। इसी प्रकार मुंबई और कोलकाता में भी पेट्रोल की कीमतों में इजाफा किया गया। मुंबई में जनवरी से जून के दौरान इसकी कीमत में 5 रुपये 25 पैसे और कोलकाता में फरवरी से मई के दौरान 4 रुपये 81 पैसे का इजाफा किया गया। दो दशक पहले के दामों पर नजर डालें, तो वर्ष 1989 में पेट्रोल की कीमत 8 रुपये 50 पैसे थी। अब यही कीमत 80 रुपये प्रतिलीटर की ऊंची दर को छूने के लिए बेकरार है।
इसके विपरीत देश में आम लोगों की आय में बढ़ोतरी नहीं हुई है। यह बात दीगर है कि सरकार ने वर्ष 2008 में छठे वेतन आयोग सिफारिशों को मानकर सरकारी कर्मचारियों को झुनझुना थमा दिया है, लेकिन पेट्रोल की कीमतों और महंगाई दरों में हो रही बढ़ोतरी उनकी जेबों पर भी भारी पड़ रही है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की 2010 की रिपोर्ट की मानें, तो भारत में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 1 लाख 63 हजार 611 है। वहीं विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की प्रति व्यक्ति औसत आय 72 हजार रुपये से अधिक नहीं है। औसत आय में अस्थिरता और आमदनी के सीमित संसाधनों के बीच सरकार आम आदमी के हितों को नजरअंदाज कर अंतरराष्ट्रीय बाजारों का हवाला देते हुए पेट्रोलियम पदार्थों, रसोई गैस और खाद्य सामग्रियों की कीमतों में लगातार इजाफा करती जा रही है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अकेले अगस्त महीने में महंगाई दर दहाई के आंकड़े को छूने की स्थिति में पहुंच गई है। 13 सितंबर को पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक, अगस्त महीने में महंगाई दर 9.78 फीसदी तक पहुंच गई है। यह सरकार के लिए चिंता का विषय हो या न हो, लेकिन आम आदमी के लिए दुखदायी जरूर है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में लगातार हो रही बढ़ोतरी से सरकार और उसके मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों की मंशा भी साफ दिखाई दे रही है। आम आदमी के हितों का ढिंढोरा पिटने वाली संप्रग की सरकार अब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी के नाम पर सीधे आम आदमी की गर्दन पर ही हाथ रखने का काम कर रही है।




भारत के शहरों में वर्ष 2011 में कब कितनी बढ़ी पेट्रोल की कीमतें
शहरों के नाम तिथि पट्रोल की कीमतें कुल बढ़ोतरी
अहमदाबाद  25 जनवरी 2011 52.28 रुपये
         22 मई 2011 67.52 रुपये 15.24 रुपये वृद्धि
हैदराबाद  21 मार्च 2011 65.15 रुपये
        15 मई 2011 70.70 रुपये 5.55 रुपये वृद्धि
जयपुर  05 मई 2011 62.64 रुपये
        16 मई 2011 67.45 रुपये 4.81 रुपये वृद्धि
कोलकाता        28 फरवरी 2011        62.50 रुपये
       15 मई 2011 67.31 रुपये 4.81 रुपये वृद्धि
मंगलुरू 22 जनवरी 2011 64.55 रुपये
       23 मई 2011 71.00 रुपये 6.45 रुपये वृद्धि
चेन्नई 08 फरवरी 2011 65.00 रुपये
       15 मई 2011 68.38 रुपये 3.38 रुपये वृद्धि
मुंबई        16 जनवरी 2011 63.08 रुपये
       12 जून 2011 68.33 रुपये 5.25 रुपये वृद्धि
दिल्ली        16 जनवरी 2011 58.37 रुपये
       15 मई 2011 63.41 रुपये 5.04 रुपये वृद्धि
बड़ौदा        18 फरवरी 2011 61.51 रुपये
       16 मई 2011 68.00 रुपये 6.49 रुपये वृद्धि


अन्य देशों में पेट्रोल की कीमत
देश प्रति लीटर पेट्रोल की कीमत
दोहा-कतर 8 रुपये 25 पैसे
सऊदी अरब 8 रुपये 53 पैसे
संयुक्त अरब अमीरात 18 रुपये 14 पैसे
मलेशिया         24 रुपये 11 पैसे
ईरान 25 रुपये 53 पैसे
चीन                                   37 रुपये 31 पैसे

पाकिस्तान                            39 रुपये 22 पैसे

कनाडा                              53 रुपये 01 पैसे

फ्रांस                                74 रुपये 84 पैसे

आॅस्ट्रेलिया                        61 रुपये 61 पैसे

अमेरिका                          39 रुपये 64 पैसे

जर्मनी                           73 रुपये 75 पैसे

इटली                          75 रुपये 34 पैसे

श्रीलंका                        47 रुपये 04 पैसे

बुधवार, 21 सितंबर 2011

मुठभेड़ों का ‘सच’



विश्वत सेन
भे  
देश की सेना और पुलिस को सरकार से वाहवाही या फिर पेचीदे मामलों को सुलझाने की दरकार होती है, तो वह फर्जी मुठभे ड़ कर बेगुनाहों को मौत की घाट उतारने में देर नहीं करती। सेना ने अभी छह अगस्त को कश्मीर में विक्षिप्त व्यक्ति को मारकर पाक प्रशिक्षित आतंकी को मुठभेड़ में मारने का दावा किया था। बाद में पता चला कि वह मुठभेड़ पूरी तरह फर्जी था। सेना के जवानों ने स्वाधीनता दिवस के पहले सरकार की वाहवाही लूटने के लिए जम्मू से किसी विक्षिप्त को पकड़कर पूंछ जिले में मार गिराने की कारगुजारी की। जम्मू-कश्मीर में यह कोई इकलौता मुठभेड़ नहीं था। इसके पहले भी सेना और पुलिस के जवानों की ओर से कई फर्जी मुठभेड़ में तथाकथित आतंकियों के मार गिराने का मामला प्रकाश में आया है। यह सच है कि आतंकवाद, नक्सलवाद और अपराधों के साए में पल रहे इस प्रजातांत्रिक देश की सेना और पुलिस सच का संधान करने के बजाए फर्जी मुठ•ोड़ कर मामले को सुलझाने का दुस्साहस करने में गुरेज नहीं करती। इसी का नतीजा है कि आज जम्मू-कश्मीर के कब्रों में दो हजार से भी अधिक बेनामी और लावारिश लोगों की लाश दफन है।
देश में अकेले जम्मू-कश्मीर ही ऐसा राज्य नहीं है, जहां वाहवाही और सम्मान लुटने के लिए फर्जी मुठभेड़ किए जा रहे हों, बल्कि तमाम राज्यों में पुलिस इस प्रकार के मुठभेड़ों को अंजाम दे रही है। सेना और पुलिस के इस कारनामे पर उंगलियां उठती रही हैं और अभी हाल ही में मानवाधिकार आयोग ने भी उठाए हैं। हालिया जारी रिपोर्ट में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि घाटी में 38 स्थानों पर 2156 लोग सामूहिक कÞब्रों में दफन हैं। बीते दो दशक के दौरान यह पहली बार है, जब मानवाधिकार संस्था ने घाटी में सामूहिक कब्रों में बेनामी और लावारिस लाशों की मौजूदगी को स्वीकार किया है। रिपोर्ट में यह कहा गया है कि तस्लीम कश्मीर की उन सैकड़ों औरतों में हैं, जिनके पति और बेटे लापता हो गए हैं। पिछले छह साल से इंसाफ की जंग लड़ रही है। 27 साल की तस्लीम का कहना है अब उसे इंसाफ मिल जाएगा। साल 2007 में तस्लीम के शौहर नजीर अहमद की लाश जिला गांदरबल की एक गुमनाम कब्र से बरामद हुई थी। सेना और स्थानीय पुलिस पर आरोप है कि दक्षिणी कश्मीर के जिले कोकरनाग के रहने वाले नजीर अहमद को पुलिस के कथित तौर पर स्पेशल आपरेशन ग्रुप ने फरवरी 2006 को श्रीनगर से अगवा कराया था और गांदरबल में उसे एक फर्जी मुठभेड़ में मारकर पाकिस्तान चरमपंथी के तौर पर गांदरबल में दफन कर दिया गया।
सेना और पुलिस के इस कारनामे के बीच एक बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि सामूहिक कब्रों में दफन 2156 लाशों की शिनाख्त कैसे की जाए? मानवधिकार आयोग के प्रमुख सेवानिवृत्त न्यायाधीश बशीर अहमद का कहना है कि अभी यह रिपोर्ट सरकार के सामने पेश नहीं की गई है, लेकिन इन मामलों में सरकार ही जवाबदेह है। उनका कहना है कि काफी जांच-पड़ताल के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि कहीं न कहीं सरकार की प्रशासनिक क्षमता की कमी की वजह से बेगुनाहों का कत्ल किया जा रहा है। उन्होंने कहा है कि सेना ने आतंकवादियों के नाम पर जिन बेगुनाहों को हलाक किया है, उनके परिजनों को इंसाफ मिलना ही चाहिए।
बता दें कि वर्ष 2008 में मानवाधिकार के लिए काम करने वाले संगठनों ने एक रिपोर्ट में अकेले उत्तरी कश्मीर में दर्जनों सामूहिक कब्रों में 2800 बेनामी लोगों की लाश दफन होने का दावा किया था। नजीर अहमद का मामला प्रकाश में आने के बाद आनन-फानन में सरकार ने चार अफसरों और कई जवानों को गिरफ्तार किया था।

जम्मू-कश्मीर में फर्जी मुठभेड़
छह अगस्त मानसिक विक्षिप्त को लश्कर-ए-तैयबा का डिविजनल कमांडर अबु उसमान बताकर फर्जी मुठभेड़ में हलाक करा दिया गया। इस फर्जीवाड़े का श्रेय लेने के लिए सेना ने भी ऐलान कर दिया कि जिला पुंछ के सुरनकोट में 12 घंटे तक चली मुठभेड़ में एक पाकिस्तानी आतंकवादी अबु उसमान को ढेर कर दिया गया है। विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) नूर हुसैन सेना में स्थायी नौकरी चाहता था और थल सेना के एक जवान अब्दुल माजिद को नकद इनाम हासिल करने की इच्छा थी। फलस्वरूप दोनों ने एक साजिश रची और चार अगस्त को राजौरी की गुज्जर मंडी से एक मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति को उठाया और उसे सुरनकोट ले गए। इसके बाद दोनों ने सेना को मुखबरी की कि जिला पुंछ के मरहोटा क्षेत्र में सीमा पार से आए आतंकवादियों को देखा गया है। सेना ने उस क्षेत्र को घेर लिया और उस निर्दोष की हत्या करने के बाद ऐलान कर दिया गया।
सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर
22 नवंबर 2005 को हैदराबाद से महाराष्ट्र के सांगली जा रहे सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी कौसरबी को कथित तौर गुजरात पुलिस ने उठा लिया था। इसके बाद 26 नवंबर 2005 को गुजरात पुलिस ने एक फर्जी मुठभेड़ में सोहराबुद्दीन की कथित तौर पर हत्या कर दी थी। कुछ दिनों बाद कौसरबी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाई गई थी। इस संदिग्ध मुठभेड़ में गोधरा दंगों की गूंज के चलते बार-बार गुजरात के मुख्यमंत्री बनने वाले नरेंद्र मोदी का नाम जुड़ा हुआ है। हालांकि इसका मामला हाईकोर्ट से होते हुए अभी सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है और गुजरात के कई पूर्व मंत्रियों को इसकी सजा भी मिल चुकी है। मामले की जांच सीबीआई कर रही है।
इशरतजहां  फर्जी मुठभेड़
2004 इशरतजहां और तीन दूसरे लोगों का मुठभेड़ फर्जी था। आतंकवादी बताकर इन लोगों को मुठभेड़ में मार दिया गया। इन्हें जिस तरह से मारा गया था, वह पूरी तरह से फर्जी था। गुजरात पुलिस ने इशरतजहां और तीन अन्य को चरमपंथी संगठन लश्कर का सदस्य बताया गया था। इस मामले की जांच भी सीबीआई कर रही है और सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हो रही है।
दारा सिंह एनकाउंटर
राजस्थान के मानसरोवर थाना क्षेत्र में 23 जून 06 को दारासिंह उर्फ दारिया को एसओजी ने मुठभेड़ में मार गिराया था। उसकी पत्नी सुशीला ने एसओजी पर एक भाजपा नेता और पूर्व मंत्री के दबाव में पति की फर्जी मुठभेड़ में हत्या करने का आरोप लगाया था। पुलिस ने इस मामले में मुठभेड़ को सही मानते हुए एफआर (अंतिम रिपोर्ट) पेश कर दी थी। मामला हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने इस मामले की जांच शुरू की थी। दारा सिंह के परिवार पर बयान बदलने के लिए दबाव डाला जा रहा है। यहां तक कि जान से मारने की धमकी भी दी गई है। दारा के परिवार ने इसकी शिकायत सीबीआई के निदेशक से की है और सुरक्षा की गुहार लगाई है।
मुरैना फर्जी मुठभेड़
22 नवंबर 2010 को टेंटरा थाना क्षेत्र के जाटौली गांव के बीहड़ों में मुठभेड़ में मुरैना पुलिस ने उत्तर प्रदेश के मैनपुरी निवासी चार डकैतों को मारने का दावा किया था। उसका कहना था कि संजू सिंह, गुड्डू सिंह, सोनू व अनिल काछी डकैत हैं। उसने मुठभेड़ स्थल से तीन राइफल, पिस्तौल और कारतूस मिलने का भी दावा किया गया था। मुठभेड़ की न्यायिक जांच कर रहे सबलगढ़ के तत्कालीन एसडीएम विकास नरवाल ने मुठभेड़ पर अहम सवाल उठाए थे।
दतिया फर्जी मुठभेड़
22 अप्रैल 2005 को दतिया पुलिस ने डबरा निवासी खुशालीराम, उसके भाई बालकिशन और कल्ली के साथ घर से उठा लिया। कुछ दिन के बाद बालकिशन और कल्ली को तो छोड़ दिया गया, लेकिन खुशालीराम पुलिस गिरफ्त में ही रहा। 5 फरवरी, 2007 को दतिया पुलिस ने खुशालीराम को डकैत कालिया उर्फ बृजकिशोर बताते हुए मुठभेड़ में मारने का दावा किया। बाद में 29 अप्रैल, 2009 को झांसी पुलिस ने डकैत कालिया को एक मुठभेड़ में जिंदा पकड़ लिया।


हांफती सरकारें, भागते लोग

विश्वत सेन
जिस समय देश के महापुरुष इस देश को आजादी जंग लड़ रहे थे, उस समय उनके दिमाग में यह दूर-दूर तक नहीं था कि जिसके लिए वह अपने प्राणों को न्योछावर करने जा रहे हैं आने वाले दिनों में उस देश का हश्र बुरा होगा। आज हम खुद को आजाद देश का नागरिक होने का दंभ भले ही भर रहे हों, लेकिन आज भी हम दुनिया की अर्थव्यवस्था के गुलाम हैं। अमेरिका की साख में बट्टा लगता है, तो बाजार का धड़ाम से गिरने का भय हमें सताता है। लीमैन ब्रदर्स खुद को दिवालिया घोषित करती है, तो आर्थिक मंदी का शिकार भारत को होना पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ती हैं, तो हमारे देश में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी हो जाती है। ऐसी स्थिति में फिर हम काहे का आजाद हैं। इसका मतलब तो यह हुआ कि हमारा अर्थतंत्र पूरी तरह से दूसरे के कंधों पर टिकी है।
सरकार कहती है कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों और दुनिया के मठाधीशों के आगे हम मजबूर हैं, क्योंकि हमें उन मठाधीशों से मदद मिलती है। देश की राज्य सरकारें कहती हैं कि हम केंद्र के आगे मजबूर हैं, क्योंकि केंद्र से अरबों रुपये का अनुदान मिलता है। स्थानीय निकाय कहते हैं कि हम राज्य सरकार के आगे नतमस्तक हैं, क्योंकि उससे हमें योजनाओं की राशि मिलती है। इन सबसे इतर यह कि राज्य और केंद्र सरकारें अपने अफसरशाहों और सफेदपोशों के आगे नतमस्तक है, क्योंकि ये देश को चलाने वाली योजनाएं बनाते हैं। योजनाएं बनती हैं और क्रियान्वित भी की जाती हैं, लेकिन उसका फायदा देश की सिर्फ चालीस फीसदी आबादी को ही मिल पाती है। बाकी की 60 फीसदी आबादी मोहन लाल महतो वियोगी की कविताओं को ही चरितार्थ करने में जुटी है। यह बात दीगर है कि उपोक्तावाद और बाजारवाद के इस युग में ग्रामीण इलाकों में भी कुछ लोगों की क्रयशक्ति बढ़ी है, लेकिन अधिकांश किसान, आदिवासी, मूसहर और उपेक्षित वर्ग के लोग अपने जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भाग रहे हैं। सुबह एक जून की रोटी किसी तरह खा लेते हैं, तो रात की चिंता सताती रहती है। दिनभर पत्थर कूटने के बाद ही शायद उन्हें सावन-भादो के महीने में मकई की रोटी और बथुए का साग नसीब हो पाता है। उनके पास महंगे कोल्ड ड्रिंक्स गटकने के पैसे नहीं हैं। उनके सामने अशिक्षा, बेकारी और गरीबी आज भी आजादी के पहले की ही तरह मुंह बाए खड़ी है।
राज्य सरकारें बीपीएल और गरीब परिवार को दो जून की रोटी मुहैया के नाम पर दो रुपये किलो गेहूं और पौने पांच रुपये किलो चावल मुहैया कराने की अनेकानेक योजनाएं चला रही हैं, लेकिन क्या इन सभी योजनाओं का लाभ बीपीएल परिवार के लोगों तक पहुंच रही हैं? इसकी तह में जाने पर स्पष्ट हो जाता है कि दो जून की रोटी के लिए तरसने वाले लोग आज भी फटेहाल और बेहाल हैं। उनका पेट भूख से सटकर पीठ में समा गया है और उनके बच्चे पेट की आग को बुझाने के लिए अपना बचपन र्इंट भट्ठों पर या फिर जंगलों में सूखी लकड़ियां बीनते हुए बिता रहे हैं। यह यहीं तक सीमित हो, तो कोई बात नहीं, लेकिन बाल श्रम की चक्की में पिसता बचपन आज भी शहरों, कस्बों, नगरों और महानगरों के ढाबों में सिसकता हुआ मिल जाएगा। बंगाल के किसी बाप का बेटा अंबाला के ढाबे में अपने परिवार से जुदा दिन काट रहा है, तो किसी की बेटी पंचकूला में किसी अफसर की बीवी की कलछी का शिकार हो रही है। यह सुनकर दिल पसीज जाता है, जब किसी ढाबे पर काम करने वाला बालक कहता है कि उसे घर जाने की फिक्र हो रही है, मगर वह जाए कैसे? उसके माता-पिता उसे अकेला ही छोड़कर चले गए हैं। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, केरल, कर्नाटक आदि समृद्ध राज्यों को छोड़ दें, तो देश के अधिकांश राज्यों की आबादी आज भी गुलामी की ही जिंदगी जी रही है।
विकास के नाम पर देश के राज्यों को बांट दिया गया और नए राज्यों के गठन की मांग की जा रही है, लेकिन अभी तक जिन राज्यों को एक दशक पूर्व अलग किया गया है वही हांफ रहे हैं। छत्तीसगढ़ को छोड़ दें, तो इसके साथ अलग हुए दो राज्य उत्तराखंड और झारखंड की हालत अच्छी नहीं है। विकास के नाम पर यहां भी सिर्फ आंसू ही बहाए जा रहे हैं। खासकर, झारखंड विभाजन के बाद से आज तक राजनीतिक उथल-पुथल से ही नहीं उबर पाया है, तो वह विकास की बात कितनी सोच सकेगा जाहिर है। अभी हाल ही में विभाजित राज्यों की बात छोड़ भी दें, तो पहले से स्थापित राज्यों में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश में भी विकास की गति कछुआ ही है। यहां भी नौकरी-पेशा लोगों को छोड़कर बाकी की स्थिति अच्छी नहीं है। यहां भी गरीबी और भुखमरी सिर चढ़कर बोल रही है। सबसे खराब स्थिति तो उड़ीसा की है, जहां के लोगों को अपनी पेट की धधकती ज्वाला को शांत करने के लिए अपने जिगर के टुकड़े को बेच देना पड़ रहा है। सुनकर और पढ़कर दिल दहल जाता है और मन दहाड़मारकर रोने को होता है, जब किसी मां द्वारा पेट की शांत करने के लिए कलेजे के टुकड़े को मार देने की खबर आती है। शर्म से आंखें तब झुक जाती हैं, जब महाराष्ट्र, उड़ीसा, बंगाल, राजस्थान और देश के दूसरे गरीब राज्यों की महिलाएं रोजी चलाने के लिए सड़कों पर उतर आती हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के भंडारों के बाहर अनाज सड़ रहे हैं, लेकिन देश के गरीबों का पेट भरने के लिए उसके पास अनाज नहीं है।